मेरी आवारगी

“बिटिया” मेरी सबसे सुंदर कविता : अनुराग द्वारी


अनुराग द्वारी सर की कविता 'बिटिया'

बिटिया ने दसवीं पास कर ली ... 
मेरी आंखों में फ्लैशबैक, उन बीते सालों की याद से हैं
जब मैंने अपनी बच्ची को ज़िंदगी से लड़ते देखा था।

वो सिर्फ़ तीन साल की थी, जब
टीबी ने उसके मासूम शरीर में घर कर लिया था।
छह महीने तक समझ ही नहीं आया
क्यों दवाएं असर नहीं कर रहीं।
हर रोज़ वो थोड़ा और टूटती,
और मैं —
हर रोज़ थोड़ा और जुड़ता,
कभी डॉक्टर की तरह,
कभी मां की तरह,
कभी भगवान की तरह उसे सीने से लगाए।

हर दिन जैसे रेत बनकर हाथों से फिसलता,
उसे पेंसिल तक पकड़ने में तकलीफ़ होती थी —
कभी लकीरें सीधी नहीं बनती थीं,
कभी शब्द गुम हो जाते थे।
उसकी मां थक जाती, चिढ़ जाती,
और मैं?
मैं अपनी बाहों को उसका झूला बनाता,
घंटों ‘स्टोन-पेपर-सीज़र’ खेलता,
लूडो में हार जाता, कभी जीतकर लड़ता ...
ताकि वो एक बार मुस्कुरा दे, झगड़ ले ... 

जब पहली बार उसने कहा —
“पापा, मैं भरतनाट्यम नहीं कर सकती...”
तो वो सिर्फ़ एक वाक्य नहीं था,
वो मेरी बच्ची का पहला टूटा सपना था —
जो उसने डर के मारे मां से नहीं,
प्यार के भरोसे मुझसे कहा, एक मुस्कान के साथ ...
वो मुस्कान जिसने मेरे भीतर के डर को हर बार हराया।

ढाई-तीन साल तक
वो दर्द में रही, और मैं —
उसका दर्द अपने सीने में
हर पल जीता रहा।
हर एंटीबायोटिक की असरहीनता
मुझ पर वार करती थी।

और फिर एक दिन —
मैंने सब कुछ छोड़ने का फ़ैसला लिया।
मुंबई — सपनों का शहर, करियर का दरवाज़ा —
सब पीछे छोड़ दिया।
लोग हंसे, बोले, “कौन छोड़ता है मुंबई?”
मैंने कहा —
“वो बाप जो जानता है कि उसकी बिटिया की सांसें
उसके कंधों से जुड़ी हैं, किसी शहर से नहीं।”

नई जगह, नए हालात,
कम कमाई, बढ़ती चिंता —
पर एक दिन मेरी बिटिया हँसी...
और मैं जान गया, मेरा फ़ैसला सही था।

आज जब उसका रिज़ल्ट देखा —
आंखों के सामने वो नन्हीं उंगलियां घूम गईं
जो कांपती थीं पेंसिल पकड़ते हुए,
वो झूलता बचपन, वो टपकते इंजेक्शन,
वो लंबी रातें जब मुझे नींद नहीं आती थी....

जब तुम तीन बरस की थी
और तेरे फेफड़ों में धूल भर गई थी,
मैंने पहली बार अपनी आंखें नहीं पोंछीं —
क्योंकि मुझे लग रहा था
तेरे हर खांसी में
धरती हिल रही है,
और मैं उसे थाम नहीं पा रहा…

लोग कहते हैं,
बेटियां आंगन की चिड़िया होती हैं —
पर मेरी बेटी तो जंगल की चुप्पी थी,
जिसे दवाएं भी नहीं समझ पाईं,
जिसकी हड्डियों में दर्द बसा था
और मुस्कान… सिर्फ़ मेरे कांधे पर।

जब तू कहती — “पापा, अब और नहीं…”
तो मैं अपनी हथेलियों में
तेरे लिए छोटी-छोटी कहानियां उकेरता,
मां चीखती थी —
थक गई हूं!
और मैं चुप रह जाता था —
क्योंकि मुझे पता था
उसका ग़ुस्सा भी तेरे लिए ही था,
जैसे मेरा सन्नाटा।

नये शहर और नये दोस्तों के बीच, जहाँ तुम अपनी नई पहचान बनाती रही…
मैंने तुझे जंगल की कहानी सुनाई — जहाँ एक लड़की, बाघ से नहीं, अपने टूटते शरीर से लड़ रही थी।

आज मैं ज़ोर से रोया —
छुपकर नहीं…
तेरे कमरे में, तेरी कापियों को चूमकर,
तेरे जूतों की धूल को माथे से लगाकर।
कभी बाबा नागार्जुन की तरह - तूने परीक्षा नहीं, काया और काया‑के पार की पीड़ा पास की है। जैसे मैं छाती पर धरती लिए घूमता रहा— कहते हुए “ बेटी, दीया बचाए रखना, हवा चाहे जितनी तेज़ बहे…”
रविकिरणों‑सा छोटा‑सा हाथ काँपता था, मैं जैसे लता‑मंगेशकर की थपकियाँ गुनगुनाता—
“ नन्हीं कली सोने चली, हवा धीरे आना ... नींद भरे पंख लिये झूला झुला जाना …”
कभी लगता तुम कह रही हो “मैं खो गई हूँ, पापा!”
तब टैगोर की उजली पकड़‑सी मेरी उँगली तुम्हें तारे दिखाती कहती हो —
“जो रौशनी तुम्हारे भीतर है, वह कभी नहीं बुझती।”
निर्मला पुतुल की तरह, तुम्हारे दर्द को हथेली पर बीज की तरह थामे कहना चाहता था—
“बेटियाँ जंगल की चुप्पी होती हैं, धड़कन का संवाद सुनो।”
और आज—
जब तुम्हारी -गुलाबी चूड़ियों‑सी मुस्कान हिलती है,
मानो बस ड्राइवर की बेटी ने खिलौने का आसमान पा लिया हो।

मैं जानता हूँ—एक दिन ये कमरा तुम्हारा नहीं रहेगा,
तुम अपने पंख सहेजे, उड़ जाओगी ... 
मगर मेरी उँगली पर तुम्हारी उजली पकड़ का आलोक‑वलय
जीवन‑भर चमकेगा—
बचपन की वह लौ जो कभी नहीं बुझेगी।
बिटिया, तूने सिर्फ दसवीं नहीं पार की,
तूने बीमारी, भय, और संदेह के घुप्प जंगल को पार किया है।
अब जो राहें खुलेंगी—
उन पर चलना, गाना, सँवरना—
मैं यहीं रहूँगा,
तेरे हर क़दम पर कविता बनकर।
आज तुम अव्वल रही,
नंबरों में ही नहीं,
हौसलों में, उम्मीदों में, जीवन में।
मैं देख रहा हूं उसे —
वो अब मुस्करा रही है,
निडर होकर ख्वाब देख रही है।
और मैं...
आज सिर्फ एक पिता नहीं,
एक कवि हूं,
जिसकी सबसे सुंदर कविता
“बिटिया” है।

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