मेरी आवारगी

तेरी गालियाँ भी प्रेम में पगी थीं...!!


दादी के दर्द भरे आखिरी पलों की गवाह एक पल 
जीवन के कुछ रिक्त स्थान कभी नहीं भरते, वो बस खाली ही रहते हैं। कभी खूबसूरत यादों से आपकी आत्मा का सूखापन हर लेते हैं, तो कभी उनकी रिक्तता का तमस जीवन के हल पल की हरियाली को सूखा कर देता है। दादी के अचानक जाने बाद मिले उस खालीपन के साथ 24 सितम्बर को वापस घर से लौटा हूँ। जब 5 सितम्बर 2014 को घर की ट्रेन पकड़ी थी, सोचा नहीं था कि इतना बड़ा घाटा इन 20 दिनों में होगा। बाई (दादी ) तुम्हारी आत्मा का उजाला हर पल मेरे साथ है। बहुत कुछ अधूरा रह गया मन का सोचा हुआ तुम्हारे वास्ते। बस कसक रह गई कि तुमने इतनी जल्दी विदा ले ली। अब वो रिक्त स्थान बस रिक्त ही रहेगा....तुम्हारी कही-बतकही न कभी कही न ही लिख पाया। अब वो किस्से -कहानियाँ सी निकल रहे हैं जेहन से।

किसी का स्वाभिमानी होना भारी कठिन है इस जीवन में, याद करता हूँ तो कोई क्षण याद नहीं आता जब बाई का स्वाभिमान डिगा हो। जैसी थीं अंतिम क्षणों तक ठीक वैसी ही रहीं। न पति के लिए बदलीं न नाती-पोतों के लिए और न ही अपने बेटों के लिए। अजीब ही था उनका फिकर करने का ढंग, बेजा खराब गालियाँ जीभर देने के बाद जब खाने को पूछतीं तो लगता कि बरछी घुसा के कोई फटी हुई त्वचा पे टांके टांक रहा हो। बचपन था तब समझ नहीं आया जब समझने लायक हुए तो समझा कि वो गालियाँ नहीं उनका प्रेम था जो फिकर में जरा उग्र होकर बरसता था। उनका लाड़ भी उनकी तरह सख्त था और हर किसी से बेपरवाह, मगर सबके लिए एक सा। वो चाहे अजनबी हो या उनका रिश्तेदार। एक समान व्यवहार का कोई पुराना सिद्धांत लागू किया गया था उनके मानस में।

समाजशास्त्री शायद अलग तरह से इसकी व्याख्या करें, मगर एक अनपढ़ स्त्री का  किसी शिक्षक पुरुष के साथ जीवन भर निबाह पाना बड़ा विकट जान पड़ता है। बब्बा तो जैसे कोई विरली आत्मा ही हैं...बाई जितना उन्हें गरियातीं वो उतना ही हंसते। घर से विदा लेते वक्त अबकी जब उनके पैर छूने बैठके पर गया, बाबा छलछला   कर बह पड़े। उन्हें कभी सिसकते तक नहीं देखा...पहली बार उनका फफकना जी चीर गया। घर में श्याने न हों तो घर किसी खाली मन्दिर जैसा हो जाता है, जहाँ न भगवान होते हैं न आरती और पूजा-पाठ के राग।

सोचता रह गया कि नौकरी ने पैसा छोड़कर बाकी सब छीन लिया है 7 साल से घर से बाहर हूँ। न जाने कितने दिन खत्म हो गए बाई कि प्रेम में पगी गाली सुने बिना। दशक बीत रहा है बाबा के साथ शतरंज बिछाए हुए।( यूँ तो अब वो भी इतने अस्वस्थ हो गए हैं और इतने अचल कि वो सब पहले जैसा उनके साथ समय बिता पाना संभव नहीं है)।

10 सितम्बर 2014 कभी भूल नहीं पाऊंगा... दो रात से दर्द में कराहती बाई सो नहीं पाई थी। सुबह से बार-बार बिस्तर पर ही लिटाने और बिठाने को कहती रही के शायद किसी अवस्था में उसे आराम मिले, मगर वो हो न सका। भैया से बहुत लगाव था उसे 11 बजे वो भी दिल्ली से गाँव आ पहुंचा। मैं दर्द के कुछ और इंजेक्शन लेने बाइक से सतना भागा कि शायद एक शाम और बीत जाए और रात को भोपाल रवाना होकर बाई को बेहतर इलाज मुहैया कराया जाएगा। सतना के डॉक्टर्स ने तो पहले ही मना कर दिया था ये बताकर कि पित्ताशय का कैंसर है और वो भी चौथी स्टेज में है कभी भी प्राण छूट सकते हैं। ( कुल जमा जीवन में 12 दिन बीमार रही बाई और बारवें ही दिन चल बसी। कभी किसी दर्द की शिकायत तक नहीं की।

