मेरी आवारगी

वह दरवाजे पर खड़ी थी, मैं खिड़की के पास खड़ा था


वह दरवाजे पर खड़ी थी, मैं खिड़की के पास खड़ा था। हम दोनों अपनी-अपनी तन्हाइयों के साथ खड़े थे, क्योंकि वो उस पार थी और मैं इस पार खड़ा था। फलसफा जिंदगी का बस इतना सा था कि मेरी खिड़की उसके दरवाजे के सामने खुलती थी। 

मेरी स्मृतियों में अब तक ये साफ है कि मेरी खिड़की से उसके दरवाजे की चौखट के पार के दृश्य धुंधले दिखाई देते थे। मगर जब वो चौखट के इस पार दरवाजे पर आती, तभी उसका दीदार होता था। हमारा प्रेम मौन के छंद में बिंधा हुआ पूरी खामोशी के साथ दरवाजे और खिड़की के अपने-अपने छोरों से शुरू हुआ था। 

जवानी के साथ-साथ इश्क की दहलीज़ में भी ये हमारा पहला कदम था, जो बड़ी खामोशी से उठाया गया था। हम एक मौन के पंछी थे और उन दिनों उड़ना नहीं जानते थे। यूँ ही एक निगाह का दूसरी निगाह में उतर जाना, कभी चोरी से तो कभी पूरी इजाज़त के साथ उसकी निगाह में मेरे अक्स का झलक जाना। ये सब बड़ी शिद्दत से उन दिनों हमारे जीवन में घट रहा था। यहां अल्फाजों की जरूरत नहीं थी, जीवन भर साथ निभाने का वादा भी नहीं था, बस एक खामोश मोहब्बत जवान हो रही थी, जो अल्हड़ और बेपरवाह थी। उसमें हमेशा साथ निभाने या जीने-मरने के वादे नहीं थे। ये नई उमर का पहला प्यार था, जो दो जोड़ा नयनों में समाया हुआ था। बस वही बातें करती थीं, उन्होंने ही मौन की भाषा गढ़ी, अपनी-अपनी शब्दावली में वो प्रेम करते थे, सिर्फ प्रेम। उन्होंने कभी देह की भाषा नहीं जानी, उनके शब्दकोश में चुम्बन, आलिंगन और स्पर्श जैसे शब्द ही नहीं थे। उन्हें तो प्रेम ने स्पर्श किया था, वो उसकी छुअन का सुख सतत अपनी आँखों से भोग रहे थे। 

ये प्रेम अपने-अपने मौन के किनारों से शुरू हुआ था, जहां लड़की सड़क के उस पार दरवाजे पर खड़ी थी और लड़का इस पार अपनी खिड़की पर। शायद इसीलिए ये मौन में ही समा गया, जब एक दिन लड़की अपने परिवार के साथ गांव से हमेशा के लिए शहर चली गई। उस दिन उनकी आंखों में पानी था, उन्होंने पहली बार प्रेम में रुदन और बिछोह का स्वाद चखा था। उस प्रेम के गवाह रहे दरवाजा और खिड़की आज भी अपनी-अपनी जगहों पर टिके हुए हैं।

©दीपक गौतम 
#योरकोटराइटिंग्स


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