मेरी आवारगी

"आवारा की डायरी" - १ कड़ी में पढ़िए : - जख्म पर तुम्हारी यादों के फाहे रख दिए हैं


"आवारा की डायरी" - १ कड़ी में पढ़िए : - 

जख्म पर तुम्हारी यादों के फाहे रख दिए हैं
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अनन्य की आंखों में नींद ही नहीं थी और घड़ी सुबह के पांच बजा रही थी। यूं तो हर रोज उसकी रात इतनी ही काली होती है, लेकिन आज जैसे ये घना अंधेरा छटने का नाम ही नहीं ले रहा था। ना जाने क्या लगी थी, वो कि कम्बख्त आज तक नहीं छूटी। शायद जिंंदगी में कुछ भी बेवहज नहीं होता। अनन्य को आज कुछ ऐसा ही लगा था, उसे वर्षों बाद सुनकर। पूरे २ साल १८ दिन बाद उसे करीब से सुना था। जिसे कभी गजल की तरह गुनगुनाता था, बीते दो सालों में उसे करीब से देखना तक मुनासिब न हुआ था।

आज अनन्या की आवाज सुनते ही उसकी तबीयत फिर मचल उठी थी। या यूं कहें कि कुछ नासाज सी होने लगी थी। उसे लगा कि अब फिर वही ज्वर (बुखार) जोर पकड़ने वाला है। उसके पूरे बदन में सिहरन सी दौड़ गई। अपने दस बाई दस के मिनाल रेसिडेंसी के दड़बे (छोटा कमरा) से बाहर निकलकर काफी देर से सो चुकी कॉलोनी में वो अकेला ही निशाचर की तरह टहल रहा था। सिगरेट के कश के साथ यादों का धुआं निगलता हुआ, वो पुरानी यादों में खो गया था। उसे याद ही नहीं रहा कि पौ फटने वाली है। लोग मार्निंग वॉक के लिए निकलने लगेंगे। सहसा उसकी तर्जनी में कुछ करंट सा महसूस हुआ। सिगरेट के तेज कश कब का उसे लील चुके थे। बची हुई चिंगारी उसकी दोनों अंगुलियों तक पहुंच चुकी थी। उसने झटके से सिगरेट को नीचे फेंका और कांक्रीट के जंगल में नींद तलाशने के लिए तेजी से कदम बढ़ाता हुआ गार्डन से निकलकर कमरे की ओर बढ़ चला।

अनन्य कमरे पर पहुंचा ही था कि सूरज की रोशनी तेज हो चली थी। जून का सवेरा यूं भी बहुत सुखद नहीं होता है। आलस्य से भरे दिनों में अब जाकर उसकी आँखें बोझिल हो रही थीं। सूरज को नमस्कार कर दबे पाँव वो कमरे के अंदर दाखिल होता है। जमीन पर बिछे बिछौने में एक ओर उसका छोटा भाई खर्राटे मार रहा था, तो दूसरी तरफ दुनिया की भीड़ में यूँ ही अचानक मिला उसका बड़ा भाई राजा अपना रोज का कोटा एक बॉटल 'रोमानोव' वोदका गटकने के बाद चैन से सो रहा था। अनन्य ने उन दोनों के बीच अपनी जगह बनाते हुए धीरे से अपनी बेसुध काया को वहीं ढहा दिया। मानो कि जैसे कोई जिंदा लाश खड़े-खड़े गिर गई हो। राजा अनन्य का सबसे बड़ा राजदार था, उसने अनन्या को लेकर पहले ही उसे एक और मौका देने की वकालत की थी।

नींद के आगोश में आते ही अनन्य भूतकाल और वर्तमान के बीच कहीं पेंडुलम सा झुलता हुआ सपनों में खो गया था। सोते हुए भी उसे अजीब सी बेचैनी महसूस हो रही थी, मगर रूह में सुकून था कि एक बार फिर वो उसकी जिंदगी में लौट रही है। गोया कि उस दरमियानी रात अनन्या के एक फोन कॉल ने उसकी नींद उड़ा दी थी। लगभग साढ़े तीन घंटे लंबी चली बातचीत में भी अनन्य बिना किसी सवाल के बस उसे सुनता रहा, जैसे अनन्या के शब्दों में शहद घुला हो। उसने ये पूंछना भी गंवारा नहीं समझा कि बीते पांच सालों में तुम यूँ तीसरी बार उसकी जिंदगी में क्या फिर से सदा-सदा के लिए जाने के लिए आई हो ? या फिर ठहरोगी...!! साथ-साथ चलोगी ताउम्र एक- दूसरे के चेहरे में झुर्रियां पड़ जाने तक कि वहीं मैं भी तुम्हारी आँखों की पुतलियों में ठहरा रहूंगा। वो तो इतना बदनसीब था कि अनन्या की मनमर्जियों के आगे सिर झुकाकर इसे किस्मत का लेखा मान बैठा था। अनन्य ने पक्का मन बना लिया था कि अगली सुबह तय समय के मुताबिक ९ बजे मनुआभान की टेकरी पर वो अनन्या से मिलने जरूर जाएगा।

