एक पत्र सखी के नाम : हे सखी, मैं मनुष्यता की ओर बढ़ने के लिए तुम्हारा स्त्रीत्व पाना चाहता हूं।
हे सखी,
तुम्हें यह पत्र लिखते हुए मैं सिर्फ तुम्हें नहीं अपितु संसार की समस्त नारी शक्ति को ही संबोधित कर रहा हूं, क्योंकि स्त्री होना बहुत कठिन है। मैं एक पुरुष होने के नाते यह दावे से कह सकता हूं कि स्त्रियां को स्नेह, त्याग और समर्पण का जो वरदान प्रकृति से मिला है, वह अटूट है। मानो ईश्वर ने प्रेम के पौधे को निचोड़कर उसका सारा सार स्त्री में समेट दिया हो। मैं यह सिर्फ अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर नहीं, बल्कि तुम्हारे अंदर समाए करुणा, दया, स्नेह और प्रेम के बल पर कह रहा हूं। मुझे यह लगता ह कि पुरुष यदि थोड़ा और अधिक मनुष्यता की ओर बढ़ पाता है, तो वह सिर्फ और सिर्फ उसके जीवन में मां, बहन, प्रेमिका, पत्नी और पुत्री के रूप में आई स्त्रियों के कारण ही संभव हो पाता है।
प्रिय सखी,
तुम सोच रही होगी कि पत्र की शुरुआत से ही मैं नारी शक्ति के गुणगान में लग गया हूं, तो ऐसा बिल्कुल नहीं है। मैं एक आस्थावान व्यक्ति होने के नाते आदि शक्ति का ही उपासक हूं। इसलिए मेरे लिए यह संस्कृत श्लोक ("यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः " ) किसी वेद वाक्य से कम नहीं है। मैं वास्तव में इस श्लोक के अर्थ को जीवन में महसूस होते हुए देखता हूं। इसलिए यह मानता हूं कि जहाँ स्त्रियों का आदर और सम्मान होता है, वहां देवता निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों का सम्मान नहीं, वहां समृद्धि और खुशहाली के सभी द्वार बंद हो जाते हैं। मैं यह जानता ही नहीं अपितु मानता भी हूं। इसलिए मुझे यह लिखने में कोई हिचक नहीं है कि स्त्रियों के साथ लगातार हो रहे कदाचार के कारण ही किसी देश की प्रगति बाधित होती है। एक स्त्री ही है, जो जीवन पर्यंत अपने सभी रूपों (मां, बहन, सखी, प्रेमिका, पत्नी और पुत्री) में प्रेम और स्नेह की चाह के बिना भी सदैव अपने आंचल में सारा प्रेम समेटकर उड़ेलती रहती है। अपने बसे बसाए नीड़ को किसी चिड़िया की तरह छोड़कर एकदम नया संसार बसा लेने का सामर्थ्य सिर्फ स्त्री में ही है। पुरुष अपने मां- बाप और कुटुंब को छोड़कर घर बसा लेने की कल्पना भी नहीं कर सकता है। सच तो यही है कि पुरुष में स्त्री (मां) के बिना अपने पैरों पर खड़े होने की भी क्षमता नहीं है।
हे प्रिये,
मुझे यह कहते हुए तनिक भी संकोच नहीं है कि पुरुष को थोड़ा और अधिक मनुष्य होने के लिए स्त्रीत्व की ओर ही बढ़ना होगा। महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद जी ने कर्मभूमि में कहा है कि "पुरुष में थोड़ी-सी पशुता होती है, जिसे वह इरादा करके भी हटा नहीं सकता। वही पशुता उसे पुरुष बनाती है। विकास के क्रम में वह स्त्री से पीछे है। जिस दिन वह पूर्ण विकास को पहुंचेगा, वह भी स्त्री हो जाएगा। वात्सल्य, स्नेह, कोमलता, दया, इन्हीं आधारों पर यह सृष्टि थमी हुई है और यह स्त्रियों के गुण हैं।" अब विकास के क्रम में कौन पीछे है और कौन आगे मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता हूं, लेकिन स्त्री होना वास्तव में कठिन है और यह बात मैं दावे से कह सकता हूं। मैं पुरुष होने के नाते एक स्त्री के प्रेम में आसक्त होकर नहीं, बल्कि पूरे होश ओ हवास में यह कह रहा हूं।
हे सखी,
