मेरी आवारगी

हे ईश्वर तुम हो तो कहाँ हो ?

मोबाइल से लिया अनन्त आकाश 
हे ईश्वर तुम हो तो कहाँ हो ? कहते हैं यत्र-तत्र-सर्वत्र हो तुम। कण-कण में हो बहती हवा में हो। जीव से लेकर निर्जीव तक हर जगह तुम्हारा अंश है। सब धर्म यही कहते हैं कि तुम्हारी इच्छा के बिना कुछ नहीं होता। प्रकृति में घटने वाली हर घटना में तुम्हारी मर्जी शामिल है। तुम्हारे होने के कितने प्रमाण दिए जाते हैं। मैं आस्थावान हूँ और मानकर चलता हूँ कि तुम हो। मगर आज तक समझ नहीं पाया कि जितनी अप्रिय घटनाएं होती हैं क्या उनके पीछे भी क्या तुम हो ? और यदि ऐसा है तो तुम्हारी बनाई दुनिया में इतना अत्याचार, अन्याय, शोषण और नफरत क्यों ? तुम तो प्रेम में रमते हो और पूरी प्रकृति से प्रेम का संदेश देते हो, फिर ये जहर क्यों ? कहीं तुम्हारी दी हुई हवा प्रदूषित है तो कहीं पानी नहीं मिल रहा है, कहीं आग जंगल जला रही है, तो कहीं भूखमरी से जीना हराम है ?
अगर तुम हर बच्चे की मुस्कराहट में हो तो दंगों और आतंकवाद में मारे जाने वाले अबोध बच्चों के आसुंओं में क्यों शामिल नहीं हो ? हम सब तुम्हारे बच्चे हैं और तुम्हें प्यारे हैं तो भूकम्प से लेकर बाढ़ और सुनामी तक होने वाली प्राकृतिक आपदाओं में लाश बने मासूमों की चीखों में तुम क्यों नहीं दिखते हो ? यहाँ हर रोज लुटती नारियों की आबरू से तुम बेइज्जत क्यों नहीं होते? भूख से तड़फते किसी गरीब के पेट का दर्द तुम्हारा क्यों नहीं है ? मजहबों के नाम पर हो रहे खून-खराबे में तुम्हारी आत्मा क्यों नहीं रोती? बढ़ते भ्रष्टाचार से उपजे शोषण और अत्याचार में तुम्हारा मन क्यों नहीं रोता ? हर तरफ हो रहे अन्याय और अत्याचार से उपजे दर्द से तुम्हें दुःख क्यों नहीं होता ? तुम्हारे मन्दिरों, मस्जिदों और गिरजाघरों से लेकर गुरुद्वारे तक फैले खून के निशानों के खिलाफ तुम क्यों नहीं ?
अगर ये तुम्हारा सन्तुलन का कोई नियम है दुःख के बाद सुख और दिन के बाद रात टाइप तो आखिर कब तक ? तुम्हारे नियम कायदे ऐसे कैसे हो सकते हैं कि अन्याय बढ़ता रहे, इंसान मरता रहे, प्रकृति झुलसती रहे, जिंदगियां हताहत होती रहें...। ये किस तरह की सरकार और सरोकार हैं तुम्हारे जहाँ सृजन के बाद केवल बढ़ते विनाश की जगह ही दिखाई देती है ? क्या रचे हुए को सहेजने और संवारने में तुम्हारा भरोसा नहीं है ? कितनी खूबसूरत दुनिया बनाई है तुमने, रंगबिरंगे जीव, अचम्भे से भरे झरने, नदी, वन, पर्वत, पहाड़ और इंसान। फिर कैसे इन्हें तबाह करने पर आमादा हो ?
अगर हमेशा दिन नहीं हो सकता, केवल सुख नहीं हो सकता या केवल अच्छाई नहीं तो फिर तुम्हारे होने या न होने का क्या अर्थ रह जाता है ? फिर तुम भी सरकारों की तरह ही व्यवहार करते हो ? ये सब होने के पीछे तुम ही हो तो पहले दर्द दो फिर दवा करो, जैसे सरकारें करती हैं। दुखो तकलीफों से डरकर लोग आस्थावान हों और फिर झुकें, हे एकमेव सर्वशक्तिमान तुम्हारे पास नतमस्तक हों। शायद तुम उन्हें अपने होने का यकीन दिलाओ। अगर तुम हो और मुझे भी तुम्हीं ने रचा है तो कभी-कभी तुम्हारे होने का आभास शून्य क्यों हो जाता है। इतना असंतुलन तुम्हारे होते हुए ? इतनी नफरत ? कुछ तो है जो अबूझ रह जाता है ? आत्म ज्ञान किस चिड़िया का नाम है ? बुद्ध हो जाना क्या है ? आस्था और परमात्मा ? न जाने कितना कुछ है जो बेचैन कर देता है, जब मासूम लोग बेमौत मारे जाते हैं और तुम्हें पूजने के नाम पर बने धर्म बिना मतलब लोगों के मरने का कारण बनते हैं। किसी दिन मिला तुमसे या आभास हुआ मिलने का तो जरूर पूछूँगा कि अच्छाई के अहसास के लिए बुराई क्यों जरूरी है ? क्यों केवल उजाला नहीं हो सकता है ? अंधेरा किसलिए ? केवल उजाले का सिद्धांत क्यों नहीं ? सुख महसूस करने के लिए दुःख का डर आखिर क्यों ?
कहते हैं जहाँ प्रयोग खत्म हो वहां से योग शुरू होता है। जहाँ तर्क हार जाएँ वहां भक्ति शुरू होती है। आस्था सिर्फ विश्वास में जन्मती है, इसलिए सिर्फ भावों से भरा यह पत्र तुम तक प्रेषित कर रहा हूँ। ज्ञान से कोसों दूर हूँ। उम्मीद है तुम जवाब दोगे।
नोट: आजकल सबके नाम खुला पत्र लिखने का सिलसिला चल पड़ा है। तो मैंने भी तुम्हारे नाम ये पत्र लिखा है। एकांत में पढ़कर जवाब दे देना। कहीं से भी किसी भी जरिये से तुम तो सर्वत्र हो। तुम्हारा प्रिय।


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