ये और है कि कॉलेज में पढ़ाई से लेकर अखबार की नौकरी तक बीते पांच सालों में यह तीसरी दफा हो रहा था, जब अनन्या लौटाबहुरी की रस्म निभा रही थी। इस बीच अनन्य कई बार तड़प-तड़प कर मरने का अहसास कर चुका था। पत्रकारिता का छात्र होने के बावजूद वह उतना खुले विचारों वाला नहीं था कि इक्कीसवीं सदी के ' मॉडर्न लव ' को समझ सके। शायद इसीलिए उसके सभी दोस्त उसका मज़ाक उड़ाते हुए नहीं थकते थे। यूँ तो झीलों की नगरी अलहदा भोपाल की धरती पर ही उसका इश्क परवान चढ़ा था, लेकिन उसके उतार- चढ़ाव अनन्य को भोपाल की सुकून भरी फिज़ा में भी कभी-कभी बेहद बेचैन कर देते थे। अनन्य अपने इश्किया ज्वर से कभी उबर ही नहीं पाया था। इसीलिए उसका पेशेवर जीवन बेहतर नहीं हो पा रहा था। बावजूद इसके वो इश्क़ और अश्क की दास्तां को आगे बढ़ाने के लिए अपने दिल के हाथों मजबूर था। भला दिल के आगे दिमाग की भी कहीं चली है क्या ?

अनन्य ने ३ बजकर ५० मिनट पर अनन्या का कॉल खत्म होते ही लगभग सारी रात इसी उधेड़बुन में लगभग दो डिब्बी गोल्ड फ्लैक फूंकते हुए गुजार दी थी कि वो अब और नहीं सहेगा। नहीं इस बार नहीं...बिल्कुल नहीं वो अबकी बार हरगिज नहीं झुकेगा। लेकिन सुबह के ५ बजते-बजते उसका इरादा बदल गया। नींद में जाने से पहले वो इन्हीं खयालों में डूबा हुआ था कि कैडबरी सिल्क, फ्रूट एंड नट और गुलाब का बुके लेकर जाएगा या फिर यूँ ही खाली हाथ जाना है। शायद उसे ये इल्म भी नहीं था कि तकदीर उसकी जिंदगी की किताब दर्द की स्याही से लिखने वाली थी।

अनन्य के लिए रिश्ते-नाते पेशेवर जिंदगी से बहुत बड़े थे। वो जिंदगी की इबारत को इश्क के इतर से महकाना चाहता था। तभी तो अनन्या के ३ घंटे से ज्यादा लंबे चले कॉल के बाद भी उसकी आँखों में नींद नहीं थी। उसने सुबह होते-होते ५ बजने से पहले अपने नोकिया २६०० से चार शायरी भरे स्वरचित मैसेज अनन्या के सेलफोन पर दाग दिए थे। दर्द भरे शब्दों से आँसुओं में भीगे उसके अल्फाज़ अनन्या से सुबह की संभावित मुलाकात की गवाही दे रहे थे। उसने एक मैसेज में होने वाली मुलाकात के पहले ही लिखकर भेजा था कि
"सोए तो हम पहले भी थे तेरी गोद में सिर रखकर, मगर आज रूह को मिले सुकुँ ने कहा या खुदा दम निकल जाय यहीं सिसक-सिसक कर"
अनन्य सुबह ५ से ६ के बीच सूरज उगते ही नींद के आगोश में भले ही जा चुका था, लेकिन उसकी आत्मा पर फैला प्रेम का प्रकाश उसे सूरज की किरणों से भी ज्यादा महसूस हो रहा था। गोया कि आँखों के ठीक ऊपर किसी ने २०० वाट का बल्ब जला दिया हो। यकायक अनन्य की आँखें खुल गई थीं। ये उसकी जिंदगी की एक और खूबसूरत सुबह थी। घड़ी की टिक- टिक ने ८ बजा दिए थे। अनन्य ९ बजे की मुलाकात के लिए लेट नहीं होना चाहता था। वो आनन-फानन सिरहाने रखी सिगरेट की डिब्बी और लाइटर लेकर कमरे के एक छोर में बने गुसलखाने की तरफ बढ़ गया।

