मेरी आवारगी

आवारा की डायरी - 3 कड़ी में पढ़िए :-रिश्ते का मैलापन इश्किया बारिश में धुलकर वो आगे बढ़ गए थे।

आवारा की डायरी - 3 कड़ी में पढ़िए :-

रिश्ते का मैलापन इश्किया बारिश में धुलकर वो आगे बढ़ गए थे।

अनन्या के हाथ ने जैसे ही अनन्य को छुआ उसे अपने जीवन के पहले प्रेम प्रसंग की याद आ गई थी, जिसे उसने जवानी की दहलीज में कदम रखते ही पाया था। गाँव की गलियों में मिली उस महबूबा से अनन्य ने अनन्या के लिए संबंध भले तोड़ लिए हों, लेकिन उस बिरहन की आह नश्तर की तरह अनन्य के सीने में चुभ रही थी।

संजना से ठीक दो साल पहले वह यही कहकर अलग हुआ था कि मैं तुमसे शादी नहीं कर सकता हूं। तब वो कितना रोई गिड़गिड़ाई थी, लेकिन अनन्य ने उसकी चीख पुकार को अनसुना कर दिया। करीब दो साल पहले यूँ ही हाथ पकड़कर लगभग घसीटते हुए संजना ने अनन्य से अपने आखिरी शब्द कहे थे। जो आज भी अनन्य के कानों में सोते जागते- गूंज रहे थे। उसने कहा था कि "जिस लड़की के लिए तुम मुझे छोड़ रहे हो एक दिन वो तुम्हें छोड़कर चली जाएगी। तुम्हें लौटकर मेरे पास ही आना है। मैं तुम्हारा इंतजार करूंगी।"

अनन्य के मन में अनन्या के स्पर्श मात्र से संजना और उसके आखिरी शब्द गाँव वाली मस्जिद की अजान की तरह गूंज रहे थे। अब वो विचारों के द्वंद में कहीं खोया था। गोया कि उसके कानों में बस वही एक आवाज गूंज रही थी "वो तुम्हें छोड़कर चली जाएगी...वो तुम्हें छोड़कर चली जाएगी"। अचानक उसे अपने बाएं हाथ में करंट सा झटका महसूस हुआ और वो भूतकाल से सीधा वर्तमान में आ गिरा। अनन्या ने बड़ी जोर से उसका दाहिना हाथ झटकारते हुए कहा "अरे यार जब तुम मेरे साथ रहो तो बस यहीं रहो, अब खड़े- खड़े क्या सोचने लगे, चलो न बाबा, बड़ी देर हो रही है। "

अनन्य ने कहा, तुम्हें पता है जानेमन प्रेमिकाओं का स्पर्श बड़ा जादुई होता है। वो झट से एक लोक से दूसरे लोक में पहुंचा देता है। अनन्या ने हंसते हुए कहा तो बताओ मुझे अभी कौन से लोक से होकर आ रहे हो। कुछ नहीं गाँव की गलियों से होकर आ रहा हूं, वहां खो गया प्यार तुम्हारी आंखों में खोज रहा हूं। अनन्या को समझते हुए देर न लगी कि वो संजना की बात कर रहा है, क्योंकि अनन्य ने उसके बारे में पहले ही उसे सब बता दिया था। दोनों साथ-साथ मनुआभान की टेकरी में बने जैन मंदिर की ओर कदम बढ़ा रहे थे, तभी अनन्या के कहा कि तुम कभी यहां आए हो। अनन्य ने कहा नहीं, ये पहली बार है। तुम्हारे साथ ही आ रहा हूं। सारा वक्त तो कॉलेज में तुम्हारे साथ बीता। आधा भोपाल तुम्हारे साथ ही नापा और आधा दोस्तों के साथ, क्योंकि असल में दोस्तों से चुराया गया समय ही प्रेमिकाओं का होता है।

अनन्या ने कहा दो साल में कुछ ज्यादा बड़ी-बड़ी बातें नहीं करने लगे हो। बड़ा साहित्यिक जवाब दे रहे हो। ये बाल बड़े करके ज्यादा हीरो मत बनो। कुछ दिन और फिर सब कटवा दूंगी। यहां भी मेरे साथ आकर भी उस गाँव की गंवार को याद कर रहे हो। इतने समय मुझसे दूर रहकर भी तुम्हें समझ में नहीं आया कि तुमको किसके साथ जीवन भर रहना है। मकरंद सर ने तो मुझसे कहा था कि तुम बहुत बेताब हो मुझसे मिलने के लिए और अब तक का सब भूलकर मेरे साथ जिंदगी में आगे बढ़ना चाहते हो।

