मेरी आवारगी

ये ''मैंगो पीपुल'' हैं या ''पिलपिले आम'' आदमी....!!




योजनाएं कितनी भी लागू हो जाएं और अहतियात कितने भी बरते जाएं, मुझे नहीं लगता आम आदमी को रेलवे में यूं पिलपिलाने से राहत मिलेगी. हमको भी सालों बाद ऐसी राहत नसीब हुई थी सो तस्वीरें उतार लीं, ये सतना से भुसावल तक का कुछ माह पहले किया सफर है. पहले से बेहतर स्थितियां हो जाने से इंकार नहीं है, लेकिन जनसंख्या विस्फोट को जब तक नहीं रोका जाएगा. कुछ बेहतर होना संभव नहीं है. बावजूद इसके कुछ तो ऐसा होना चाहिए कि ट्रेन फुल होने की कोई सीमा तय हो, ताकि यूं सफर करने से लोग बच सकें. न जाने कब क्या हो और अक्सर होता ही है कहीं कोई दरवाजे से गिरकर गुजर जाता है तो कहीं कोई लटकने में जिंदगी से खिसक जाता है. सीट नहीं है तो दरवाजे पर, फर्श पर और कहीं टॉयलेट के बाहर तो कहीं उसके अंदर भी. अब इनको मैंगो पीपुल नहीं पिलपिले ‘आम’ ही कहिए. लिखना तो बहुत कुछ चाहता था, मगर अब जाने दीजिए. तस्वीरें कुछ धुंधली जरूर हैं मगर इस सफर की याद लंबे समय तक जेहन में ताजा रहेगी. 

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