मेरी आवारगी

प्रेम हर जख्म का सबसे बड़ा मरहम है।

        इस कठिन वक्त में तुम्हारा स्पर्श भी चिकित्सा है। 

            मेरी जादू की पुड़िया अपना काम कर रही है।


प्रेम हर जख्म का सबसे बड़ा मरहम है

प्रेम से बड़ा कोई मरहम नहीं है। अब मेरे पास तो प्रेम की सबसे बड़ी पोटली है। यह जो मेरे पेट पर बैठी है ना, यही मेरी जादू की पुड़िया है, तभी तो दोनों हाथ, एक पैर और जबड़ा सब हिल जाने और बुरी तरह टूट जाने के बाद भी इसका मरहम मुझे तेजी से रिकवर करने में मदद कर रहा है।

ना जाने क्या है कि बीते दो-तीन साल से यह टूट-फूट लगातार मेरे साथ बनी हुई है। अब तो साला इसकी आदत सी हो गई है। मेरे दर्द का तो मुझे कुछ समझ में ही नहीं आता है। ये बात और है कि मेरी तकलीफ़ में दर्द महसूस करने वाले अपनों की भीगी पलकें, उदास चेहरे और लटकी हुई सूरतें मुझसे बर्दास्त नहीं होती हैं। इसलिए दर्द के सन्नाटे को चीरते हुए ठहाके लगाने में ज्यादा मजा है।

जीवन के हर दर्द का सबसे बड़ा मरहम प्रेम और आपकी मुस्कान ही है। बीते तीन सालों में मेरे साथ अकस्मात और आश्चर्यजनक तरीके से हुईं दुर्घटनाओं का असल हासिल यही है। मैं यही सीख पाया हूँ कि यदि दर्द में भी ठहाके लगाने का हुनर है, तो फिर बेतहाशा दर्द भी मजा देने लगता है।

ऐसा नहीं है कि जीवन में इतनी उथल-पुथल मचने से मैं प्रभावित नहीं होता हूं। अपन कोई ''आयरन मैन" नहीं है भाई, लेकिन अंतस के उजियारे से बाहर का अंधेरा चीरने में बहुत मदद मिलती है। ये मेरा निजी अनुभव है। शायद इसीलिए शरीर सब तरफ से टूट-फूट जाने, हफ्ते- हफ्ते भर अस्पताल में रहने, ढेरों पेन किलर, इंजेक्शन, एनस्थीसिया और ऑपरेशन्स के बीच भी मैं अस्पताल में हर वक्त सबको हंसाने में कामयाब रहा।

यहां तक कि ऑपरेशन थियेटर में जब प्रिज्म के चीफ मेडिकल ऑफीसर और सतना के सीनियर आर्थो डॉक्टर डी डी मिश्रा (डीडी सर) मुझे ऑपरेट कर रहे थे, तो अपन उनसे टूट-फूट की सारी जानकारी और ठीक उस वक्त हो रहे प्रोसीजर की सारी डिटेलिंग ले रहे थे। मसलन इस बार कितनी लंबी प्लेट लगेगी, कितने स्क्रू लगेंगे, घुटने में कितने होल हुए, अब ड्रिल कहां हुआ, रिस्ट में कितने लंबे तार से सिलाई हुई। वो सब कुछ जो मुझे जानने का मन हुआ। क्योंकि मेरे शरीर में क्या, कहां, कितना और कैसे ठूंसा जा रहा है? मुझे वो सब जानने का मन रहता है।

इस बार तो तीन ऑपरेशन हुए, जिनमें से दो के वक्त मैं पूरे होश में था। बस एनस्थीसिया के डोज से हाथ और पैर सुन्न थे, लेकिन उन्हें काटने, हड्डियों को ड्रिल से छेदने, स्क्रू कसने और सिलने तक की तमाम आवाजें मेरे कानों में साफ सुनाई दे रही थीं। यहां तक कि ऑपरेशन के वक्त एनस्थीसिया वाले डॉक्टर साहब के मोबाइल पर बज रहे संगीत में भी मुझे अपनी पसंद का संगीत चाहिए था। अगर वो "याहू कोई मुझे जंगली कहे" बजाते, तो मैं डीडी सर को बोलकर "पल - पल दिल के पास तुम रहती हो" लगवा लेता था। मेरी इच्छा तो इस बार सारा प्रोसीजर लाइव देखने की थी। लेकिन डॉक्टर और मेरा शरीर दोनों उसकी इजाजत नहीं दे रहे थे।

