मेरी आवारगी

गाँव की दूसरी चिठ्ठी: रंजिश ही सही दिल दुखाने के लिए आ...!!

फोटो कैप्शन : गाँव की अमराई का वो पेड़ जिसमें चढ़कर कभी " इमली का डंडा खेला " जाता था। इसके मीठे आम तो छोड़ो अब इस अमराई से ये पेड़ ही नदारद है। इसका नाम कभी " बंबई "हुआ करता था।

******************************


गाँव की दूसरी चिठ्ठी : रंजिश ही सही दिल दुखाने के लिए आ...!!

मेरे प्यारे बाशिंदे, 

मैं तुम्हें यह पत्र लिखते हुए थोड़ा सा भी खुश नहीं हो पा रहा हूँ कि इस बार मेरी अमराई (आम का बगीचा) में करहों (बौर) भी ढंग से नहीं आई है। तुम सोच रहे होगे कि ऐसा क्यों हो गया है, तो मैं तुम्हें ये बता देना चाहता हूँ कि ये सब तुम्हारी नई पीढ़ी की उदासीनता की वजह से हुआ है। कभी यूँ भी होता था कि श्याने खेल-खेल में पौधे रोपते-रोपते बड़े-बड़े बाग खड़े कर देते थे। लेकिन तुम्हारी पीढ़ी ने सिर्फ और सिर्फ मुझसे लेना सीखा है। शायद इसीलिए तुमने बचपन में मेरी अमराई के आम तो खूब चखे हैं, लेकिन कोई एक आम का पौधा तुमने नहीं लगाया। यदि लगाया होता, तो आज मेरी अमराई में भी गिने-चुने बचे आम के पेढ़ नहीं होते। वो आम और आम के रसीलेपन से यूँ महरूम नहीं होती। अमराई के पास से गुजरने वाला हर आदमी आम से यूं महरूम नहीं होता। गोया कि कुछ आम- जामुन के झाड़ बचे होते। अब इससे ज्यादा बेतकल्लुफी क्या होगी कि आम की बौर तो छोड़ो आम के पेड़ ही नहीं बचे हैं। प्यारे अब मैं बहुत बदल गया हूं कि तुमसे और किस-किस बात का रोना रोऊंगा। लेकिन आज की चिठ्ठी में इस गर्मी के इस मौसम में तुम्हारे बचपन की यादें ताजा करते हुए तुम्हें अपनी उस अमराई के हाल सुनाता हूं, जिसमें लोटपोटकर तुमने आम खाने सीखे हैं। तुम आम की मिठास शायद नहीं भूले होगे, भले ही तुमने अमराई के पेड़ों को मिट्टी-पानी और खाद डालना भुला दिया हो। वरना यूं ही वो तबाह नहीं हुई होती। तुम्हें याद तो है ना कि दादू के बगीचे से लेकर गिरिजाबाग तक मेरी सौंधी मिट्टी में कितने अमराई (आम के बगीचे) हुआ करते थे। 

