मेरी आवारगी

अम्मा की रसोई में प्यार पकता है...!

   चौसेला, भर्ता, बिजौरा, पापड़, चिप्स और        चटनी। 

मैं पहले ही कह चुका हूं कि अम्मा की रसोई में पकवान नहीं प्रेम पकता है। ये बस उसी का प्रेम का थाल सजा है। स्नेह की मध्यम आंच में पककर सुर्ख लाल हुई ये ज्वार की पूरी है, जिसे गाँव में चौसेला कहा जाता है। इसके साथ खाने के लिए देसी भर्ता है। बिहार में जिसे चोखा कहा जाता है। गोबर के उपलों (कंडा) से जब चूल्हे में आग तैयार होती है, तो उस पर भुना आलू, बैगन और टमाटर एक अलग तरह का सौंधापन लिये होता है। छप्पन भोग का थाल मेरे सामने भले ही आज तक न आया हो, लेकिन मैं दावे से इतना कह सकता हूँ कि उस पर सजी हर साग और तरकारी को ये भुर्ता मात देने का माद्दा रखता है। 

आपको पढ़कर शायद आश्चर्य लगे, लेकिन वास्तव में यह सच है। क्योंकि गाँव के चूल्हे पर पका अम्मा की रसोई का हर पकवान शुद्धता और स्वाद का खजाना होता है। प्रेम और स्नेह की आँच में भोजन तो सिर्फ ममता की मूरत ही पका सकती है। शायद इसीलिए माँ के हाथ की बनी सूखी रोटी और साग भी अलग ही जायका लिए होता है। तभी तो वो पकवान 5 स्टार होटल या छप्पन भोग की थाली से ऊपर है। 

गाँव-घर में अक्सर सयाने कहते हैं कि जैसा मन वैसा तन। ये बात भोजन पकाने पर भी लागू होती है, तभी तो अच्छे मन से खाना पकाने की नसीहत दी जाती है। शायद तभी महिलाएं अलग-अलग भूमिकाओं में रहकर रसोई के बहाने अपना जो वात्सल्य उड़ेलती रहती हैं। उनके द्वारा अपने परिजनों के लिए बनाई गई रसोई तभी तो जायकेदार होती है। घर की रसोई में पकाए जाने वाले व्यंजनों में मसालों से ज्यादा प्रेम, स्नेह, सेहत और फिक्र का तड़का होता है। 

आपको लोग अक्सर कहते हुए मिल जाते हैं कि बाहर का खाना मत खाना। भले ही घर से डिब्बा ले आना। क्योंकि बाज़ार में मिलने वाला भोजन व्यवसायिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए बनाया जाता है, उसे बनाते वक्त रसोईया प्रेम, स्नेह और फिक्र वाला भाव मस्तिष्क में नहीं रखता है। वो तो भोजन पकाते वक्त व्यवसाय को ही दिल-दिमाग पर रखता है। इसीलिए उन पकवानों में स्वाद के साथ-साथ प्यार का जायका गायब रहता है। 

आप देश-दुनिया के किसी भी प्रसिद्ध जायके के बड़े ठिकानों को देख लीजिए, वहां मिलने वाले स्वाद पर पीढ़ी दर पीढ़ी काम हुआ रहता है। वहां भी रसोईया दिल से सिर्फ बेहतर खिलाने का भाव रखकर भोजन पकाता है। वो अपने बाप-दादाओं के नाम को चलाने के लिए जायका मोहब्बत के नमक-मिर्च से तैयार करता है। तभी आप इंदौर की सराफा गली, लखनऊ का बाजार, दिल्ली की पराठा गली जैसी जगहों पर जायका तलाशते हुए फिरते हैं, क्योंकि वहां वही 3 पीढ़ी पहले वाले स्वाद को बनाये रखने की मजबूरी है। उन प्रसिद्ध दुकानों में बैठी आज की पीढ़ी के दादा-परदादा ने सालों पहले बड़ी तसल्ली और सुकून से लोगों को दिल से कुछ खिलाने का संकल्प लेकर वो काम शुरू किया था। देशभर में पसरे खाने-पीने के पारंपरिक और प्रसिद्ध कुछ ठिकाने ऐसे भी हैं, जिनमें वो पहले वाली बात अब नहीं रही है। उसका बस एक ही कारण है कि वहां अब मोहब्बत की नमक-मिर्च का तड़का दिल से नहीं लगाया जाता है। इसलिए वो 3 पीढ़ी पहले वाला दिल से खिलाने का संकल्प गायब होते ही सिर्फ व्यवसाय का जायका उस खाने में मिलता है। 

अपन तो यही कहते हैं कि मोहब्बत रिश्तों में ही नहीं खाने में भी घुली होती है। कायनात का जर्रा-जर्रा इश्क से ही निखरा है, तो फिर भला भोजन कैसे प्यार की चाशनी से महरूम रह जाएगा। इसीलिए अम्मा जब अपना प्यार तरह-तरह के  व्यंजनों में कुड़ेलती हैं, तो जहाँ का हर पकवान उसके सामने फीका पड़ जाता है, क्योंकि अम्मा की रसोई में प्यार पकता है। लव यू मॉम। 


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