मेरी आवारगी

समीक्षा : महिलाओं के सवालों पर बात करती प्रेमकथा भामती



पुस्तक आवरण चित्र : साभार पुष्य मित्र जी की फेसबुक वॉल से। 

हिंदी-मैथिली की जानीमानी लेखिका उषाकिरण खान की यह पुस्तक कल रात ही पढ़ कर खत्म की है। वैसे तो यह पुस्तक मूलतः मैथिली में "भामती-एक अविस्मरणीय प्रेमकथा" के नाम से प्रकाशित हुई थी, जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला। फिर बाद में उन्होंने इसे खुद हिंदी में अनुवाद किया और सामयिक प्रकाशन ने छापा है। कहने का अर्थ यह है कि यह पुस्तक दोनों भाषाओं में उपलब्ध है।

इस पुस्तक के बारे में जानने से पहले इसकी पृष्ठभूमि को भी समझ लेना आवश्यक होगा। दरअसल यह पुस्तक दसवीं शताब्दी में रचित पुस्तक "भामती टीका" की रचना प्रक्रिया को केंद्र में लेकर चलती है। भामती टीका की रचना अपने समय के प्रसिद्ध टीकाकार वाचस्पति मिश्र ने की थी। भामती टीका नामक पुस्तक वस्तुतः आदि शंकराचार्य रचित पुस्तक शांकर भाष्य पर लिखी टीका है। और खुद जैसा नाम से स्पष्ट है कि शांकर भाष्य भी एक अन्य पुस्तक पर रचित भाष्य है। उस पुस्तक का नाम ब्रह्मसूत्र है। शांकर भाष्य में शंकराचार्य के समय के प्रसिद्ध दार्शनिक मंडन मिश्र की अपने समय की मशहूर पुस्तक ब्रह्मसिद्धि को लेकर टिप्पणियां हैं। मतलब यह कि उषाकिरण खान रचित पुस्तक भामती-एक अविस्मरणीय प्रेम कथा की पृष्ठभूमि में खुद तीन महान दार्शनिक रचनाएं हैं। इनमें से दो मिथिला के मशहूर दार्शनिक विद्वानों क्रमशः मंडन मिश्र और वाचस्पति मिश्र की रचनाएं हैं। मगर उषा जी की पुस्तक न आदि शंकराचार्य, न मंडन मिश्र और न ही वाचस्पति मिश्र पर केंद्रित है, उनकी रचना का केंद्र भामती हैं, जो वाचस्पति मिश्र की धर्मपत्नी हैं। इसका जिक्र आगे।

जिस भामती टीका पुस्तक की रचना प्रक्रिया पर यह ऐतिहासिक प्रेमकथा लिखी गयी है, उस पुस्तक का महत्व आप घुमक्कड़ अध्येता राहुल सांकृत्यायन की इस उक्ति से समझ सकते हैं कि भामती टीका ने ही उत्तर भारत में आदि शंकराचार्य को प्रतिष्ठापित किया। उससे पहले वे इस क्षेत्र में अल्पज्ञात थे। वैदिक ग्रंथों के कई विलक्षण भाष्य लिखने के बावजूद उत्तर भारत की विद्वान मंडली भी उन्हें दर्शन संबंधी अपनी रचनाओं में कोट नहीं करती थी। भामती टीका के बाद वे विद्वत जनों की निगाह में आये।

इसी पुस्तक में जिक्र है कि शांकर भाष्य की टीका वाचस्पति मिश्र से करवाने खुद शंकर मठ के सातवें शंकराचार्य चल कर मिथिला में वाचस्पति मिश्र के द्वार पर पहुंचे थे।

भामती टीका 18 वर्षों के श्रमसाध्य परिश्रम के बाद वाचस्पति मिश्र ने लिखी है। इसमें शांकर भाष्य और आदि शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत पर टीकाएँ तो हैं ही साथ ही उन्होंने मिथिला की अद्वैत वेदांत परंपरा को भी विशिष्ट पहचान दी है जो उस पुस्तक के रचे जाने से लगभग डेढ़ से पौने दो शहस्त्राब्दि पूर्व याज्ञवल्क्य के समय से चली आ रही थी। उन्होंने आदि शंकराचार्य के उस मत का भी खंडन किया, जिसमें उन्होंने कहा था कि मंडन मिश्र के विचार द्वैत वादी हैं।

