मेरी आवारगी

दादी अब उस धुंध की ओर

दादी माँ भैया की शादी  वक्त
दर्द कैसा भी हो सालता है बहुत गहरे तक। टपकता है कतरा-कतरा होकर पोर-पोर से मगर राहत नहीं मिलती। एक खबर ही काफी होती है बीमार करने के लिए और जीवन एक पल में बदल जाता है। आज बाई (दादी) को अस्पताल में नीडल्स, बाटल्स, मेडीसिन, नर्स और डॉक्टर्स के बीच रखकर अंदर से सब मरा सा महसूस कर रहा हूँ। अभी एक हफ्ते पहले तक जो गाँव में चलते-फिरते भले-चंगे जी से आदतन सबको मुंहभर गरियाती रही हो, वो बीमार...इतनी अधिक बीमार कैसे हो गई भला ? कुछ समझ नहीं आया खबर सुनी ट्रेन पकड़ी और लदफद अगले दिन घर। रास्ते भर न जाने क्या-क्या सोचता रहा और आधा अधूरा इसे तब लिखा और बाकी आज किसी  कदर पूरा कर रहा हूँ।
मैं इतना बड़ा हो गया (30 साल) में अपने जानते हुए कभी अस्पताल की चौखट पर नहीं देखा उन्हें। अब 80 साल की उम्र में....शायद आखिरी और पहली बार वो अस्पताल में हैं ! जब से समझने लायक हुआ कभी अपनी डुकरो (दादी) से पटरी मेल नहीं खाई, बुन्देलखण्ड की हैं बहुत मोटी-मोटी गालियाँ देती हैं। मुंह की बेजा खराब मगर दिल के कोने में हर किसी के लिए उतना ही असीम प्रेम रखती हैं।
अलाहाबाद के कुंभ में कई धोती, पेटीकोट और कंबल सहित ठंड के कपड़े ले जातीं थीं। मुझे याद है अम्मा के चोरी-छिपे अपने सारे नए कपड़े भी बाँध लेती थीं एक माह के प्रयाग प्रवास वाले समान के साथ। माहभर बाद जब बाई लौटतीं तो उनके पास एक फटे स्वेटर, पुरानी धोती और साल के अलावा कुछ न होता था। वो कहतीं " का करिये रे दिपुआ मनई गंगा नहाबे के बाद सत्य लेबे पे तुलो रआ हमने दिन-दिन करके सब बाँट दओ अब जो साल औ धुतिया लपेट के चले आए हें बस चलतो तो जा सोऊ दे आउते। बड़े (पापा) से कछु न कहियो। हमें बस बनिया के इते से कछु पहनबे खों लान दो".....!!
अब बिस्तर पर पड़ी हैं चार रोज हो गए। ठीक-ठीक पता नहीं मगर बस कुछ रोज की मेहमान। घर में भले उनकी गालियों से सबका जीना हराम हो जाए लेकिन मजाल की कोई कुछ बोल दे। अगर बोला तो नाना तरह के फूहड़ बुंदेली अलंकरणों से उसका सम्मान हो जाता था। और ये सब ऑन दी स्पॉट होता रहा है चाहे वो आदमी कलेक्टर के पास खड़ा हो या खुद कलेक्टर हो।
एक बार एक बड़े नेता टैप के चचा घर आकर बैठके पर पापा से चर्चा में मशगूल थे। बगल से बाई गुजर गईं उन्होंने चरण न छुए और फिर वहीं उनकी जहूजात होई गई "काय रे रमाकांत रुपैया बहुत बना लओ तैने जब कौरा-कौरा मोरे चौंतरा पे टोरत तो तब बाई-बाई करत रओ अब देखबो नईं बदो। नेता हो गओ का " भरे बैठके में नेता जी के चिल्लरों के बीच उनके इतिहास के पन्ने खुलते ही वो फडफड़ा कर जमीन पर लोट कर बोले "अरे चुनाव आ रओ बाई...जरूरी चर्चा में ध्यान नई दे पाये...कस कह रै तुमसे कछु छिपो हे का, अरे तुमने पालो हे हमें महतारी आ हमाई" तब जाकर गुस्सा शांत हुआ बाई का। इतने में बात बदलकर नेता बोले ओर बताओ सब कुशल तो हे ? तो बाई ताव में बोलीं " चल लुच्चा गारी पाके आ गओ इते घी चुपरबे गोड़न पे हमाये... अरे हमें का हूहे सब अच्छो हे।"