मेरे प्यारे बाशिंदे,  

मैं तुम्हारे बचपन की यादें लिखने बैठूं, तो मुझे ही बूढ़ा होने का अहसास होने लगता है। इसीलिए इन्हें साझा करने से बचता हूँ। निमोर्ही आंसू भी बह निकलते हैं। जरा-जरा नासूर सा चुभता है करेजे में और फिर कोई दर्द का सोता फूटता है कि धीरे-धीरे सब बह निकलता है। सालों बीत गए तुम्हें मेरी सीमा रेखा को लांघे हुए तुम लौटकर मेरी सुध लेने नहीं आए। बचपन से जवानी तक तुमने यहीं मुझसे सांसें उधार लेकर खुद को सींचा है। ये और है कि तुम मेरी अमराई को सींचना भूल गए। लगभग दो दशक बीतने को है। अब यहाँ सब बदल गया है। अब तो आम के वो दरख्त भी नहीं रहे, जिनके नीचे तुम्हारी गर्मी की दोपहर और सवेरे के कई घंटे बीते हैं। ठंड के मौसम में जहाँ शाम को आग का कूड़ा (अलाव) लगाकर गप्प और किसी के खेत से चोरी किए चने का होरा भुना जाता था। वो भी अब अपने अंतिम चरण में हैं। खैर सर्दियों के हाल फिर कभी कहूंगा। पहले मेरी अमराई में लगे पेड़ों के नाम तो सुन लो। शायद इनमें से कुछ तुम्हें याद भी हों। तुम्हारी अमराई का करिया, बसैधां, मालधा, लंबी वाली, कोयलहा, सुपाड़ी, बदबदू, लदबदू, चपटुआ, नतनगरा, गुल्ला, झपर्रा, ठिर्री, कुशैलहा, खटुआ, लोढ़ामा और अकेलबा तुम्हें याद हैं। ये सब आम के पेड़ तुम्हारे बुजुर्गों की अदद मेहनत और परिश्रम का नतीजा थे, जो अब ना के बराबर बचे हैं। 

मेरे प्यारे बाशिंदे, 

क्या तुम जानते हो कि हर आम का नाम उसकी खूबी के हिसाब से रखा गया था जैसे अकेलबा मतलब जो बगीचे से दूर अकेले लगा है इसीलिए अकेलबा उसका नाम हो गया। लंबी वाली मतलब जिसके आम लंबे होते थे। चपटुआ मतलब जिसका आकार चपटा होता था। जो आम सुपाड़ी की तरह था वह सुपाड़ी कहलाता था। लदबदू मतलब जो फलों से लदा रहे। अब इनके अवशेष ही बचे हैंं। तुम्हारा कितना समय बीता है इनकी छांव में इनके नीचे तपती दोपहर काटते हुए। तुम्हारी टोली आमरस से लेकर रोटी, अचार और चटनी तक सब यहीं चट करती थी। भूल गए कि तुम्हारी बचपन की पूरी गर्मियों की छुट्टियों वाली दोपहर यहीं गुजरी थीं। अब तो नए छोकरों को टीवी और मोबाइल से फुर्सत ही नहीं है कि अमराई की बची हुई जन्नत का मजा उठा सकें। हालांकि मैं उन्हें दोष नहीं दूंगा ना ही उनसे शिकायत है, क्योंकि जब तुमने ही मुझसे मुंह मोड़ लिया है, तो वो अभागा मुझे क्या समझेगा जो शहर की कंक्रीट के जंगल में पलकर बड़ा हुआ है। ना ही अब वो दौर है और ना मेरी अमराई में जान बची है कि मैं उसे लुभा सकूं। 

मेरे प्यारे बाशिंदे, 

मुझे नई पीढ़ी से कोई गिला-शिकवा नहीं है। शिकायत तो मुझे बस तुमसे और तुम्हारी पीढ़ी से ही है। तुमने तो वो मिठास चखी है। आम को यूं ही फलों का राजा नहीं कहते, ये तुमसे बेहतर भला कौन समझ पाएगा। तुमने आम की विदेशी किस्में तो मुझसे बिछड़ने के बाद शहर में ही चखी होंगी, लेकिन छककर आम का मज़ा तो तुमने यहीं मेरी अमराई में लिया है। याद करो जब ताजा-ताजा साहें (पका हुआ देशी आम) लंबी बाली (पेड़ का नाम) में चढ़कर गिराते थे। तुम्हें पता है वो लंबी बाली तुम्हारे हाथों तक पके आम से लदी अपनी शाखा जानबूझकर झुका देती थी। जैसे तुम्हें साहें खिलाने को लदबदू (पेड़ का नाम) आमादा हो जाती थी। सोचो जरा कि आम होकर भी उसका नाम स्त्रीलिंग में क्यों रखा गया था। तुम्हारे पूर्वजों ने एक जननी की तरह उसको देखा और समझा। जैसे मां जीवन भर आखिरी सांस तक दुलार लुटाती है, वो लदबदू भी सूखकर गिर जाने तक सबको अपना आमरस पिलाती रही। 

