मेरी आवारगी

मजदूरी (लघुकथा)

तस्वीर साभार: गूगल 

मखोली एक-एक करके घर के सारे पुराने बर्तन बच्चों के खाने के लिए नहीं अपनी शराब के लिए बेच चुका था। उसके दो बच्चे रामू और श्यामू किशोरावस्था में कदम रख रहे थे। मखोली की पत्नी कमली 2 बीघा जमीन में हल चलाकर परिवार के खाने-पीने का इंतजाम करती थी, उसे अपने पति से मारपीट के सिवाय दारू के नशे में दो बच्चे मिले थे। जिनके लिए वो दिन-रात मेहनत कर रही थी। 

रोज की तरह एक रोज जब मखोली गांव में दारू के देसी ठेके से एक पौआ चढ़ाकर घर लौटा, तो देखा कमली खाट पर लेटी है। उसका शरीर गर्म तवे सा तप रहा था। मखोली को नशे के बाद खाने की तलब लगी थी, लेकिन घर पर खाना नहीं बना था। मखोली वहीं घर की दहलान पर बड़बड़ाता हुआ बेसुध पसर गया। 

शाम के 7 बजते ही रामू-श्यामू झोले में कुछ फल, तरकारी और अपनी माँ के लिए दवाएं लेकर लौटे थे। आज उन्होंने जीवन में पहली बार पूरी दोपहर लकड़ी के टाल पर कुल्हाड़ा चलाया था। उन्होंने माँ को फल खिलाकर खाना दवा देने के बाद अपने बची हुई मजदूरी शराबी बाप के हाथों में रख दी थी। 

झगझोड़कर हिलाने के बाद उठे बाप ने जब उनके हाथों से रुपया उठाया, तो 13-14 बरस के बेटों के हाथ पर पड़े छाले देखकर उसका दिल पसीज गया। मखोली की मुट्ठी खुल गई थी। मजदूरी में मिले चंद सिक्के दहलान पर बिखर गए थे। मखोली को सबक मिल गया था, उसका सारा नशा उतर गया था। वो अगली सुबह हल उठाकर अपनी 2 बीघा जमीन जोत रहा था।


© दीपक गौतम

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