मेरी आवारगी

बाबा के नाम चिट्ठी : हमें माफ कर देना सर, हम सब नक्कारे आपके लिए भी एक साथ खड़े नहीं हो पा रहे हैं !

     बाबा के साथ सालों पहले बीते एक दिन की याद। 

प्रिय बाबा,

मुझे आपको यह सूचित करते हुए पीड़ा हो रही है कि आपके विचारों की विरासत को आगे ले जाने में हम लोग असमर्थ हैं। मुझे बेहद शर्मिंदगी से यह कहना पड़ रहा है कि आपकी अस्थियों के साथ-साथ शायद हम सभी ने आपके मूलमंत्र और विचारों को भी नर्मदा मैया में प्रवाहित कर दिया है। शायद तभी आप जैसे 'वटवृक्ष' की शीतल छांव से महरूम होने के बाद भी हम सब एकजुट नहीं हो पा रहे हैं। आपके विचारों को आगे ले जाने के लिए हो रहे प्रयास में सहभागी बनने का भी संकल्प नहीं ले पा रहे हैं। किसी एक नेक उद्देश्य में भी अपने आपसी मतभेदों-मनभेदों को भूलने की चेष्टा नहीं कर पा रहे हैं। आपने हम सभी विद्यार्थियों को प्रेम के जिस धागे में पिरोया था, अब उसमें गांठें पड़ती नज़र आ रही हैं। शायद तभी एक नेक काज के लिए आपकी सीख और विचारों की विरासत को आगे ले जाने के लिए गठित हो रहे फाउंडेशन में सहभागिता ना के बराबर हो रही है।

प्रिया बाबा, 

आपको जानकर शायद आश्चर्य होगा कि आपके एक फोन कॉल पर इकट्ठा हो जाने वाले आपके धुरंधर रिपोटर्स से लेकर एडिटर्स शिष्यों तक सभी की व्यस्तताएं इतनी ज्यादा हो गई हैं कि उन्हें अब सब भूल गया है। उन्हें भूल गया है कि उनके 'अन रिसीव्ड' फोन कॉल्स तक का जवाब देना आप कभी नहीं भूले। मुझे याद है माध्यम में आपके साथ बीते दो साल का एक-एक दिन, जब आप कई बार केबिन में देर रात तक बैठकर सिर्फ 'अन रिसीव्ड' फोन कॉल्स को जवाब देने में लगे रहते थे। घर से फोन आ रहा होता था, लेकिन आपको विद्यार्थियों की फिक्र होती कि फलां-फलां की ग्रुप एडिटर से नहीं बनती, फलाने को दिल्ली मीडिया में एंट्री चाहिए, फलाने का इंटरव्यू शेड्यूल था। सबको फोन पर ही कोई न कोई मंत्र देकर आप सभी की दुविधाएं हर लेते थे। मगर यहां आलम यह है कि हम लोग आपके नाम से बनने जा रही संस्था को लेकर ही दुविधा में हैं।

प्रिय बाबा, 

मुझे बड़े शर्म के साथ कहना पड़ रहा है कि हम अपनी निजी दुविधाओं और परेशानियों को एक किनारे रखकर आपके विचारों को आगे ले जाने के लिए एकजुट होकर साथ खड़े नहीं हो पा रहे हैं। शायद तभी आपके नाम से बनने जा रहे फाउंडेशन को लेकर बना एक गूगल फीडबैक फार्म भी अब तक न के बराबर छात्रों ने भरा है। इतना ही नहीं आपकी अनुपस्थिति में आपके सिखाए एकता के पाठ का सबक हम सब धीरे-धीरे भूलने लगे हैं। मैं उम्मीद करता हूं कि मेरा लिखा एक-एक शब्द झूठा हो जाए। मुझे आशा है कि इसे पढ़कर हम सभी के हृदय थोड़ी करुणा और प्रेम से भर सकेंगे कि हम आपके विचारों के।लिए एकजुट होकर खड़े हो सकेंगे।


प्रिय बाबा,

मैं यह कहते हुए आत्मग्लानि और झिझक महसूस कर रहा हूं कि आपके सिखाए एकता के पाठ को हम सब धीरे-धीरे भूलने लगे हैं। आलम यह है कि प्रेम की जिस माला में आपने हमें मोतियों की तरह पिरोया था। अब वो माला धीरे-धीरे टूट रही है और मोती बिखर गए हैं। आप एक ' वटवृक्ष ' की तरह हम सबको अपने स्नेह की छांव में बांधे रखते थे। लेकिन अब आपके नाम से बनने वाले स्मृति फाउंडेशन में सभी विद्यार्थियों का योगदान बढ़-चढ़कर दिखाई नहीं देता है। हमारे कुछ वरिष्ठ साथियों ने आपके मूल सिद्धांत और विचार को जिंदा रखने के उद्देश्य से एक स्मृति फाउंडेशन बनाने का संकल्प लिया। आपकी जाने के लगभग 2 वर्ष बाद भी अभी यह कार्य मूर्त रूप में परणित नहीं हो सका है। 


