जिन्दगी की हर सोच में तर्रनुम कैसा
कि जीना महज जहन्नुम जैसा।
ये मायूसी मेरे किरदार में नहीं यारों
ये नशा है जो जिन्दगी से जाता नहीं।
ज़हर पी गया हूं कब समझ आता नहीं।
ये पी रहा है मेरी जामे-जिन्दगी मालूम है मुझे।
इससे बचने का कोई रास्ता नजर आता नहीं।
ये शुरूर है इस नशे का, जिसके बिना जिया जाता नहीं ।
लिबासे-आवारगी का ही सारी उलझनों का हिजाब काफिर।
अब इसे बेबसी भी किस लिहाज से कहें, बहती हर सांस का फसाना है ये।
'' इस आवारगी में ही जिए हैं इसी में मर जाना है, ये आवारगी भी अपने शय की है,
जरा तराश लेने दो इसे सारे जमाने को 'आवारा' बनाना है''
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