वाचस्पति मिश्र ने लिखा कि दरअसल मिथिला की अद्वैत वेदांत की धारा बिल्कुल अलग है। यहां का वेदांत गृहस्थ परंपरा को ज्ञान प्राप्ति में बाधक नहीं मानता। इस वेदांत में नैराश्य नहीं है।

इस विषय पर हमारे समय के मशहूर रचनाकार तारानंद वियोगी ने एक जरूरी पुस्तक "मंडन मिश्र- मिथक और यथार्थ" की रचना की है। यह पुस्तक मैथिली भाषा में रचित है। इस पुस्तक में वे मंडन मिश्र को एक मौलिक दार्शनिक बताते हैं और इस मिथक का खंडन करते हैं कि मंडन मिश्र शास्त्रार्थ में आदि शंकराचार्य से पराजित होकर उनके शिष्य बन गए थे और गृहस्थ का बाना छोड़ कर सन्यासी हो गए, उन्होंने अपना नाम सुरेश्वराचार्य रख लिया था। खैर यह अलग प्रसंग है। फिलहाल तो भामती पर बात करें।

उषाकिरण खान की पुस्तक भामती की रचना इसी महत्वपूर्ण पुस्तक भामती टीका पर केंद्रित है। मगर जैसा कि पहले लिख चुका हूँ इसमें इन ऐतिहासिक प्रसंग का विवरण केवल नमक मसाले की तरह है। पुस्तक में उस नारी भामती की कथा है जो वाचस्पति मिश्र की जीवन संगिनी थी। जिनके नाम पर वाचस्पति मिश्र ने अपनी सबसे महत्त्वपूर्ण पुस्तक का नाम रखा और उसे अनादि काल तक अमर कर दिया। प्रेयसी के नाम पर विद्वानों और लेखकों ने खूब लिखा है, मगर जीवन संघर्ष में 18 साल तक साथ देने वाली पत्नी के नाम पर पुस्तक का शीर्षक देना, यह उदाहरण बहुत दुर्लभ है। अमूमन पुरुष जाति इतनी उदार नहीं होती। सम्भवतः इसी वजह से उषा जी ने इसे अविस्मरणीय प्रेम कथा कहा है।

मगर यह मामला उतना सरल नहीं है। मुझे यह पूरा प्रसंग प्रेम कम, अपराधबोध का पश्चाताप अधिक लगता है, जैसा कि इस उपन्यास की कथा में वर्णित है और यह मिथिला के लोक मानस में दर्ज भी है कि वाचस्पति इतने जुनूनी लेखक थे कि लिखते वक्त वे खुद को आसपास की दुनिया से पूरी तरह काट लेते थे। वे अपनी गुरुपुत्री भामती से विवाह करके लौटे ही थे कि उनके पास शांकर भाष्य पर टीका लिखने का प्रस्ताव आ गया। उस पुस्तक की रचना में वे कुछ इस तरह डूबे कि उन्हें भान ही नहीं रहा कि उनकी कोई पत्नी भी है। 18 वर्ष तक वे लगातार उसी रचना में डूबे रहे। इस बीच भामती ने भी खुद को उन कार्यों में झोंक दिया जिससे इस रचना प्रक्रिया में वाचस्पति मिश्र को कभी असुविधा न हो। उनके लिये कलम और स्याही की व्यवस्था करना, दिए में तेल डालना और उसकी बाती को व्यवस्थित करना। उनके लिए समय से सुरुचिपूर्ण भोजन की व्यवस्था करना। इस बीच में वे अकेले उस गृहस्थी को संभालती रही जिसमें प्रेम की बूंद भी नहीं पड़ी थी। 18 साल बाद जब वाचस्पति ने अपनी पुस्तक को खत्म कर कलम को नीचे रखा तो देखा एक प्रौढ़ स्त्री उनके दिए कि बाती को व्यवस्थित कर रही है ताकि उन्हें प्रकाश का अभाव न हो।