अनन्या ये सब कहते हुए बड़बड़ाए जा रही थी और अनन्य अपने मौन को साध रहा था। उसे मकरंद सर ने समझाया था कि यदि अनन्या को अपनी जिंदगी में वापस चाहते हो, तो उसके गुस्से को बारिश का पानी समझकर अपने मन की जमीन में सोख लेना। जैसे अब तक सोखते चले आए हो। शायद इसीलिए उसने अभी कोई प्रतिक्रिया देना उचित नहीं समझा था। मकरंद सर उन दोनों के यूनिवर्सिटी के एक बैच सीनियर थे, जिन्होंने दोनों का पैचअप करवाने की पहल खुद ही की थी। इसी पहल के बाद आपसी बातचीत और सहमति से दोनों ने मनुआभान की टेकरी पर मिलना तय किया था।

अब तक दोनों साथ चलते हुए बातें करते जैन मंदिर की सीढ़ियों तक पहुंच गए थे। अनन्य ने कहा, देवी हम मंदिर के प्रांगण में प्रवेश कर चुके हैं, क्या आप वार्तालाप को विराम दे सकती हैं ? कभी-कभी वो शुद्ध हिंदी में यूं ही बातें करके अनन्या को हंसाने का शगल करता था। ये उसकी पुरानी आदत थी। ये सुनते ही अनन्या के चेहरे पर एक छोटी सी मुस्कान खिल गई। अब दोनों "लव बर्ड्स" मंदिर के गर्भ गृह में खड़े थे।

मनुआभान की टेकरी का सुरम्य वातावरण और भोपाल की हरियाली भरी फिजा से छनकर आ रही ठंडी बयार के बीच जैन मंदिर का एकांत उन्हें शांति महसूस करा रहा था। जैन तीर्थांकरों और मुनियों को समर्पित उस मंदिर के गर्भ गृह से निकलते ही अनन्य बोला अब आगे की क्या योजना है सखी आदेश करें। मैं आपके आदेश की प्रतीक्षा में हूं।

लगभग उसी अंदाज में जवाब देने हुए अनन्या बोली, हम मंदिर के पीछे वाले हिस्से में चलकर बैठेंगे प्राणनाथ। वहीं आपसे शेष वार्तालाप होगा।
नहीं सखी, मैं अब तुमसे वार्तालाप का इच्छुक नहीं हूं। मुझे इस एकांत में सिवाय तुम्हारे अधरों के कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। अतएव शीघ्र-अतिशीघ्र तुम्हें मेरा प्रणय निवेदन स्वीकार करते हुए चुंबनों की बौछार करनी होगी। अनन्या ने अनन्य के लंबे बालों को पकड़़कर खींचते हुए कहा, नहीं प्राणनाथ यह एकांत आपके प्रणय निवेदन को स्वीकरने हेतु नहीं अपितु वार्तालाप के लिए मिला है। इसलिए आप अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखें।

"लब बर्डस" की बातचीत का यह अंदाज शायद आगे चलकर होने वाली गंभीर चर्चा के पहले की भूमिका मात्र था। वो दोनों एक-दूसरे को थोड़ा सहज करने में लगे हुए थे, ताकि अपने-अपने मन की बात वो खुलकर कर सकें। मंदिर के पीछे टेकरी के आखिरी छोर पर पहाड़ के सीने में धंसी एक चट्टान की ओर इशारा करते हुए अनन्या बोली वहां बैठते हैं। अनन्य ने बिना कुछ बोले टेकरी के दूसरे छोर पर दिख रहे एक छोटे से पेड़ की ओर चला गया। जैसे-जैसे वह आगे कदम बढ़ा रहा था, उसे टेकरी में इधर-उधर बेतरतीब पड़ी चट्टानों की ओट में छिपे कुछ प्रेमी जोडे़ प्रेमालाप में मग्न दिखाई दे रहे थे। सबसे मजे की बात तो यह थी कि उसे देखकर वहां कोई असहज भी नहीं हो रहा था। जैसे भोपाल में उन दिनों यह खुलकर होने वाला कोई नवाचार हो। प्रेमी जोड़ों की गलबहियां देखकर अनन्य बाइक की तरह थर्ड गियर लगाकर अनन्या की तरफ भागा।

वो एकदम मुस्कराते हुए बोली क्यों तुम्हें तो चुंबनों का अंबार चाहिए था, अब देखो गले लगे हुए प्रेमी युगल तक बर्दास्त नहीं हो रहे हैं। अनन्य ने थोड़ा एतराज जताते बोला, ओ मैडम मुझे कोई प्राब्लम नहीं हैै। ये सब नए-नए लौंडे हैं और इनका इशक किसी मुकाम तक नहीं पहुंचने वाला है ! आप खुद ही देखो ये अभी से ही छिछोरेपन में लगे हुए हैं। सब साले काॅलेजी लौंडे हैं। तुम मुझे टेकरी का मंदिर बोलकर ये कहां ले आई हो यार। इससे तो बेहतर होता कि हम कहीं बड़ी झील किनारे या इंडियन कैफे हाउस में मिल लेते। धूप अलग तेज हो रखी है।