ये एक रहस्य ही रह गया कि ट्यूमर फूटने तक उसे दर्द क्यों नहीं हुआ। काश कि बीमारी की आखिरी अवस्था पता चलने के पहले ये खुलासा होता और वो इलाज से कुछ साल और जी जातीं।) सतना पहुंचा ही था और दवाएं ले ही रहा था कि भैया का फोन आ गया कुछ मत खरीद बाई चली गई। मन बहुत भारी हो गया...आंसू बह चले और अफसोस रह गया कि चार रोज से उनके साथ था उस आखिरी पल जीते न देख पाया। बाइक गाँव की ओर जितनी तेजी से चल रही थी, उससे भी तेज रफ्तार से आंसू  निकल रहे थे। भीड़-भाड़ भरी सड़क पर हर चीज से बेखबर फूट-फूटकर रोता चला जा रहा था। 2 घंटे का रास्ता 40 मिनट में कब निकला पता ही नहीं चला। गाँव पहुंचा तो घर के बाहर अर्थी और लोगों का हुजूम था। सबको चीरता हुआ बाई के कमरे की तरफ बढ़ा तो गाँव भर कि महिलाओं से वो खचाखच भरा था। मौतें पहले भी हुई हैं गाँव में महिलाओं कि मगर 1000 भर महिलाएं किसी के जाने पे इकट्ठा नहीं हुईं। वो भी उस महिला के लिए जिसने फूहड़ बुंदेली गालियों से हर किसी को लताड़ा हो। न जाने कैसे प्यार में पगा के गाली देती थी डुकरो कि सब उसके अंतिम दर्शन को खिचे चले आए। अजब-गजब प्रेम शैली थी उनकी, मुंह पे छुरी रखती थीं और करेजे में लाड़ की ठंडक। बाई की अर्थी उठाकर श्मशान तक जाना भेदता रहा अंदक तक, एक कसक रह गई कि तुम कछु ओर दिन की काहे न भर्इं।

ये उनका स्वाभिमान और निश्छल प्रेम से लबालब स्पष्ट स्वभाव ही था, जिसमें गांव के बड़े-बूढ़े ही न हीं महिलाएं भी खिची चली आर्इं। सबके जबान पर एक ही बात कि ये कैसे हो गया अभी तो तीज और हरछठ में मुझे गरियाकर गई थीं। हर कोई बस उनकी बुंदेली गालियां याद करके ही रो रहा था। जीवन भर बब्बा को डांटती रहीं, लेकिन आखिरी समय भैया को बुलाया और बोलीं बबलू बब्बा.... बबलू बब्बा। भैया ने जब बाबा को उनके सामने लाकर खड़ा किया तो 6 घंटे से बंद पड़ी आंखों की पलकें पूरी खुलीं और एक नजर भर के बाई ने बाबा को देखा। बाबा की नजर जैसे ही बाई पर पड़ी वो फफक पड़े, इधर उनकी आंख से आंसू बहे उधर दादी के प्राण निकल गए। अनोखे स्वभाव की थीं, जो आया किसी को नहीं बख्शा मेरे दोस्तों को कहतीं ‘काय रे मुचंगों बर्बाद कर दओ तुम औरन ने दिपुआ खों कभूं फैल नई भओ तुमाई संगत में देखो बारवीं जमात दोबारा कर रओ’। जीवन भर अपने रौ में रहीं, क्या पिता जी के साथी... क्या मेरे और क्या दादा जी के दोस्त... सबका सम्मान ठठरी, डूंडा और दहजार, हगंडा और हगंडू से ही होता था। न जाने क्यों फिर भी लोगों ने उनकी किसी गाली का कभी बुरा नहीं माना। वो उनकी शैली ही थी, जो प्रेम में पागकर गालियां देती थीं।

पूरा गांव उनका घर था, कभी भी किसी के यहां चले जाना और उसी ठाठ से जैसे घर। चाहे रात के दो बजे हों या जेठ की दोपहर के 2, बाई को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा... न ही उनकी आवभगत में। जहां जातीं   दरवाजा खुलवाने की औपचारिकता में उस घर के बड़े का नाम लेतीं और कहतीं... ‘काय रे मर गओ का किवांडे जो खोल हम आं आज इतई परबी, अपनो चदरा ले आए हैं ओ मच्छर दानी तना खटिया बिछाओ उसारे में’। सोचना भी संभव नहीं कि कोई महिला एक अनजाने हक से इतना अखिकार जमाकर सबको अपना और खुद को सबका बना दे। छुपाकर भला करने का उनका अंदाज अपना ही था, गांव में किसी को मदद की दरकार है, तो इस बात का शोर बाद में बाई मदद समेत पहले पहुंच जातीं। कभी किसी को पराया नहीं समझा। दरवाजे पे अजनबी आ जाए तो अपनी थाली उसके लिए खिसका देती थीं। माघ मेला में इलाहाबाद और उनका दान-पुण्य तो मुझे भूलता ही नहीं। जब जातीं तो सामान का अंबार लग जाता था और लौटतीं तो पहनने की एक पुरानी धोती और फटे साल को छोड़कर कुछ उनके पास न बचता। सब दान कर आती थीं। कोई भी आसानी से दो आंसू बहाकर उनसे सब ले लेता था और वो कहतीं ‘ हमने धर्म समझके कर दओ अब राम जाने ऊने अधर्म से लओ के धर्म से...बा धन हमाओ नर्इं हतो सो चलो गओ हमाये पास से’।

तुम सदा रहोगी मेरे साथ तुम्हारे किस्से-कहानियों सी, बस नहीं मिलेगी तो तुम्हारी प्रेम में पगी गालियां, जिनके बिना कभी मेरा खाना नहीं पचा. घर में रहूं और जब तक तुमसे लड़ न लूं चैन कहां आता था...‘का रे दहजार कां गए अब फैल तो होई गए सो का भओ आओ धांस लो रोटी ई साल मन लगा के पढ़ियो...दहजार नाक कटा दई हमाई गांव मैं’। तुम अनंत में विलीन हो मां ... ईश्वर तुम्हें मुक्ति दे।

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