मेरी आवारगी

बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय...

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूं पाँव 
बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय...

गुरु को समर्पित ये पंक्तियाँ गुरु के बारे में एक गुरु का गुणगान करने के लिए काफी हैं। गुरु वो है जिसे शब्दों में बांधना कठिन सा लगता है जरूरी नहीं कि गुरु एक ही हो दत्तात्रेय ने अपने जीवन में तेईस गुरु बनाए थे। आज भी उनका महत्त्व उतना ही है। कल गुरु शिष्य परम्परा थी तो आज आधुनिकता ने हमें शिक्षक दिवस दिया है। प्रत्येक गुरु का एक ही सपना होता है कि उसका शिष्य उससे भी आगे जाए। गुरु के चरणों में मेरी इस पंक्ति के श्रधा सुमन अर्पित हैं ... 
"जीवन में जब घोर तमस छाया, तब प्रकाश पुंज बनकर तू आया"

शिक्षा पर कुछ और विचार प्राइमरी का मास्टर और पहाड़ डाट कॉम से साभार उत्तराखंड की शिक्षा पर इस कविता के माध्यम से लिए गए हैं। शायद यह पूरी व्यवस्था का सीधा प्रसारण है एकल शिक्षक वाले स्कूलों का,बताता चलूँ की ज्यादातर सरकारी स्कूल शिक्षकों की कमी से जूझ रहें हैं। मैं व्यथित हूँ शिक्षा के स्तर सेबयां करूँ क्या अपनी पाठशाला का जहाँ कक्षायें पांच हैं। पर अध्यापक एक पाठशाला की जिम्मेदारियों से सरकारी आदेशों के भार से,समय से पहले बूढा होता अध्यापक कर भी नही पता पढाने का श्री गणेश, अभी तक नही समझ सका वह शासन प्रशासन का आदेश, जन गणना, गाँव गणना, पशु गणना,और सालों साल मत गणना, होते इसी अध्यापक को निर्देष, मैंने सोचा चलो पूछें हाल चाल नमस्कार मास्टर साहब सब कुशल मंगल, दे नही पता रुआंसा जाता है मास्टर उवाच:-दर्द एक हो तो बताऊँ यहाँ एक में अनेक समाये है। कैंसर के दर्द से भी भयंकर एकल अध्यापक का दर्द है फ़िर भी सुनाता हूँ आपबीती समय पर पाठशाला खोलता हूँ तब बच्चे नही मैं ही होता हूँ। प्रथम कर्तव्य की आहुति से बच्चों की राह मैं ताकता हूँ शिवगण कहूँ या फ़िर राम सेना किसी तरह प्रार्थना करा देता हूँ एक की उपस्थिति लेकर कक्षाओं को नही सजा पाता हूँ। कलम, दवात, कापी किताब मास्टर साहब वह लिखता है न पढ़ता है, मास्टर साहब पेशाब जाऊँ, वह मुझे मारता है सुनते-सुनते सिर पकड़ लेता हूँ। फ़िर दिन के भोजन के लिए बच्चो की गिनती करता हूँ। हिसाब लगाकर चावल दाल लकडी पानी का इंतजाम करता हूँ। इसी चक्कर में मध्यांतर हो जाता हैमध्यांतर के बाद थक जाता हूँ। राम सेना शांत कैसे रहे कुर्सी पर पीठ टिका देता हूँ। कभी-कभी मुझे लगता है सरकार की ओर से नियुक्त प्रशिक्षित ग्वाला हूँ। जो पेड़ की छाँव में बैठा अपनी भेड़ बकरियों को ही चरा रहा अपनी विवशता पर आंसू बरबस यों ही पी लेता हूँ।

