हिन्दुओं की होली रंगने में लगे मुस्लिम कारीगर |
ये चचा बीते 40 साल से एक माह का समय इसके लिए निकाल ही लेते हैं |
कारखाने में सांचे से गांठी को निकालते मजदूर। सभी फोटो : शकील खान |
- गांठी यहाँ की लोक संस्कृति का अंग
- होली, मराठी नववर्ष व दूसरे त्यौहार में भी रिवाज
- दूसरे तीज-त्यौहार और रिवाजों में भी घुली मिठास
- शक्कर के हार की परंपरा सदियों से कायम
- राज्य भर में होली बिना इसके रहती है अधूरी
- मराठी नववर्ष गुड़ी पड़वा तक रहता है बाजार
- स्वास्थय वर्धक बनाने के लिए पारंपररिक तरीका
शक्कर को उस तापमान तक नीबू और दूध के साथ उबालकर साफ़ करते हुए |
अब तक कायम है रिवाज
शहर की लोक संस्कृति को पिछले तीन दशकों से देखने वाले जगन्नाथ बसैये ने कहा कि गांठी का कारोबार हमारे यहां पीढ़ी दर पीढ़ी हो रहा है. इसकी मिठास मराठी संस्कृति में सैकड़ों सालों से घुली है. होली में बनने वाला यह पकवान ग्राहकों के लिए सालभर में केवल एक माह ही उपलब्ध होता है, जो गुड़ी पड़वा से शुरू हुए मराठी नववर्ष तक चलता है. गुड़ी पड़वा का पूजन गांठी के बिना अधूरा रहता है. मराठी नववर्ष (चैत्र शुद्ध प्रतिपदा शते-शालिवहन) के पहले दिन किए होने वाले विशेष पूजन में तांबे का लोटा (धन का प्रतिरूप), नया कपड़ा (समृद्धि का संकेत), नीम का पत्ता (स्वास्थ सूचक) और गांठी (स्वाद और मिठास का प्रतीक) शामिल हैं. गांठी को शादियों में भी दिए जाने का रिवाज है. इसमें घर जंवाई के लिए आईने वाली गांठी, जंवाई के लिए नोट वाली गांठी सहित अनारकली, सरू, पेटी, ताइत आदि नाम से बनाई जाने वाली गांठी प्रमुख हैं.
रिश्तों की कड़वाहट में मिठास के पल
गुलमंडी के ही कारोबारी सुरेन्द्र बसैये मानते हैं कि गांठी स्वाद, संस्कृति और शुद्धता का अनूठा मेल है. पारंपरिक तरीके से बनाया जाने वाला यह पकवान स्वास्थ्य वर्धक होता है, जिसे शक्कर, दूध और नीबू के प्रयोग से बनाया जाता है. इसमें ग्लूकोज का अपार भंडार लोंगों को स्वाद और स्वास्थ्य दोनो देता है. गर्मियों में लू से लेकर सिर दर्द और कमजोरी तक में लोग इसका प्रयोग करते हैं. यह लोक संस्कृति में होली पर विशेष रूप से आपसी भाईचारे का सौहार्द बनाए रखने के लिए मिठास के तौर पर प्रयोग होती है. होली के दौरान सदियों से चला आ रहा यह रिवाज (गांठी के हार पहनाकर गले लगाना) रिश्तों की कड़वाहट को दूर करना है, जो अब तक जारी है.
कुल एक माह का बाजार
इस पारंपरिक मिठाई का कारोबार होली से गुड़ी पाड़वा तक लगभग एक माह का होता है, इसलिए लोगों को इसका इंतजार रहता है. आमजन में इसकी लोकप्रियता का यह आलम है कि लोग ज्यादा से ज्यादा खरीदकर रख लेते हैं और सालभर इसका प्रयोग करते हैं, क्योंकि यह खराब नहीं होती.