बहरहाल ये सब कहने का मतलब यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि यही सबसे उचित तरीका है या मैं बड़ा बहादुर हूं। वास्तव में "ये मेरे शब्द ही मेरी आत्मा हैं। लिखकर मैं जितना सहज और हल्का महसूस करता हूं, उतना किसी से बात करके भी मैं सामान्य नहीं हो पाता हूं। क्योंकि मैं जानता हूं कि दुनिया भले ही मेरा साथ छोड़ दे। मेरे शब्द मरते दम तक मेरे साथ रहेंगे। इनके सहारे ही रोना, गाना, हंसना अपन को सबसे ज्यादा भाता है।" शायद इसीलिए मैंने लंबे समय तक डायरी लिखी और वयस्क होते-होते वो सब जला भी दीं, क्योंकि उनमें इतनी साफगोई से अपनी हर चीज दर्ज थी कि मेरी ही निजता का हनन हो जाता। बस इसलिए बचपन से लिखकर हल्का होने की आदत लगी रही, तो अब हर बार लिखकर रीत जाना, खाली हो जाना बेहद जरूरी है।" हर किसी का रोने और आंसू बहाने का अपना- अपना फंडा है। हमारा तो यही लिखना है, तो भाई लोग अपने लिखे से किसी में थोड़ा भी सार्थक और सकारात्मक बदलाव आए अपनी जय-जय है।

बाद बाकी आज पहली बार तकनीक के सहारे बोल- बोलकर लिख रहा हूं, तो ज्यादा मजा नहीं आ रहा है। इस बीच यज्ञा जी भी पापा - पापा करते हुए फिर दुलारने आ गई हैं। अच्छा लगता है जब ये मेरी गिलहरी इधर- उधर फुदकते हुए बीच-बीच में हाल-हवाल लेती रहती है। इतनी टूट-फूट के बीच भी इसे मेरे गले और सीने से ही चिपकना है। सच कहूं तो इस प्रेम की पोटली का स्पर्श ही इस भीषण वक्त का सबसे बड़ा हासिल भी है और मरहम भी है।

अब ऐसे में तो यही कहना ठीक होगा कि तेरी रहमत के लिए बहुत - बहुत शुक्रिया ऊपर वाले। तुम मुझे अभी से आगामी भविष्य के जिस भी सबसे बुरे वक्त के लिए तैयार कर रहे हो, उम्मीद है कि मैं उससे भी यूं ही हंसते - हंसते निकल पाऊंगा। यूं नहीं है कि ऐसे बुरे अनुभवों से दो-चार होने के बाद मैं दर्द महसूस नहीं करता हूं। दरअसल बीते कुछ सालों में अब इतना कुछ घट चुका है कि मैं इन सब चीजों के लिए मानसिक रूप से सदैव तैयार रहता हूं। न जाने कब कहां लुढ़क जाऊं और फिर शरीर की कोई हड्डी टूट जाए। बीते 3 सालों का मेरा ट्रैक रिकार्ड देखूं तो यह पांचवी दुर्घटना है। लगभग सारी दुर्घटनाएं ऐसे हास्यास्पद और आश्चर्यजनक तरीके से हुई हैं कि खुद पर यकीन करना मुश्किल है, फिर भी इस सारे कठिन समय में एक चीज हमेशा मेरे पास रही है। वह है प्रेम। विशुद्ध प्रेम। मेरे मित्रों, शुभचिंतकों, परिजनों और इस प्रेम की पोटली से सदैव जो निश्छल प्रेम बरसा है। बस जीवन की असल कमाई यही है। जीवन का शुद्ध लाभ भी यही है।

ये घटना- दुर्घटना, जीवन की विकट परिस्थितियाँ और इनके बीच उपजा कठिन समय कई तरह से सोचने पर विवश कर देता है। मसलन कि भाग्यवादी सोचेंगे मेरी किस्मत खराब है। हमेशा मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है ? आखिर क्यों होता है ? टाइम ही खराब चल रहा है ! कुछ तो बहुत गड़बड़ हो रहा है ! जो भी हो मुझे अब इन सब चीजों से कोई फर्क नहीं पड़ता है। ये जिंदगी है और इसे रुकना नहीं चाहिए। मैं आस्थावादी हूं, तो यही कहता हूं कि जिस किसी के साथ भी इस तरह की घटनाएं- दुर्घटनाएं या अकस्मात आई विपदा है। उससे पार पाने का सबसे सरल तरीका यही है कि उस वक्त को हंसकर एकदम ठहाके लगाकर गुजार दीजिए।