मेरे प्यारे बाशिंदे, 

मुझे ये सब लिखते हुए बेहद तकलीफ हो रही है कि धीरे-धीरे वो दरख्तों से भरी अमराईं अब शेष बचे दो-चार पेड़ों को लिए ही बेबस खड़ी हैं। मुझे बेहद खुशी होती यदि समय रहते तुम उनके साथ खड़े नजर आते। तुम शहर क्या गए कभी गर्मियों में अमराई की ओर मुडकर नहीं देखा कि लंबी वाली चली गई लोढ़ामा खत्म हो गया और न जाने मेरे दूसरे बगीचों के कौन-कौन से पेड़ खत्म हो गए। एक पेड़ का नाम दीदी वाली था, उसकी साहें कितनी सुगंधित होती थीं। उससे तुमने बहुत आम चुराए हैं। कितनी शैतान टोली थी तुम्हारी बचपन वाली। याद करो रक्कू, पिंटू, रज्जन, राजन, रामसेवक और तुम अब भाइयों के साथ तुम्हारे दूसरे साथी। मामा, बुआ, मौसी, काकी और दूसरे रिश्तेदारों के बच्चे जो अक्सर गर्मियां यहीं बिताते थे। कभी गर्मियों में भी वो नाले से बनी नदी जिसे धपसिया कहते हैं लबालब भरी रहती थी और बहती भी थी। बस पूरी दोपहर बगीचे में आम और घर से लाई रोटियों का तुम मजा लेते थे। जब मर्जी आए एक डुबकी पानी पर मार लेते थे।

मेरे प्यारे बाशिंदे, 

मैं तुम्हें और क्या-क्या याद दिलाऊं कि बगीचे में ही एक झोपड़ी का अदद आशियाना बनाया जाता था। तुम लोगों को उसमें अपनी जरूरत का सारा सामान उपलब्ध हो जाता था। कुछ जरूरी तेजधार हथियार जो सांप-बिच्छू सहित बगीचे में उगे अनावश्यक झाड़ी-झंकाड़ की सफाई के लिए काम आते थे। ऐसे ही टार्च, बोरियां, बिस्तर और नमक-मसालों का भी इंतजाम जरूरी रहता था। आम पकने के समय रात का बसेरा भी तुम लोग बड़े भाइयों की निगरानी में करते थे। बगल वाली अमराई का आंधी तूफान आने पर सारे पके आम बीनकर उसका खूब फायदा भी उठाते थे। क्योंकि उसका बूढ़ा सेवादार कक्काजी अक्सर रात में गायब रहता था। मेरी अमराई में बचपन में पेड़ों पर खेलने वाला एक प्रमुख खेल भी होता था ‘इमली का डंडा’। इसमें पेड़ के नीचे एक डंडा रखा जाता था और बारी-बारी सबको दाम देना होता था। पेड़ पर सारे खिलाड़ी छुपते थे, जो बच्चा फील्डर की तरह दाम देता था उसे सबको नीचे पड़े डंडे को चूमने से पहले पकड़ना होता था। अगर किसी एक को पकड़ लिया तो वो दाम देगा बाकी सब गिनती शुरू होते ही पेड़ पर टंग जाते थे। अमूमन एक ही छोकरा पूरी दोपहर दाम देता-देता थक जाता था, क्योंकि गिनती शुरू होते ही सब पेड़ पर टंग जाते थे और उससे बच-बचाकर इमली का डंडा चूम लेते थे। वो कब ऊपर से कूदकर नीचे आ जाते थे। नीचे वाले बच्चे को पता ही नहीं चलता था, क्योंकि वो पेड़ पर कभी इस बच्चे के पीछे उसे पकड़ने को भाग रहा है तो कभी किसी और को। तुम्हें याद नहीं काफी कसरत भरा मगर रोचक खेल होता था। इसमें कई बार कुछेक छोकरों के हाथ-पैर भी टूटे। कुछ भागने के चक्कर में ऊपर से ऐसे फिसले कि सीधा अस्पताल में प्लास्टर चढ़ाने की नौबत आ गई। ये सब उस याद का हिस्सा हैं, जिनके जबां पर आते ही न जाने उस गोष्ठी के कितने बालसखा और सखियां तुम्हें अब भी बरबस याद आ जाती होंगी। मेरी अमराई में तुम्हारे बचपन की छिटकी ऐसी हजारों यादें हैं, जिन्हें लिखकर मैं तुम्हें और कुरेदना नहीं चाहता हूं। क्योंकि धीरे-धीरे मैं अपना पुराना स्वरूप खोता जा रहा हूं। 

