मेरी आवारगी

औरतें अजीब होती हैं/ ज्योत्सना मिश्रा

चित्र : साभार वाट्सअप मीडिया समूह


लोग सच कहते हैं  
औरतें अजीब होतीं है
रात भर सोती नहीं पूरा
थोड़ा-थोड़ा जागती रहतीं 
नींद की स्याही में 
उंगलियां डुबो 
दिन की बही लिखतीं
टटोलती रहतीं 
दरवाजों की कुंडिया
बच्चों की चादर
पति का मन
और जब जगाती सुबह 
तो पूरा नहीं जागती
नींद में ही भागतीं
हवा की तरह घूमतीं
घर बाहर
टिफिन में रोज़ नयी रखतीं कविताएँ 
गमलों में रोज बो देती
आशायें
पुराने-पुराने अजीब से गाने 
गुनगुनातीं
और चल देतीं फिर
एक नये दिन के मुकाबिल
पहन कर फिर वही सीमायें 
खुद से दूर हो कर ही
सब के करीब होतीं हैं 
औरतें सच में अजीब होतीं हैं 
कभी कोई ख्वाब पूरा नहीं देखतीं
बीच में ही छोड़ कर
देखने लगतीं हैं 
चुल्हे पे चढ़ा दूध 
कभी कोई काम पूरा नहीं करतीं 
बीच में ही छोड़ कर ढूँढने लगतीं हैं 
बच्चों के मोजे पेन्सिल किताब 
बचपन में खोई गुडि़या
जवानी में खोए पलाश
मायके में छूट गयी स्टापू की गोटी 
छिपन छिपाइ के ठिकाने 
वोछोटी बहन 
छिप के कहीं रोती 
सहेलियों से लिए दिये चुकाए हिसाब 
बच्चों के मोजे,पेन्सिल किताब 
खोलती बंद करती खिड़कियाँ 
क्या कर रही हो ?सो गयीं क्या
खाती रहती झिङकियाँ
न शौक से जीती ,न ठीक से मरती
कोई काम ढ़ंग से नहीं करती
कितनी बार देखी है
मेकअप लगाये,चेहरे के नील छिपाए
वो कांस्टेबल लडकी 
वो ब्यूटीशियन
वो भाभी, वो दीदी 
चप्पल के टूटे स्ट्रैप को
साड़ी के फाल से छिपाती
वो अनुशासन प्रिय टीचर 
और कभी दिखही जाती है
काॅरीडोर में 
जल्दी जल्दी चलती
नाखूनों से सूखा आटा झाडते
सुबह जल्दी में नहाई
अस्पताल आई
वो लेडी डाॅक्टर
दिन अक्सर गुजरता है शहादत में 
रात फिर से सलीब होतीहै
सच है औरतें बेहद अजीब होतीं हैं 
सूखे मौसम में बारिशों को
याद कर के रोतीं हैं 
उम्र भर हथेलियों में तितलियां संजोतीं हैं 
और जब एक दिन
बूंदें सचमुच बरस जातीं हैं
हवाएँ सचमुच गुनगुनाती हैं 
फ़जा़एं सचमुच खिलखिलातीं हैं 
तो ये सूखे कपड़ों ,अचार ,पापड़ 
बच्चों और सब दुनिया को 
भीगने से बचाने को 
दौड़ जातीं हैं 
खुशी के एक आश्वासन पर
पूरा पूरा जीवन काट देतीं 
अनगिनत खाइयों पर
अनगिनत पुल पाट देतीं 
ऐसा कोई करता है क्या?
रस्मों के पहाड़ों जंगलों में 
नदी कीतरह बहती
कोंपल की तरह फूटती
जि़न्दगी की आँख से
दिन रात इस तरह
और कोई झरता है क्या ?
ऐसा कोई करता है क्या
एक एक बूँद जोड़ कर 
पूरी नदी बन जाती
समन्दर से मिलती तो
पर समन्दर न हो पाती
आँगन में बिखरा पडा़ 
किरची किरची चाँद
उठाकर जोड़ कर 
जूड़े में खोंस लेती
शाम को क्षितिज के
माथे से टपकते
सुर्ख सूरज को उँगली से
पोंछ लेती
कौन कर सकता था
भला ऐसा /औरत के सिवा
फर्क है,अच्छे में बुरे में ,ये बताने के लिये
अदन के बाग का फल
खाती है खिलाती है
हव्वा आदम का अच्छा नसीब होती है
लेकिन फिर भी कितनी अजीब होती है
औरतें बेहद अजीब होती हैं 
औरतें अजीब होतीं हैं...!!


साभार : सोशल मीडिया। 
रचनाकार : ज्योत्सना मिश्रा 

नोट : पहले यह कविता अनाम कवि के नाम से यहाँ प्रकाशित हुई थी। रचनाकार का नाम पाठकों तक देर से पहुंचाने के लिए हमें खेद है।  पूर्ववत भी यहाँ रचनाकार का नाम बताने सम्बंधी एक अनुरोध नोट चस्पा था, सम्भवतः उसी के प्रतिउत्तर में सुधी पाठकों और खुद रचनाकार की टिप्पणियां पोस्ट पर आई हैं, जिसके बाद उनका नाम प्रकाशित किया गया है। इस प्रक्रिया में हुई लेटलतीफी के लिए "मेरी आवारगी "को खेद है। 

Post a Comment

0 Comments