गाँव में लोग उन्हें छेड़कर अक्सर उनकी गालियों भरा आशीर्वाद सुनते हैं। उन्हें कभी नेता या अधिकारी के नाम पर शिकायत की गुस्सा दिलाया तो हमेशा कहतीं अरे हम काहू से नै डरिये ऊके बाप को नै खा रए ओ कलेक्टर हुइहे सो अपने घरे इते फाड़ के रख देबी" उनकी गालियाँ लोग प्यार ही समझते हैं और वाकई वो गालियों में पगे साफ़ अल्फाज हर वक्त सुकून देते रहे हैं।
उनका साफ़ कहना और डांटना किसी को बुरा नहीं लगा। अब अस्पताल में हैं तो डॉक्टर्स की बैंड बजा रखी है बोलीं "जो तुम औरें हमें मारबे आ लाये इते जे हमने कबहूं नहीं सुनो कि काहू को टट्टी-पेशाब नली से कराओ" जे नर्सें मर्जी से छेदे जा रहीं हमें....अरे ओ मुरहा हमें घर ले चलो ऐसी दबाई नै कराउने" जीबो नरक कर दओ इनने...जो मत खाओ बो मत खाओ...पानी पियो...हम तो सब करबी घर ले चलो हमें नै ठीक होउने....ओ रे मुरहा बुला डिराइबल खों"
कुछ समझ नहीं आता ये बीमारियाँ भी साली आतंकवादियों से कमजोर नहीं। दबे पाँव आती हैं और न जाने कब पूरा डेरा बसा लेती हैं जब पता चलता है तब आपके हाथ में कुछ नहीं होता। सब उस एक के भरोसे छोड़ देना होता है जिस निर्दयी को हम खुदा कहते हैं। बस दुआओं से कहाँ कोई बचा है और हमारी डुकरो तो भर मुंह गालियाँ देने और गाँव में रात-बिरात कभी भी किसी की सेवा लेने को बदनाम है, किसी से दर्द की दवा चाहिए तो कहीं घर से रूठकर अपना चादर-बिस्तरा लेकर खड़ी हैं रात दो बजे उसके यहाँ सोने की जगह पाने को...। ये गाँव में ही संभव है कि आस-पड़ोस और टोला-मोहल्ला के लोग उनका स्वभाव और उन्हें जानते हैं तो गुस्से में उनके मन की कर देते हैं, वरना शहर में रात दो बजे किसी के घर के अंदर तो क्या बाहर भी सर छुपाने को जगह न मिले।
अब वो सब कतारों में आकर घर पे मिलते हैं बाई से और कहते हैं आज राउंड नई भवो गाँव को बाई...कैंसी तबीयत है...बाई दर्द में कहती है "का बतैये भोत पीरा हे रे जीबो-मरबो लगो हे" अब दो हफ्ते से गालियाँ तो दूर उनके मुंह से शब्द सुनने को कान तरस रहे हैं....अगर तुम कहीं हो कोई भगवान टाइप तो बहुत निर्दयी हो गुरु...एक-एक करके सब छीनते जा रहे हो...इन्हें भी उस कगार पर ले आये ...तुम्हें माफ़ नहीं करूंगा अबकी......माँ...!!
लिखना कभी-कभी राहत देता है मगर आज वो भी नहीं...शब्द बहुत सा दर्द सोख लेते हैं। शायद इसीलिए मैं लिखता हूँ। हर करवट पर बाई की आह निकलती है और अपनी बेबसी के आंसू। अब पता भी चला तो किस मुकाम पर जब कुछ हो नहीं सकता....मैं तुम्हें कभी माफ़ नहीं करूंगा...जो खुदा कहते हो खुद को। 

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