जीवन प्रेम से लबालब है। इसके आसपास बिखरा सारा प्यार अपनी पोटली में समेट लीजिए। दुनिया कभी प्रेम से विदा नहीं ले सकती है, वो कभी प्रेम से खाली नहीं होगी। इसमें अपार प्रेम है। दुनिया में अभी भी बहुत मनुष्यता बची हुई है। यही प्यार जिंदगी के हर जख्म का असली मरहम है।

आप जैसे ढेर सारे लोगों का प्यार और आशीर्वाद मेरे लिए इलाज का काम कर रहा है। यही प्रेम इस वक्त से मिले घावों में लेपी जा रही संजीवनी दवा है। ये बहुत असरदार है। मैं जल्दी उठूंगा फिर अपने पैरों पर चलूंगा। जीवन को फिर कुछ नई दिशा मिलेगी। यह वक्त भी बीत जाएगा। पहले भी ऐसा समय बीता है। यह भी धीरे-धीरे बह जाएगा। मेरा बीते 3 सालों का यही तजुर्बा है। इतनी सारी घटनाओं के बाद शरीर में दो ही हिस्से शेष और सुरक्षित बचे हैं। एक तो रीड की हड्डी और दूसरा अपना सिर। बाकी सब कभी न कभी दरक चुका है।

इसके इतर मेरी आत्मा और मन को छोड़कर कुछ भी ऐसा नहीं है जो टूटा नहीं हो। भोपाल छोड़ने के बाद, पत्रकारिता छोड़ने के बाद अपने घर गांव और शहर में लौटने के बाद ही अपनों के बीच जीवन का सबसे कठिन समय बीत रहा है। शायद सबसे बेहतर समय मैं जी चुका हूं या फि ये भी हो हो सकता है कि आने वाला समय जीवन का सबसे बेहतर समय हो। इसलिए आशावादी रहते हुए सार्थक और सकारात्मक जीना जरूरी है।

अपनी स्मृतियों के खजाने से जब बीता वक्त चुराकर अपने पास लाता हूं, तो पत्रकारिता की नौकरी के 15 साल और एमसीयू भोपाल में गुजरे दो साल उम्दा लगते हैं। लगभग इन दो दशकों में पल्सर और अपाचे आदि बाइक से शहर दर शहर कितनी सड़कें नापिन और भीषण रफ्तार से नापी। चाहे वो भोपाल से उज्जैन- इंदौर हो चाहे औरंगाबाद से नाशिक- पूना- शिर्डी - बीड़ और रालेगणसिद्धी हो। एक नहीं कई - कई बार इन रास्तों पर बाइक दौड़ाई। कभी भी मामूली खराशों के अलावा कुछ नहीं हुआ। ये सारे भीषण हादसे इसी महान शहर स्मार्ट सिटी सतना की गड्ढों से पटी पड़ी सड़कों पर हुए हैं।

वह समय बेहतर था। इतनी बाइक चलाई। कितनी स्पीड से चलाई। मतलब औरंगाबाद से अन्ना के गांव गया और साईं से मिलने बार बार शिरडी। भोपाल से कई दफा उज्जैन गया बाबा महाकाल के दर्शन करने। साला कभी कुछ नहीं हुआ। सब कुछ किया पर कभी गिरा नहीं। लेकिन इस अपने कहे जाने वाले शहर ने तो पल - पल पर दगा किया है। ईश्वर जाने क्या चाहता है ? कौन सी सीख देना चाहता है ? ऐसे ढेर सारे विचारों से मेरा मस्तिष्क इन दिनों जूझ रहा है।

