जो हर रोज छज्जे पे आती थी।
सुबह चाय की प्याली में समाती थी,
टुकड़ा-टुकड़ा रात की बासी रोटी में
मां के हाथ का बना माखन पिघलाती थी।
अब कैप्सूल में मिलती है, बी-12
और विटामिन डी चुक जाने के बाद।
नाश्ते में मिलती थी पहले,
बाबू जी के अखबार पढ़ते वक्त
हर पन्ने पर छिटकी इधर-उधर ।
गाँव के कच्चे मकानों के आंगन
और उनके छज्जों से छनती हुई।
अब शहर की इमारत में फ्लैट की
बाल्कनी भी उदास रहती है।
दोपहर को किसी कैमरे के फ्लैश
सी चमककर चली जाती है,
इठलाती हुई नजरें बचाकर ।
वो जाड़ों में अक्सर दादी के जोड़ों
का दर्द बुहारती किसी मालिश
वाले नूरानीे तेल के साथ।
ठंड की दुफारी में दादा जी
के खाने की जरूरी सी खुराक।
शहर में इस दस बाई दस के दड़बे
में कहां मिल पाती है रोजाना ?
हाड़ कंपा देने वाली ठंड में
अम्मा की सूज गई अंगुलियों
को सेंकने का अचूक थी वो इलाज।
अपने-अपने घरों के बाहर
जाड़ों में सब तापते थे घाम,
अब सन बाथ है उसका नाम।
किसी समंदर के किनारे पर
या पांचसितारा होटल के स्वीमिंग
पूल के किनारे ही ठहरती है अब।
खेतों में कभी जमता था खर्रा
दो डिग्री तापमान में दयाराम
'उरान' से चलाता था काम,
जब मड़ई के बाहर रखी बाल्टी
का पानी भी जम जाता था।
तब सूरज निकलने के इंतजार
में वो खेत पर ही जड़ाता था।
पौ फटने के पहले वो अक्सर
अलाव जलाकर काम चलाता था।
फिर खेत की मुड़ेर पर आए उजियारे
से वो नहाकर घर आता था।
वो कतरा-कतरा धूप खेत से किसान तक,
गाँव के हर मकान तक अब कहाँ मिलती है ?
कभी सूरज लुकाछिपी करता है, तो कभी
अटखेलियां करते बादल आ जाते हैं वहाँ।
मौसम भी इंसान सा बेईमान हो गया अब,
तुम्हारे-मेरे सबके हिस्से की धूप कहाँ गई ?
वो इत्मिनानी घाम गाँव से नदारद है,
शहर तो बस विज्ञान बिसारद है।
अब गाँव की चौपालों में लोग उरान नहीं लेते,
नगरों में हम खुले हुए मकान नहीं लेते।
केवल पेड़ ही नहीं काटे हमने, छद्म विकास
की आंधी में अपनी जड़ें कतर डाली हैं।
जिंदगी के उजियारे में वो धूप कहीं खो गई है,
चीथड़ों को सिलने के चक्कर में कमीज फट रही है।
@आवारा एक रात धूप को महसूसता हुआ।
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