वो अधखुली आँखों से आजू- बाजू पड़े दोनों रूममेट और उसके भाईयों की कुंभकर्णी नींद पर तरस खाता हुआ गुसलखाने में बिना किसी हलचल के पाक़ीज़ा हो रहा था। उस दिन उसे वो गुसलखाना नहीं शाही हमाम नज़र आ रहा था, जहां उसने बदन को रगड़ना भी ठीक न समझा। सप्लाई का पानी भी उसे गुलाब जल से कम नहीं लग रहा था। घंटों गुसलखाने में नहाने के लिए बदनाम अनन्य १० मिनट में फ़ारिग़ होकर बाहर आ चुका था। वो अपने पसंदीदा लिबास से खुद को ढक ही रहा था कि खटर-पटर की आवाज से राजा की नींद खुल गई। अनन्य को इतनी सुबह-सुबह सजा-धजा देखकर राजा ने तंज कसते हुए कहा क्यों बे सोया नहीं क्या ? इक मुलाकात के वास्ते इतनी भी आशिकी ठीक नहीं। अनन्य ने भी फिल्मी अंदाज में हाजिर जवाबी से 'सिर्फ तुम' फिल्म के एक गाने का अंतरा चिपकाते हुए बोला कि 'जिंदा रहने के लिए तेरी कसम एक मुलाकात जरूरी है सनम'। राजा ने भी नसीहत देते हुए उबासी मारी और कहा जाओ मगर "लौटकर सही सलामत आना। सुनो कुछ लेकर जाना और मेरी अपाचे लेते जाओ, जींस से १००० रुपए निकाल लो। गाड़ी में पेट्रोल नहीं है।" अनन्य उछलता हुआ लव यू भाई बोलकर फ्लाईंग किस देता हुआ कमरे से बाहर निकल गया।

अनन्य को मिनाल रेसिडेंसी से मनुआभान की टेकरी तक पहुंचने में वक्त लगने वाला था। तभी उसका नोकिया २६०० टुनटुना गया। उधर से ऊंघती हुई आवाज़ में अनन्या ने कहा तुम आधे घंटे लेट निकलना और मुझे भी एमपी नगर से लेते हुए चलना। मेरी स्कूटी सुनीता लेकर चली गई है। अब मैं तुम्हारे साथ ही चलूंगी। अनन्य की खुशी का तो जैसे ठिकाना ही नहीं रहा। वो बाहर पोर्च पर खड़ी टीवीएस अपाचे को पोंछने में जुट गया। वो २ ही मिनट में आनंद के सागर में गोते लगाते हुए बीते २ सालों की कड़वाहट को भूल गया।

उसे इतना भी याद न रहा कि इसी १० बाई १० के दड़बे में कितनी बार राजा के कंधे पर सर रखकर वो रोया है। जैसे इश्क से बड़ा कोई दर्द ही न हो इस जहाँ में। एक समय वो कितना असहाय और लाचार हो गया था ? वो एक पल में सब भूल गया कि कैसे उसके दिल का दर्द जिस्म में भी नुमाया हो गया था। बीते ५ सालों में उसकी इश्किया दास्ताँ का एक पन्ना ऐसा भी था, जिसमें उसके जिस्म ने उसका साथ छोड़ना शुरू कर दिया था। कभी आधी रात को तो कभी ठीक कॉलेज के इम्तिहान के बीच में उसे दौरे पड़ जाते थे। वो बेसुध छटपटाता रहता था। अनन्य के दिल का दर्द उसके सीने को चीरता हुआ कब उसके पीठ में खंजर की तरह चुभने लगा था, उसे पता ही नहीं चल सका था।

बहरहाल उसने अपने दर्द को पालना सीख लिया था। वो अब दर्द को आंसुओं से बहा देने का हुनर जानता था। वो अकेले में ही सही बड़ी झील के पानी में अपनी आँखों का सैलाब बुझाता रहता था। ये इश्क़ की मेहर ही थी कि गए सालों में धीरे-धीरे उसके आँसुओं ने भी उसका साथ छोड़ दिया था। मगर अनन्या के एक कॉल से दिल के किसी कोने में दफन करके रखी इश्किया किताब के पन्ने फिर हवा के झोंकों से उड़ने लगे थे। घड़ी की सुई उस बीते वक्त पे जाकर ठहर सी गई थी, जहां से उसकी कहानी ने नया मोड़ लिया था। उसे सब कुछ साफ-साफ नीले पानी की तरह नज़र आ रहा था। उसका दिमाग कह रहा था कि "या खुदा तेरी पनाह में ले ले मुझे। अब उस सूकून में जाने को दिल गवारा नहीं करता। ये इश्क की तासीर ही ऐसी है कि मेरी तबीयत अक्सर नासाज हो जाती है।"

