मेरी आवारगी

गाँव की दूसरी चिट्ठी का जवाब : मैं अपनी चिता भस्म से तुम्हारी बूढ़ी काया का श्रृंगार करूंगा


मैं अपनी चिता भस्म से तुम्हारी बूढ़ी काया का श्रृंगार करूंगा

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मेरे प्यारे गाँव,
तुम्हारी सौंधी मिट्टी की सुगंध से गुँथा हुआ तुम्हारा पत्र मिला। तुम्हारा हर शब्द मेरी आत्मा के चिथड़ जाने का गवाह है। ये पत्र पढ़कर मैं आत्मग्लानि से भर गया हूँ। अब इस चिथड़न को सिलने का कोई रास्ता मुझे सूझ नहीं रहा है। मेरी स्मृतियों के संसार में तुमने हाहाकार मचा दिया है। मैं यह सोचकर ही गर्त में धंसा जा रहा हूँ कि अब अमराई के कुछ बिरबा ही शेष रह गए हैं। मुझे बेहद अफसोस है कि मेरी पीढ़ी ने तुम्हारे बाग- बगीचे, नदी, तालाब और प्राकृतिक जल स्त्रोतों का ध्यान नहीं रखा। आज वो अपने मूल स्वरूप में नहीं हैं। उनका सौंदर्य खो गया है।

मेरे प्यारे गाँव,
मैं यकीनन तुम्हारे हर लफ़्ज़ से इत्तेफ़ाक रखता हूँ। मुझे तुम्हारी बेरुखी से भी इश्क है। तुम मेरे अस्तित्व का भान हो। तुम मेरी रूह की बेचैनियों का घर हो। तुम्हें जितनी शिद्दत से हमने चाहा है, उतना इसक तो माशूक से भी नहीं किया। गोया ये और है कि इसक हमारा कोई समझे न समझे, हमने जो भी किया बस रूहानी ही किया है। हमें तो सड़े-गले जिस्मों से नहीं रूहानीयत से तरबतर रूहों से ही इसक हुआ है। इश्क़ तो हमने ' हबीबी ' नहीं 'हकीकी' ही जिया है। मैंने तुम्हें इस कदर ओढ़ रखा है कि तुम मेरी रूह का लबादा नज़र आते हो। ये जो मृत काया तुम्हें दिखाई देती है। असल में वो तुम्हारे इसक से लबरेज़ आत्मा की मैली चादर मात्र है, जिसे मैं अपने पुरुषार्थ से धुलने में लगा हूँ। मेरा यकीन करो प्यारे एक दिन आएगा, जब इसका मैलापन चला जाएगा। मैं अपने जीते जी इसे साफ करके मानूंगा। मगर इसमें वक्त लगेगा।

मेरे प्यारे गाँव,
तुमने मेरे बचपन को अपने अंदर जिस तरह से सहेज रखा है, उसका मैं कायल हूँ। बस ये समझ लो कि तुम्हारी स्मृतियों के संसार में टहलकर ही मेरी हर सुबह और शाम गुजरती है। लगभग दो दशक मैं तुमसे दूर रहा हूँ। कोई एक पल नहीं गुजरा जब मैंने तुम्हारे सूख चुके नदी-नालों, अपनी पहचान खो रहे तालाबों और बाग-बगीचों की फिक्र ना की हो। मेरे पास कोई जादू की छड़ी तो नहीं है कि तुम्हारी तस्वीर बदल दूँ। मगर तुम्हारी खुदाई ने मुझे वो हुनर अता किया है कि मैं धीरे-धीरे ही सही तुम्हारी आत्मा के घावों पर अपने इसक का मरहम लगाता रहूंगा। बस तुम भरोसे के महीने धागे को टूटने मत देना। मैं तुम्हारे लिए नहीं खुद के लिए लौट आया हूँ। क्योंकि तुम तक पहुंचने का रास्ता तुम्हीं से होकर जाता है। बस इसीलिए इस रहगुजर पर तुम्हारे इतर कोई मेरे साथ नहीं हो सका है। ये बड़ी कठिन डगर है। मैं अभी इस पर सधे कदमों से चलने की कोशिश कर रहा हूँ। शहर के कांक्रीट भरे जंगलों के मायाजाल से होता हुआ तुम्हारे उजले सवेरे और हसीन चांदनी रातों के लिए मैं लौट आया हूँ।