वे अपनी ही पत्नी से पूछ बैठे कि आप कौन हैं? जब उधर से जवाब आया कि मैं आपकी ही ब्याहता हूँ तो वे सन्न रह गए। फिर उन्होंने तय किया कि उनकी इस सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक का नाम इस नारी के नाम पर ही होगा जो उनकी ब्याहता होने के बावजूद और उनकी ब्याहता होने की वजह से भी, प्रेम रहित जीवन जी रही है और अपने जीवन को उनकी इस रचना के लिये होम कर दिया है।

उन्होंने ऐसा इसलिये भी किया, क्योंकि उनकी इस पुस्तक की वजह से भामती की मातृत्व सुख भोगने और वाचस्पति मिश्र की वंश परंपरा को आगे बढ़ाने की आकांक्षा अधूरी रह गयी। इस पुस्तक में उषाजी ने वाचस्पति मिश्र से यह कहलवाया है कि कोई व्यक्ति वंश परंपरा से अमर नहीं होता, मगर वह अपनी कृति की वजह से अनंत काल तक अमर हो सकता है। वाचस्पति मिश्र ने अपनी उस पुस्तक को भामती की संतान कहा और कहा कि मुमकिन है इस संतति की वजह से भामती का नाम हजारों साल भी याद रखा जाए। और उनकी बात सच साबित हुई।

हालांकि यह बात बहुत विश्वसनीय नहीं लगती कि कोई विद्वान अपनी रचना में इस तरह डूब जाए कि वह अपनी पत्नी को ही भूल जाये। लेखक लगातार बैठकर लिखता रहे यह मुमकिन नहीं है। वह दिन में अगर चार घण्टे लिखता है तो आठ घण्टे फालतू गुजारता है ताकि उसका मस्तिष्क लिखने के लिये मानसिक रूप से तैयार हो सके। वह ध्यानमग्न तपस्वी नहीं होता। इस पुस्तक में खुद यह विवरण है कि अक्सर उनके गांव के लोग वाचस्पति से मिलने आते और समसामयिक घटनाओं की उन्हें जानकारी देते। वाचस्पति उन मसलों में डूबते नहीं, मगर बातचीत जरूर करते।

हम अपने समय को देखकर यह समझ सकते हैं कि अपनी महत्वकांक्षाओं में डूबा पुरुष इतना स्वार्थी हो जाता है कि वह अक्सर अपनी पत्नी और गृहस्थी की उपेक्षा कर बैठता है। मुमकिन है वाचस्पति ने इसी वजह से भामती की उपेक्षा की हो और बाद में क्षतिपूर्ति के रूप में पुस्तक को भामती का नाम दिया हो। हालांकि आज भी इतना कोई पुरुष कहाँ करता है।

सवाल यह भी है कि क्या सभ्यता के हजारों साल बाद भी किसी स्त्री को यह अधिकार है कि वह किसी की पत्नी रहते हुए खुद को किसी रचना में इस तरह डुबा दे कि गृहस्थी के कर्तव्यों को पूरी तरह भूल जाये। यह अधिकार सिर्फ पुरुषों को है। मुमकिन है कि इस कथा की वास्तविकता यही हो और लोक ने उसे अलौकिक स्वरूप देने, वाचस्पति के अपराध को छिपाने के लिये यह कह दिया हो कि वे अपनी रचना में इस तरह डूब गए कि उन्हें भामती की याद ही नहीं रही। हमारे समाज के लिये यह सब बहुत आम है।

खैर, उषा जी ने लोक प्रचलित कथा को ही अपने उपन्यास का आधार बनाया है। यह जरूर है कि उन्होंने इस कथा को अविस्मरणीय प्रेम के ग्लैमर तक ही सीमित नहीं रखा। उसे महिलाओं के सवालों से भी गूंथा है।

सच तो यह है कि खुद वाचस्पति भी इस पुस्तक में नायक नहीं हैं। कई अर्थों में मुख्य पात्र भी नहीं है। यह पुस्तक उस वक़्त की तीन विदुषी नारियों भामती, वाचस्पति की बहन सुलक्षणा और एक अन्य स्त्री सौदामिनी के जीवन और विचारों पर केंद्रित है।