मेरे प्यारे बाशिंदे, 

मैं तुम्हें इस पत्र के साथ सालों पहले लिया ये एक चित्र साझा कर रहा हूं, जो तुम्हें मेरी अमराई का हालेबयां करेगा। शर्त बस यही है कि तुम फिक्र मत करना। ये उस दरख्त का चित्र है, जिसका आम खाकर तुमने आम खाना सीखा। याद करो अब तो दादू बब्बा भी नहीं रहे, जिनका ये बगीचा का है। राम मंदिर के किनारे बने खेल के मैदान के पास का दृश्य तो तुम्हें याद होगा। पता है अब वो कितना बदल गया है। मेरे इस प्यारे बगीचे को ईंट बनाने वाले भट्ठा ठेकेदारों ने सालों पहले रौंदकर रख दिया है। कभी इसी अमराई के बीच में तुम अपने बाबा के साथ खलिहान में रात बिताने आते थे। तब यहां तुम्हारा खलिहान रखा जाता था। क्या भूल गए वो सब गर्मी की चांदनी भरी रातें, जिनकी ठंडक तुम्हारे सीने में अब तक जज्ब होगी। तुम्हीं कहो कि शहर जाकर कितनी रातें खुले आसमान के नीचे तुम्हें सोना नसीब हुआ है। तुमने अपने बाबा के साथ खलिहान में खुले आसमान के नीचे कितनी रातें चांद तारे गिनते हुए सुकून से नींद की चादर ओढ़कर बिताई हैं। निर्लज्ज क्या तुम सब भूल गए हो। 

मेरे प्यारे बाशिंदे, 

मुझे माफ करना मैं तुम्हें अपशब्द नहीं कहना चाहता हूं, लेकिन तिल- तिल के मर रही मेरी अमराई को देखने के लिए मैं अभिशप्त हूं। अब मैं तुम्हें अपना हाले दिल और नहीं लिख पाऊंगा कि मेरे बाग-बगीचे अपने चरम पर पहुंचकर अब अपने अंत की ओर हैं। कुछ तो आधुनिक विकास की भेठ चढ़ गए हैं, तो कुछ अपनी उम्र पूरी कर सूख गए हैं। इनमें से कुछ ऐसे भी हैं जो केवल और केवल लापरवाही की वजह से सूख रहे हैं। अब तुम ही कहो कि तुम्हारे जैसे गांव के कितने शैतान लौंडों का बचपन यहां अमराई में कैद है। मुझसे तुम और क्या चाहते हो कि मैं तुम्हारा बुढ़ापा आने तक मैं ही नहीं रह जाऊं। इससे पहले कि मैं तुम्हारी सुखद यादों का खंडहर बन जाऊं तुम चले आओ। मेरी अमराई तुम्हें बुला रही है...तू आ मेरे प्यारे....रंजिश ही सही दिल दुखाने के लिए आ...!!

-- तुम्हारा गाँव 

© दीपक गौतम

#आवाराकीडायरी #बेपतेकीचिट्ठियां #आवाराकीचिट्ठियां  #गाँवकेनामपाती 

नोट : यह श्रृंखला अनुबंध के तहत अपनी डिजिटल डायरी में प्रकाशित हो रही है। इसे लेखक की अनुमति के बिना कहीं और प्रकाशित नहीं किया जा सकता है।


Post a Comment

0 Comments