मेरी आवारगी

इस वैचारिक समुद्र मंथन से अमृत कब निकलेगा

माना कि घोर असहमतियों का दौर है ये। हो सकता है हम अपने समय के सबसे कठिन वक्त में जी रहे हैं। पर वैचारिक विरोध का घृणा और नफरत में बदल जाना समझ से परे है। कई बार सोशल मीडिया और अन्य सार्वजनिक मंचों में बौद्धिक विमर्शों का ऐसा रायता बनते देखता हूँ कि भाषा की शालीनता तो छोड़िये दिए गए तर्कों को पढ़-सुनकर माथा फट जाए। न जाने कहाँ-कहाँ से एक दूसरे के मां-बाप का इतिहास उठा लाते हैं और देश-दुनिया का सारा विमर्श आपसी छीछालेदर पर आ सिमटता है। गजब की सड़न का दौर है ये।
    अरे भाई किसी के विचारों से सहमत मत होइये पर उसकी आवाज को भी सुनिये समझिये और तर्क से खारिज कीजिये। कभी-कभी तो लगता है एकाद साल पहले देश में न वामपंथ जिंदा था और न संघ। जैसे कोई विचारधाराएं ही नहीं थीं और अगर थीं तो वैचारिक असहमति के नाम पर ये दुर्गन्ध नहीं थी।
    आपके विचार और नजरिया आपका व्यक्तिगत हो सकता है लेकिन सच एक ही होता है। हर किसी के अपने सच नहीं हो सकते हैं। माना कि सारा कारोबार झूठ का है। मगर आवाजें उठती हैं तो बस शोर ही नहीं होता उनमें जो सच्चाई है वो कील की तरह धंस जाएगी मौजूदा वक्त के वर्तमान में और इतिहास में।
    अब ये पता नहीं कि इस मन्थन से अमृत कब निकलेगा,लेकिन विषवमन तो जारी है। लगभग सार्वजनिक मंचों में इन बौद्धिक परिचर्चाओं के नाम पर नए-पुराने दोस्तों को कुत्ते-बिल्ली सा झगड़ते देख रहा हूँ। विचारों की असहमति के नाम पर याराने कुर्बान हो रहे हैं। विचारों का घोर राजनीतिकरण हो गया है। मुद्दे शुरू साफ़ चर्चा और बहस के लिए होते हैं और फिर वैचारिक दंगे में तब्दील हो जाते हैं। आप एक-दूसरे के विपक्ष को सुनना समझना ही नहीं चाहते हैं। चिल्लाकर सिरे से खारिज। सही-गलत तो दूर की कौड़ी हो गई है, बौध्दिक आतंकवाद हावी है। बस मैं अपनी विचारधारा कैसे थोप दूं सामने वाले पर। मैं कैसे सही हो जाऊं।
   टीवी से लेकर अखबार और सोशल मीडिया तक विचारों की गुटबाजी जारी है। वो वामपंथी है वो संघी है वो फेमनिस्ट है तो वो प्रो कांग्रेसी है वो प्रो बीजेपी है। अरे आम आदमी से पूछिये वो आज भी लगा है दो जून की रोटी और रोजगार में। ये सरकारें और बौध्दिक खेमे लगे रहते हैं असहिष्णुता और सहिष्णु होने में। कोई देश को आर्थिक और आध्यात्मिक महाशक्ति बना रहा है तो कोई फासीवाद, मनुवाद, राष्ट्रवाद के नाम पर सशक्त कर रहा है। इन तमाम बौध्दिक बहसों के बीच आम आदमी अब भी सड़क, बिजली, पानी, रोजगार, अपराध, भ्रष्टाचार और गरीबी जैसी आम जमीनी समस्याओं से ही परेशान है। न उसका तब कोई था न अब है। न ये बौध्दिक खेमे वाले न सरकारें। जमीन पर कोई काम करना नहीं चाहता। न ये कथित बुद्दिजीवी अपने विचारों की ऊर्जा का लाभ पहुंचा रहे हैं और न ही  सरकारें आम समस्याओं को हल कर रही हैं।
   कुल जमा सब लगे हैं एक-दूसरे को नीचा दिखाने में और ये वैचारिक महासंग्राम जीतने में। आम आदमी से किसी को सरोकार नहीं है। वो आज भी एक सरकारी योजना के लाभ के लिए बाबू और साहबों के दफ्तर में भटक रहा है आप बनाइये भारत को जापान और सिंगापुर क्या फर्क पड़ता है। फिर भी जारी रखिये ये वैचारिक समुद्र मंथन विष के साथ शायद कभी अमृत भी निकलेगा। मैं तो आवारा आदमी हूँ बस प्रेम समझता हूँ क्योंकि उसमें भाव होते हैं। अब इन कथित बौध्दिक विमर्शों और भावविहीन तर्कों भरे माहौल से जी उकता गया है।

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