मेरे प्यारे गाँव,
तुम अभी भूगोल देखोगे, तो पाओगे कि दूरियों को मैंने अपने सधे कदमों से नाप लिया है। अब सैकड़ों किलोमीटर नहीं तुमसे महज़ कुछ मील के फासले पर आकर मैं ठहर गया हूँ। तुम्हारी आत्मा के घाव सूख जाने तक मुझे यहाँ रुकना होगा प्यारे। मैंने तुम्हारे इसक के लबादे को ओढ़ रखा है। तुम फिक्रमंद हो कि अमराई सूख रही है। मगर मैं तुम्हारे अस्तित्व को लेकर चिंतित हूँ। विकास की आंधियों ने तुम तक पहुँचने वाली पगडंडी को सड़क का स्वरूप भले दे दिया हो, लेकिन इस प्रक्रिया ने पगडंडी के इर्द- गिर्द लगे कोई सौ-दो सौ पेड़ों को लील लिया है। तुमने मुझे सूख चुके उस झाड़ की तस्वीर अपने पत्र के साथ प्रेषित की थी, जो मेरे बचपन की स्मृतियों में रचा-बसा है। मैं तो तुम्हें चाहकर भी कुछ ऐसा साझा नहीं कर सकता, जो तुम्हें तकलीफ पहुंचाए।

मेरे प्यारे गाँव,
मैं जहां आकर ठहरा हूँ। ये मेरी नई कर्मभूमि है। यहाँ मैं साधनरत हूँ कि तुम्हारी साधना करने में कोई व्यवधान न पैदा हो। हाँ मैं इसे साधना कह रहा हूँ, क्योंकि तुम्हारे लिए कुछ भी कर पाना ही वास्तव में मेरे लिए साधना है। मेरा यकीन करो प्यारे मैं लौट आया हूँ। तुमसे उतना ही निकट हूँ, जितना तुम्हारे शिवालय के निकट वो जल कुंड है। अब क्या कहूँ कि उसकी भी प्रकृति छीनकर उसे कुएं में तब्दील कर दिया गया है। कुछ भी पहले जैसा नहीं रह गया है। परिवर्तन ही संसार का नियम है। इसलिए कुछ सुखद तब्दीलियां तुम्हें जल्द मिल सकें, मैं इसकी कोशिश में हूँ। क्योंकि हम खुद से कहाँ तक भागेंगे? तुम ही अस्तित्व हो हमारा। हमारे वजूद की अमिट छाप हो। हमें लौटना ही होगा कि मुंडेरों पर पंछी चहचहाते रहें, खेतों में अन्न उगता रहे, बगीचों में फल फूलते रहें। ताजा बयार बहती रहे कि साँस लेने में दम नहीं फूले....। वास्तव में तुम तक पहुंचने की यात्रा प्रकृति को गले लगाने की ही यात्रा है। इसलिए तुम तक पहुंचना ही भोगवादी संस्कृति के बीच संतोष के साथ बेहतर जीवन जीने का सबसे सुखद विकल्प है। यह बात एक रोज़ सबको समझ आएगी कि खेत-खलिहानों से ही अन्न मिला करता है। कंक्रीट के जंगलों में पैसा भले उगता हो, मगर पेट अन्न से ही भरता है।

मेरे प्यारे गाँव,
मैं तो तुम्हें अनवरत खोजता रहता हूँ अपने अंदर। तुम से ही मेरी यात्रा शुरू हुई है और तुम तक पहुंचकर ही खत्म होगी। ये यात्रा कठिन और बेहद श्रमसाध्य है। तुमसे विलग होकर तो मैं अपने अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकता हूँ। तुम्हारे पास लौटना ही असल में स्वयं के पास लौटना है। इसलिए मैं तुम तक पहुंचने को और बेताब हूँ। मेरे प्यारे, बदलते वक्त के साथ तालमेल बिठाते हुए अपनी जरूरतों को सिकोड़कर मैं तुम्हारे पास बहुत खुशहाल जीवन जी सकता हूँ। इसके लिए मैं प्रयासरत हूँ। क्योंकि जब मन के अंदर जीवन की किसी भी परिस्थिति को लेकर संतोष उत्पन्न हो जाता है, तब छद्म भोगवादी संस्कृति का मायाजाल ख़ुद-ब-खुद टूट जाता है। मैं इस मायाजाल से कब का बाहर आ गया हूँ। बस तुम्हारे लिए कुछ करने की चाह लिए मैं प्रयासरत हूँ। असल में जिस साधन से तुम्हारी साधना संभव है, उसे कमाने में वक्त लगेगा। इसीलिए तुम मेरी राह देखते रहना प्यारे। मेरा यकीन करो, मैं तुम्हारी बयार में ही बहना चाहता हूँ। तुम्हारी सुगंध मेरे नथुनों से मरते दम तक नहीं जाएगी। मेरे फेफड़े तुम्हारी फ़िजा का ही आखिरी बार स्वाद चखें, मैं बस उसी इंतजाम में हूँ। मैं तुम्हारी बूढ़ी हो चली काया का अपनी चिता भस्म से श्रृंगार करूंगा।

तुम मुझे पत्र लिखते रहना। तुमने लिखा था कि रंजिश ही सही दिल दुखाने के लिए आ...!! मैं कहता हूँ कि मैं वापस आऊंगा...मैं एक दिन आऊंगा..!!

© दीपक गौतम
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नोट : यह श्रृंखला अनुबंध के तहत अपनी डिजिटल डायरी में प्रकाशित हो रही है। इसे लेखक की अनुमति के बिना कहीं और प्रकाशित नहीं किया जा सकता है। 

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