अब कम हैं कारीगर और कारखाने
सैकड़ों साल पुरानी इस परंपरा को लोगों तक पहुंचाने वाले कारोबारी और कारखाने औरंगाबाद में केवल पांच ही बचे हैं. कारोबारियों ने बताया कि राज्य के भी यही हाल हैं. कभी शहर में गांठी बनाने के दर्जन भर से ज्यादा कारखाने थे, लेकिन समय के साथ बढ़ती व्यापारिक अड़चनों ने इन्हें लील लिया है. अब राज्य के दूसरे क्षेत्रों से यहां एक माह के लिए कारीगर आते हैं. पारंपरिक तरीके से गांठी बनाने के लिए अब संसाधन जुटाना भी मुश्किल है. मौजूदा समय कारीगर और सांचों की उपलब्धता ही बड़ा संकट है. अब औरंगाबाद में एक माह के लिए राज्य के ही बदनापुर, जालना, राजाराय-टाकली, मानवत-सेलू और परभणी आदि क्षेत्रों से कारीगर यहां आते हैं.
अपनी तरह के सांचे, कम उपलब्धता
गांठी बनाने के सांचे केवल सागौन की लकड़ी (1500 रुपए किलो) से बनते हैं, जिन्हें एक साल पहले आॅर्डर देकर बनवाते हैं. मौजूदा समय में ये सांचे जालना, सिन्नर और पूना से आते हैं. गांठी होली से गुढ़ी पाड़वा तक केवल एक माह का मौसमी धंधा है. इसमें पेश आने वाली दिक्कतों और तुलनात्मक रूप से मिलने वाले कम लाभ को देखते हुए भी व्यवसायी इससे दूर हुए हैं. बाहर से आने वाले कारीगरों को एक माह के लिए बुलाना, उनके खाने, रहने सहित दूसरी आधारभूत जरूरतों की व्यवस्था सबसे महंगी है.
भाईचारे की मिशाल कारीगर
मिली जानकारी के मुताबिक मराठी लोक संस्कृति और होली को विशेष बनाने वाली पारंपरिक मिठाई गांठी को बनाने वाले 70 फीसदी कारोबारी मुस्लिम भाई हैं, जो बिना किसी परहेज के अपना सालाना व्यवसाय छोड़कर एक माह के इस उत्सव में शरीक होते हैं. बदनापुर से आए कारीगर मिर्जा बेग ने बताया कि गांठी बनाने का हुनर पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित हुआ है. हम सालभर का काम एक माह के लिए विराम देकर इस हुनर को आजमाते हैं और रिश्वों में घुलती कड़वाहट को दूर करने की कोशिश करते हैं.
परंपरा से समझौता नहीं
सूत्रों की मानें तो गांठी के पारंपरिक कारोबार में भी पेशेवरों ने पैर जमाए हैं, अब मशीन से सस्ती गांठी बनाई जा रही है. पुश्तैनी गांठी कारोबारी बसैये बंधु ने बताया कि शहर में भले ही इसके पांच कारखाने (गुलमंडी, रेल्वे स्टेशन, जिंसी और नया औरंगाबाद) बचे हों, ग्राहक समझौता नहीं करते हैं. अहमदाबाद से पिछले साल से लगातार मशीनों से बनी गांठ शहर के बाजार में आ रही है, लेकिन स्वाद और सेहत पसंद ग्राहक उसे नकार रहे हैं. गांठी कारोबार के सिमटने का प्रमुख कारण समाजिक परिवेश और लोक व्यवहार बदलना है. तुलनात्मक रूप से बीते चार दशकों में परंपराओं में बहुत परिवर्तन दिखे हैं. गांठी कारोबार का सीमित होना भी इसका एक हिस्सा है.
इसलिए स्वाद और सेहत
गांठी बनाने के लिए शक्कर का सीरा बनाकर उसे उबाला जाता है, फिर उसमें अनुपात मुताबिक दूध और नीबू डालकर साफ किया जाता है. लगातार उबाल आने से शक्कर का मैला घोल के ऊपर उठता है, जिसे निकालकर अलग किया जाता है. साफ हुए सीरे को एकदम गाढ़ा होने तक पकाते हैं. फिर उसे सागौन के विशेष सांचों में भरा जाता है. ठंडा होते ही सांचे खोले जाते हैं और स्वादिष्ट गांठी तैयार हो जाती है. इस सारी प्रक्रिया में (सांचों को बांधने, उनमें धागे पिरोने, उन्हें धुलने और गाढ़ा सीरा भरते) वक्त सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है. आप इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि गांठी कारखानों में मक्खियां मिलने की संभावना न के बराबर होती है, तस्वीरों में आप कारखाने का दृश्य देख सकते हैं, जहां मख्खियों का नामोनिशान नहीं है.
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