प्रिय बाबा, 

आप जहां भी हों। मेरी इस चिट्ठी को मेरे अग्रेजों के शिकायती पत्र की तरह नहीं, बल्कि आत्मबोध और समालोचना की दृष्टि से देखिएगा। मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है। सबके अपने-अपने मत और मनसूबे हैं। अपनी-अपनी जिंदगियों की उलझनों में सब इतने उलझे हैं कि अपने पेशेवर जीवन को गढ़ने वाले गुरु के लिए सार्थक करने का समय नहीं निकाल पा रहे हैं।संभवत हम सब आपका विद्यार्थी होने का दायित्व भूलते जा रहे हैं। आपके सशरीर रहते हुए हम सब प्रेम की जिस लड़ी में एक माला की तरह आपके गले का हार थे। वो माला अब आपके श्री चरणों में समर्पित करने के लायक नहीं बची है। इसलिए मैं हम सब विद्यार्थियों की ओर से आपसे क्षमा चाहता हूं कि हमारे पास आपके लिए समय नहीं है ! हां बाबा हमारे पास आपके लिए समय नहीं है! हमारे पास उसे गुरु के लिए समय नहीं है, जिसने अपना जीवन विद्यार्थियों के लिए ज्यादा जिया। हमारे पास उसे गुरु के लिए समय नहीं है, जिसने सिर्फ विद्यार्थियों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए अपने रात-दिन एक कर दिए। हमारे पास उसे गुरु के लिए समय नहीं है, जिसने विद्यार्थियों को ही सदा परिवार समझा। हमारे पास उसे गुरु के लिए समय नहीं है, जिसने हमारे निजी, पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक हर तरह के जीवन से जुड़ी हर तरह की समस्याओं के लिए अपनी समस्याओं को दरकिनार कर दिया। हमारे पास उसे गुरु के लिए समय नहीं है, जिसका सारा का सारा समय ही केवल और केवल विद्यार्थियों के लिए होता था।

प्रिय बाबा, 

मैं यह कहते हुए बहुत शर्म महसूस कर रहा हूं कि हम सब आपके एक विचार को जिंदा रखने के लिए उसे स्नेह की डोर से नहीं बांधे रह पा रहे हैं, जो आपके सशरीर रहते हुए हमें बांधे रखती थी। संभवत : होना तो यह चाहिए था कि हमारी एकजुटता में थोड़ी और बढ़ोतरी होती। हम सब हर चीज को दरकिनार करते हुए आपके विचार और परिकल्पनाओं की विरासत को संभालने के लिए एक साथ खड़े होते। आपके नाम से बनने वाला यह फाउंडेशन जो कुछ वरिष्ठ साथियों की सूझबूझ और सोच से आपके विचार को जिंदा रखने के लिए बनाया जा रहा है, उसमें सहभागिता ना करना मुझे काफी हद तक कुछ इसी तरह से दिखाई दे रहा है। मैं हम सभी नक्कारे विद्यार्थियों की ओर से आपसे क्षमा मांगता हूं कि हम आपके एक विचार को जिंदा रखने के लिए एक साथ खड़े नहीं हो पा रहे हैं। हमारी जाती जिंदगियां और निजी कामकाज आपके विचार पर हावी हैं। मैं आपको शायद फिर कभी लिखूंगा कि हम सब के विचारों में एकरूपता क्यों नहीं आ सकी है। यह चिट्ठी आप तक पहुंचे ना पहुंचे, परंतु सभी विद्यार्थियों तक जरूर पहुंचेगी। मुझे उम्मीद है कि आप जहां भी होंगे, अपनी मुस्कुराहटें बिखेर रहे होंगे। उन मुट्ठी भर लोगों को भी आप
'अपन कर लेंगे, कोई नहीं हो जाएगा' यही नसीहत दे रहे होंगे। शायद इसीलिए आपके चंद विद्यार्थी अपने कदम आगे बढ़ा रहे हैं। क्योंकि मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल, लोग आते गए कारवां बनता गया। बाबा आपसे क्षमा सहित आपसे जुड़े हर शख्स को मैं अपना-अपना योगदान ' पीपी सिंह स्मृति फाउंडेशन की स्थापना' हेतु देने के लिए आह्वान करता हूं।

 
- आपका एक विद्यार्थी

@ दीपक गौतम

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