तुम संभवतः यह सोच रही होगी कि अचानक तुम्हें यह पत्र लिखने की क्यों सुझी ? वास्तव में बड़े दिनों से मैं तुम्हें एक पत्र लिखना चाह रहा था, लेकिन किसी उचित अवसर की खोज में था। आज साल 2025 का करवा चौथ है। पतियों की लंबी उम्र की कामना के लिए पत्नियां यह व्रत रखती हैं। यूं तो तुम मेरे लिए पत्नी, प्रेमिका और सखी तीनों ही हो, लेकिन मैं सदैव तुम्हें एक सखी के रूप में ही देखता आया हूं और आगे भी यही कोशिश होगी कि हम मित्रवत भाव से ही इस प्रेमपथ पर आगे बढ़ते रहें। बस इसीलिए करवा चौथ के इस शुभ अवसर पर मैं तुम्हें अपने इन्हीं शब्दों को इस पत्र के बहाने उपहार स्वरूप समर्पित कर रहा हूं, क्योंकि वास्तव में सिवाय शब्दों के कुछ भी नहीं मेरे पास। बीते 7 वर्षों में जितनी करुणा, दया, स्नेह और प्रेम से तुमने मेरी सेवा- सुश्रासा की है, उतना कर पाना संभवतः मेरे लिए भी कठिन ही होगा। विशेष रूप से इस बार हुई दुर्घटना में दोनों हाथ और एक पैर बुरी तरह से टूट जाने के बाद जिस मानसिक और शारीरिक स्थिति से मैं गुजरा हूं। उससे पार पाने में मैं व्यक्तिगत रूप से सक्षम नहीं था। वास्तव में ये तो तुम ही मेरी शक्ति बनकर मेरे साथ किसी चट्टान की तरह खड़ी थी, तभी यह संभव हो सका है।
हे सखी,
इस पत्र के लिखने का उद्देश्य सिर्फ इतना ही है कि जीवन बहुत छोटा है और मैं अक्सर यह महसूस करता हूं। मौत करीब से आकर गुजर सी जाती है। मेरे साथ बीते तीन वर्षों से अचानक हुई दुर्घटनाओं को देखते हुए कभी- कभी यह लगता है कि तुमसे कुछ अनकहा न रह जाए। यूं तो तुम मेरे मौन को भी पढ़ लेती हो, लेकिन वो कहते हैं ना कि "वचनम् किम दरिद्रम्" तो फिर मैं भी भला बोलने में कंजूसी क्यों करूं ? बस इसीलिए मन के सारे भाव और अपना प्रेम निचोड़कर इन्हीं शब्दों में भर दिया है। तुम सोच रही होगी कि मैंने तुम्हारे निजी गुणों की कोई चर्चा इस पत्र में नहीं की है, तुम्हारे लिए कुछ और अधिक नहीं लिख रहा हूं। यह पूरा का पूरा पत्र मैंने नारी शक्ति पर ही केंद्रित कर दिया है, तो तुम्हें यह बता दूं कि तुम्हारी निजता पर बात करने से अधिक यह अवसर स्त्री पर बात करने का ही था। क्योंकि मैं यह मानता हूं कि तुमने अब तक जो भी किया है, वह सिर्फ पत्नी होने के नाते नहीं बल्कि एक स्त्री होने के नाते किया है। अतएव यह पत्र नारी शक्ति को संबोधित करते हुए नारी शक्ति को ही समर्पित करना मुझे अधिक श्रेयकर और श्रेष्ठ जान पड़ता है। बस इसीलिए मेरे अंदर से उपजते मनोभावों को कलमबद्ध कर दिया है। बस इसीलिए मैं यह पत्र नारी शक्ति को केंद्र में रखकर ही लिख रहा हूं। पुरुष को सरल, सहज और विनम्र होने के साथ-साथ अपनी पशुता से पार पाने के लिए स्त्रीत्व की ओर भी बढ़ना चाहिए, ताकि थोड़ा प्रेम, करुणा, त्याग, दया और समर्पण के भाव उसके मन की मिट्टी में भी तेजी से उपज सकें।
हे सखी,
मुझे गहरे तक यह बोध है कि स्त्रीत्व पाकर ही वास्तव में मनुष्यता की ओर बढ़ा जा सकता है, क्योंकि प्रकृति ने सृजन का सबसे बड़ा वरदान सिर्फ स्त्री को ही दिया है। यदि पुरुष में स्त्रियों जितनी करुणा, दया और प्रेम पनप जाता है, तो वह महानता की ओर अग्रसर हो जाते हैं। मुझे महानता की कोई चाह नहीं है, किंतु मैं मनुष्यता की ओर बढ़ते रहना चाहता हूं। बस इसीलिए मैं स्त्रीत्व पाना चाहता हूं।
प्रिय सखी,
मेरे कम कहे को अधिक समझना। हम जिस प्रेम की डोर में बंधे हुए यहां तक चले आए हैं। जीवन जब तक शेष है, ये महीन रेशों की डोर यूं ही मजबूत बनी रहे, इसकी सदैव कोशिश करना। शेष अगले पत्र में। तुम्हें ढेर सारा प्यार।
10 अक्टूबर 2025,
- तुम्हारा सखा
© दीपक गौतम
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