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2 Comments

एकलव्य जैसे शिष्य देने वाली गुरुकुल शिक्षा कि संस्कृति वाले इस देश की शिक्षा के बदले मुखौटे में शिक्षक ,शिक्षार्थी व शिक्षा के मायने ही बदल दिए गए हैं। मार्गदर्शक कहे जाने वाले गुरु और शिष्य के मध्य नैतिक मर्यादाओं में तेजी से हो रही गिरावट पूरे समाज के लिए चिंतनीय है। समाज की गिरावट से होड़ लेते हुए शिक्षा से जुड़े हुए उच्च-आदर्श व मूल्य जिस तरह से खोये जा रहे हैं, उससे शिक्षक भी पूर्णतयः विचलित होते दिख रहे हैं। व्यावहारिक खामियों के चलते सर्व शिक्षा का प्रयोग सफल नहीं हो पा रहा है । नैतिक शिक्षा पढ़ाई जाने के बावजूद नैतिकता कितनी कायम है , यह समाज के आईने में दिख रहा है। इस शैक्षिक व्यवस्था में अधिकारीयों की छाया शिक्षकों पर, शिक्षकों की छाया छात्रों पर पड़ती है । राजनीती और अफसरशाही में खोट से ही अव्यवस्थाओं का आगमन हुआ है । जाहिर है इस बात पर सिर्फ़ क्षोभ ही जाहिर किया जा सकता है कि आज हमारा शैक्षिक जगत अमीरी व गरीबी कि दो वर्गीय व्यवस्था में साफ बटा हुआ दिख रहा है। आज ज्ञान के भंडार को खरीदा जा रहा है, और ज्ञान पाने के लिए अकूत धन खर्च करना पड़ रहा है।शैक्षिक हिस्से में पारदर्शिता समाप्तप्राय है ,और इस पवित्र पेशे में माफिया कब्जा जमा चुके हैं । यह कहा जाए कि शिक्षा अब धन व बाहुबलियों कि मुट्ठी में है ,तो ग़लत न होगा । व्यवसायीकरण के इस दौर में शिक्षा को शिक्षा को कुछ लोगों के हाथ कि कठपुतली बना दिया गया है । आख़िर शिक्षक भी इनकी चपेट कंहीं न कंहीं से आ ही जाते है । जाहिर है कि जब पूरे समाज का जो भटकाव हो रहा है , तो शिक्षक भी तो इसी का एक अंग ही तो है ।
शिक्षक संगठन भी अपने ही फायदों कि आड़ में लेकर आन्दोलन करते है , कभी शैक्षिक गुणवत्ता और उसका उन्नयन उनके आन्दोलन का हिस्सा या मुद्दा नहीं बना है । स्कूलों में बच्चों का कितना बहुआयामी और तथा समग्र विकास हो सकता है ,यह उन्हें पढ़ने वाले शिक्षकों कि लगन, क्षमता व उनकी कार्यकुसलता पर ही निर्भर होता है । सरकार को भी इस तथ्य को मानना ही चाहिए कि अच्छी गुणवत्ता और कौशलों से पूर्ण पठन - पाठन तभी सम्भव है जब हर अध्यापक यह मानकर कार्य करे कि वह नए भारत के भावी कर्णधारों को तैयार कर रहा है । आज शिक्षक दिवस के दिन सभी नीति निर्धारकों को भी चिंतन करना चाहिए कि क्या अपेक्षित बदलाव हो पा रहा है । समाज के सामने यह स्पष्ट किया जन चाहिए कि सारी समस्यायों कि जड़ केवल शिक्षा नीतियां और अध्यापक ही नहीं है । विश्लेषण का विषय यह होना चाहिए कि जिनके कारण शैक्षिक नीतियां अपना समय के अनुरूप कलेवर और चोला नहीं बदल पाती है । इस परिवेश में जंहा हर उस व्यक्ति कि तैयारी व शिक्षा को अधूरा मना जाता है , जिसने लगातार सीखते रहने का कौशल न प्राप्त किया हो और उसका उपयोग न कर रहा हो । जो अध्यापक नई तकनीकों से परिचित नहीं हो पा रहे हों , उनका योगदान शैक्षिक आचरण में लगातार कम होता जाता है । आज के परिवेश में वही अध्यापक अपना सच्चा उत्तर-दायित्व निभा सकेगा जो स्वयं अपनी रचनात्मकता व सृजन शीलता के प्रति आश्वस्त हो और अध्ययन शील हो । ऐसी स्थितियां उत्पन्न किए जाने पर उसका स्वागत किया जाना चाहिए जंहा शिक्षक और छात्र साथ-साथ सीखें , चिंतन और निष्कर्ष पर मेहनत करें ।
शिक्षा कि हर गंभीर या अगंभीर चर्चा में अक्सर अध्यापक की कमियां निकलने वाले अक्सर मिल ही जाते हैं । पर यह उसी सच्चाई के कारणवश ही होता कि समाज अध्यापकों से आज भी अन्य लोगों कि तुलना में कंहीं अधिक ऊँचे मापदंडों पर खरे उतरने कि कोशिश लगातार करता रहा है । मेरा मानना रहा है कि भारत के अधिकांशतः अध्यापक अनेक कठिनाइयों व समस्यायों के क्षेत्र में जूझते हुए कार्य करते रहते हैं । अध्यापकों की कमी , अन्य कार्यों में उनकी उर्जा खपाना , अध्यापक प्रशिक्षण संस्थानों कि आई बाढ़ के बावजूद अध्यापक प्रशिक्षण का स्तर लगातार गिर रहा है , जाहिर है इस तरह कि कमियों से उत्पन्न समस्यायों कि जिम्मेदारी शिक्षकों के बजाय शैक्षिक नीति निर्धारकों कि के ऊपर ही आनी चाहिए ।
Udan Tashtari said…
समस्त गुरुओं को नमन एवं शुभकामनाऐं.

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