क्योंकि वास्तव में यह सब मेरी समझ से भी परे है। बस इसलिए जिंदगी का कोई मुश्किल सबक समझकर मैं इसे सीख रहा हूं। लगातार जीवन की मुश्किलों को ठेंगा दिखाकर मैं ठहाका लगाने का मौका ढूंढ लेता हूं। शायद जिंदगी कोई ऐसी सीख देना चाहती है कि मैं गिरते, पड़ते और उठते हुए इतना मजबूत हो जाऊँ कि बड़ी से बड़ी विपदा मेरी हंसी नहीं रोक पाएं। मुझे नहीं रोक पाए। अब भविष्य में जो घटित होने वाला हो जीवन मुझे ऐसे किसी दिन के लिए पर्याप्त तैयार कर रहा है। मैं तैयार हूं । आगे जो भी होगा, उसके लिए भी अभी से तैयार हूं।

मैं अपने हाथों से टाइप नहीं कर पा रहा हूं। यह सब मुझे बोल बोल कर लिखना पड़ रहा है। फिलहाल यह भी सहजता से नहीं हो पा रहा है। जबड़ा बुरी तरह से हिल चुका है। सामने के तीन दांत गायब हो चुके हैं। मेरे पास इन सब चीजों से लड़ने के लिए सबसे जबरदस्त हथियार मेरी हंसी है। बड़े-बड़े सुंदर सुफैद दांतों वाली दस बाई दस की मुस्कान, जिसमें पोपलेपन का दाग लग गया है। कोई नहीं मैं साला नकली दांत लगवाकर हंसेगा। मेरा ठहाका नहीं रुकेगा साला।

ऐ जालिम जिंदगी तू कितना भी जुल्म ढा। मैं साला हंसना नहीं छोड़ेगा। कभी हंसना नहीं छोड़ेगा। मैं झुकेगा नहीं साला टाइप नहीं। मैं सच में हंसना नहीं छोड़ेगा। तू कर सितम कर ले जितने तुझे करने हैं। मैं हंसना नहीं छोड़ेगा। मैं उठेगा साला। बार-बार उठेगा। हजारों बार गिरकर भी उठेगा, जब तक शरीर में सांस है। हर बार उठता रहेगा...हर बार उठता रहेगा...।

चलो बोलते - बोलते फिल्मी डायलॉग बहुत हो गया है। आप सबके लिए बस यही जानकारी है कि मैं ठीक हूं। फिलहाल दो-तीन महीने तो चलने-फिरने और रिकवर होने में लगेंगे।

आप सभी की दुआओं प्रेम और आशीर्वाद के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया। मित्र सुमित पांडे ने दुर्घटना की फोटो फेसबुक पर चस्पा नहीं की होती, तो मुझे यह पोस्ट भी नहीं लिखना पड़ता, क्योंकि मैं कुशल क्षेम देते- देते फोन उठाकर थक गया हूं। सबको इस हालिया दुर्घटना की वही- वही घिसी- पिटी स्टोरी सुनाकर। अब उसे कहने में कोई रोमांच शेष नहीं रह गया है। दूसरा कि फिलवक्त जीवन से रोमांस भी गायब है। सो अब ऐसे में यह सब बताने जताने में मुझे बिल्कुल भी आनंद नहीं आता है। ऐसा लगने लगता है कि जैसे दर्द दिखाकर सहानुभूति बटोरने में लगा हुआ हूं। इसलिए मैं अक्सर घटनाओं- दुर्घटनाओं से रिकवर होने के दो-चार महीने बाद आमतौर पर ऐसी पोस्ट करता हूं।

यह पहली बार है जब मैं अस्पताल से 2 दिन पहले छुट्टी लेकर घर पहुंचा हूं। इस बीच कल जबरदस्त तरीके से रक्षाबंधन मनाया गया। तमाम सारे लोग मिलने आए। इसी बहाने बहुत से लोगों से बड़े दिनों बाद मिलना हुआ।

कुल मिलाकर सब जबरदस्त है। जिंदगी जिंदाबाद।

जल्द मिलते हैं कुछ और नई सुखद तस्वीरों के साथ। आवारा की डायरी को नई शक्ल देते हुए। बारिशों में घूंट - घूंट थोड़ी जिंदगी को पीते हुए। कुछ चिट्ठियों में नए रंग भरते हुए। संताप छोड़कर जीवन का ताप लेते हुए।

आप सभी के प्रेम और आशीर्वाद के लिए बार-बार दिल से शुक्रिया। क्योंकि ये प्रेम हर जख्म का मरहम है।

© दीपक गौतम

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