ये और है कि आज अपाचे को पोंछते हुए अनन्य का दिल उसके रोकने पर भी नहीं रुक रहा था। वो इसी उधेड़बुन में था कि आगे क्या होगा ? अब इस डगर में और क्या नसीब होगा मुझे, तभी अचानक जैसे उसके दिल से एक आह सी निकली। उसने मन ही मन ईश्वर को याद करते हुए आकाश की ओर देखा और प्रार्थना करते हुए कहा कि " हे मालिक मुझे नहीं पता कि क्या होगा, लेकिन सच कहूं तो एक बार फिर से मुझे इस गुनाहे अजीम में डूब जाने को जी करता है। या मेरे मालिक उसे हमेशा खुश रखना। तेरी रहमत के लिए शुक्रिया मेरे रहबर कि तूने उसे महफूज रखा शायद मेरे लिए। मेरा इतना बेरहम होना मुझे वाजिब नहीं लगता, मगर क्या करूं उस गली में जाने को फिर जी नहीं करता। शायद अबकी बार तबाह होने के लिए ही जाऊंगा। उसका जिंदगी से जाना बर्दास्त भी है शायद, मगर उसकी तासीर नहीं। मुझे उसके साथ ऐसे ही जीने दे मालिक जिंदगी के हर रंग में घुली हुई। न जाने क्यों बहुत डर लग रहा है कि अबकी बार फिर उसके जाने के बाद जिंदगी के इन गलीचों में वापस लौट न सकूंगा। हर बार की तरह मुझे छोड़कर जाने के लिए मत आना रहमदिल, अब जीना मुनासिब न हो सकेगा तेरे बगैर। यूं तो सबकी जिंदगी में ख्वाब अधूरे रह जाते हैं। मंजिल मिलती नहीं और तलाश ताउम्र बनी रहती है। मगर उस प्यासे का क्या कहिए, लहरें जिसके पास से मचल के इतराती हुई निकल गईं।"

अनन्य ने ऊपर वाले से बस आज के लिए इतनी सी इल्तज़ा की थी। वो मन ही मन उस एक सर्व शक्तिमान से ये कह ही रहा था कि उसकी सालों से पथराई आँखों में आँसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा। घड़ी पूरे ९ बजाने जा रही थी, तभी नोकिया २६०० फिर टुनटुना गया। कॉल रिसीव करते ही अबोध सी आवाज ने कान में मिसरी घोलते हुए कहा "तुम निकले नहीं क्या ? पूरे ९ बज गए हैं... मैं अपने कमरे के पास वाले अमूल पार्लर के पास तुम्हारा इंतजार कर रही हूँ।" अनन्य ने रुंधे गले से खुद को संभालते हुए कहा बस १० मिनट में पहुंच रहा हूँ। उसने नोकिया २६०० को जीन्स की हिफाज़त से रखा। हेलमेट के खुले शटर से घुसती मंद हवा उसके चेहरे को चूमती हुई उसके आँसू पोंछ रही थी। अनन्य ने मन ही मन अनन्या को याद करते हुए कहा "अब जो भी होगा देखा जाएगा, मेरे पुराने जख्मों पर तुम्हारी यादों के फाहे रख दिए हैं।"

अगले ही पल पीले रंग की अपाचे २८० सीसी का सेल्फ स्टार्ट वाला लाल बटन दबता है। गाड़ी हवा से बातें कर रही थी। एक बार फिर अनन्य अपनी इश्क की अधूरी दास्तां लिखने के लिए सफर पर निकल चुका था.....!!

© दीपक गौतम
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- क्रमशः जारी। आगे पढ़िए "आवारा की डायरी" - २ कड़ी में।

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नोट : यह 'आवारा की डायरी' नामक अप्रकाशित उस पुस्तक के स्मृति शेष अंश हैं, जिसकी पांडुलिपि तकनीकी खामियों से सालों पहले लैपटॉप से उड़ गई। अब अपनी स्मृतियों के जखीरे से यादों को कुरेद- कुरेदकर कड़ी दर कड़ी उसे फिर से जीवित करने का यह प्रयास मात्र है। इसे किसी साहित्यिक कृति का दर्जा नहीं दिया जा सकता है। क्योंकि 'आवारा की डायरी' अब स्मृति कथा ही शेष रह गई है। उसका मूल स्वरूप कहीं खो गया है।

नोट : यह श्रृंखला अनुबंध के तहत अमर उजाला ब्लॉग में प्रकाशित हो रही है। इसे लेखक की अनुमति के बिना कहीं और प्रकाशित नहीं किया जा सकता है। 

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