पुस्तक के अनुसार भामती जहां वाचस्पति के गुरु की पुत्री है, वहीं उनकी बहन सुलक्षणा ने उनके साथ ही गुरुगृह में शिक्षा ग्रहण की। सौदामिनी एक अद्भुत पात्र है जो उस वक़्त एक दूसरे के विरोधी मत सनातन और बौद्ध संप्रदायों के बीच भटकती रहती है। वह बचपन में वज्रयानी सन्यासियों की तंत्र साधना का उपकरण बनते बनते बची है। बाद में वे विवाह करने के बदले वैद्यक सीखती है। फिर वह बौद्ध संस्थाओं में उपचार और आयुर्वेद पर शोध करती हैं। फिर लौटकर गांव भी आती हैं।

सुलक्षणा जो वाचस्पति की छोटी बहन है वह विवाह से पहले वाचस्पति के लिये वह सब किया करती है जो भामती विवाह के बाद करती है। उनके लेखन के लिये माहौल को व्यवस्थित करना, उन्हें सुविधाएं उपलब्ध कराना। तीनों विदुषी नारियां हैं। इनमें सिर्फ विद्रोहिणी सौदामिनी ही ज्ञान की वजह से प्रतिष्ठित हो पाती हैं।

उषा जी ने इस उपन्यास में एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठाया है कि भामती से महज 300 साल पूर्व तक जहां मिथिला में भारती जैसी विद्वान नारियां हुआ करती थीं जो आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र जैसे विद्वानों के शास्त्रारार्थ की निर्णायक बनी थी और बाद में शंकराचार्य को पराजित भी किया। मगर महज 300 साल बाद मिथिला की स्त्रियां ऐसी हो गईं कि उन्हें ज्ञान चर्चा के बदले गृहस्थी में झोंका जाने लगा। हालांकि महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि गार्गी से लेकर भारती की परंपरा तक में मिथिला की किसी स्त्री ने कोई पुस्तक नहीं लिखी। यह सुलभता सिर्फ पुरुषों को थी। नारियां सिर्फ बहस में हस्तक्षेप करती रहीं।

उषा जी ने इस पुस्तक में बताया है कि उस वक़्त बौद्ध धर्म की वज्रयानी धारा में कौलाचार के लिये बालिकाओं का अपहरण किया जाने लगा, इस वजह से समाज ने स्त्रियों के घर से बाहर निकलने पर रोक लगानी शुरू कर दी। इस पुस्तक में इस विषय पर खूब चर्चा है। बार बार चिंता व्यक्त की गई है कि कहीं नारियों का अध्ययन छूट न जाये, वे गृहकार्य तक सीमित न रह जाये।

उषाजी खुद इतिहास की छात्रा और अध्यापिका रही हैं, इसलिये इस पुस्तक में दसवीं सदी के समाज का जीवंत स्वरूप नजर आता है। बौद्ध धर्म का पतन की तरफ बढ़ना और मिथिला का सनातन धर्म के रक्षक के रूप में सक्रिय होना। यहां की ज्ञान और लेखन परपंरा। ज्ञान के संरक्षण की परंपरा। बंगाल की सत्ता का परिवर्तन, बौद्ध पालों की जगह सनातनी सेन राजाओं का सत्ता में आना। इसके बावजूद मिथिला के विद्वानों का भयभीत रहना कि सेन कहीं यहां की दुर्लभ पुस्तकें लूटकर न ले जाएं। यह सब दिखता है। सरल सहज भाषा में दर्शन जैसे दुरूह विषय का उल्लेख भी है।

इस पुस्तक की नायिका भामती भी सीता की परंपरा को आगे बढ़ाती दिखती है। पति के लिये जीवन को होम करती। इस वजह से समाज भी भामती को सम्मान के साथ याद रखता है, वह गार्गी और घोषा जैसी नारियों को उस सम्मान के साथ कहाँ याद करता है। बहुत आसानी से नारी के इस रूप को इस पुस्तक में बलिदान की तरह प्रतिष्ठित किया जा सकता था। मगर उषाजी ने बार बार स्त्रियों की स्वतंत्रता और उनकी ज्ञान की आकांक्षा को रेखांकित किया है। हालांकि मेरी अपेक्षा थी कि इस कड़े सवाल की तरह पेश किया जाना चाहिए था। मगर तब शायद यह समाज इस रचना को उतनी सहजता से स्वीकार नहीं करता।

© पुष्य मित्र

- लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह पोस्ट उनकी फेसबुक वॉल से साभार यहां प्रकाशित की गई है। 

Post a Comment

0 Comments