अनन्य का बस इतना बोला ही था कि अनन्या ने हौले से उसके होठों पर होंठ रखकर उसका मुंह बंद कर दिया। अनन्य एक पल के लिए कुछ समझ ही नहीं पाया, क्योंकि ये चुंबन नहीं बिजली की गति से होठों को होठों से दिया जाने वाला स्पर्श मात्र था। उसने खुद को सहज करते हुए बोला चलो यहां से मुझे यहां नहीं बैठना है।

अनन्या उसकी बांह पकड़़ते हुए उसे घसीटकर वहीं उस चट्टान तक ले गई, जिसकी ओर कुछ देर पहले उसने इशारा किया था। टेकरी के उस छोर पर पहुंचकर अनन्य ने भोपाल का नजारा देखते ही कहा ये हुई न बात। यहां से तो भोपाल कितना खूबसूरत दिख रहा है। तुम्हें पहले ही मुझे यहां तक ले आना चाहिए था जानेमन। अब मैं यहां तुम्हारे चुंबनों की और प्रतीक्षा नहीं कर सकता हूं।

अनन्या ने चट्टान की परछाईं से बन रही छाया पर अपनी तशरीफ रखते हुए अनन्य को भी बांह खींचकर बैठाया और बोली कि अभी थोड़ी देरे पहले तो तुम जजमेंटल हो रहे थे। उन प्रेमियों को कैरेक्टर सर्टिफिकेट बांट रहे थे। अरे हां, क्या कहा था तुमने कि छिछोरापन कर रहे हैं, सब काॅलेजी लौंडे हैं। फिर तुम क्यों कर रहे हो ये छिछोरापन ?

अनन्य तो जैसे टेकरी से भोपाल को देखकर मंत्रमुग्ध होकर बेसुध सा खड़ा था। दो पल रुकने के बाद दिमाग पर जोर डालते हुए बोला मैं तो बस प्रेम चाहता हूं न जानेमन। वो साले सब हवसी हैं। तुम तो जानती हो कि मैं उन्नीसवीं सदी में पैदा हुआ गांव का देशी बंदा हूं। मैं अब तक ज्यादा आधुनिक नहीं हो पाया हूं। भले ही मैं बीसवीं सदी में प्रवेश कर गया हूं, लेकिन ये बीसवीं सदी और "यो यो हनी सिंह वाली ये पीढ़ी" मेरे अंदर नहीं घुस पाई है। खासकर इसकी कुछ चीजें तो मेरे अंदर अब तक जगह नहीं बना पाई हैं। रही चुंबन की बात तो अपनी भावी धर्मपत्नी से पप्पियाँ और झप्पियां मांगना कोई गुनाह है क्या ?

अनन्या ने शादी को लेकर अनन्य का इरादा इतना पक्का होने की बात सुनते ही अच्छा अवसर समझते हुए तपाक से बोला, क्या तुमने मुझे माफ कर दिया अनन्य। हम कब शादी करेंगे ? वो अचानक से कुछ ज्यादा ही गंभीर हो रही थी। इसे भांपते हुए फिर उसने झट से बात पलटते हुए कहा, क्यों है न खूबसूरत जगह ? मैं यहां पहले मोनल दीदी और जेके भैया के साथ आई हूं। उन लोगों का पैचअप भी यहीं हुआ था। तुम्हें याद होगा वो मेरी रूमी पंक्ति जैन है ना, उसी ने मुझे ये जगह सजेस्ट की थी। तुम कुछ बोलोगे या मौनी बाबा बने रहोगे?

मैं भोपाली फिजा की शांति को पी रहा हूं यह कहते हुए अनन्य उसकी गोद को तकिया बनाकर पथरीली जमीन की चादर पर वहीं ढेर हो गया था। अब वो अनन्या की आंखों में खुद को खोज रहा था। उसके मन में हजार सवाल थे। कहने को ना जाने कितनी बातें थी, मगर हिम्मत नहीं कर पा रहा था कि कहां से शुरुआत करे। उसने सिर्फ एक ही सवाल पूछा कि हमारे बीच किसी तीसरे की जगह थी क्या ? आखिर तुमने मोहित के लिए मुझे क्यों छोड़ दिया ?

इससे पहले की अनन्या कुछ कह पाती उसकी आंखों से झरते आंसू अनन्य के माथे को चूम रहे थे। रुंधे हुए गले से उसने कहा, वो मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल थी। लेकिन तुम जैसा सोच रहे हो वैसा कुछ मेरे और मोहित के बीच नहीं था। वो बस मेरा सबसे फेवरेट जूनियर है इससे ज्यादा और कुछ नहीं। फिर भी तुम्हें जो महसूस हुआ है, उसमें कुछ हद तक सच्चाई है। मैं इसके लिए दिल से तुमसे माफी मांगना चाहती हूं। अब मैं तुम्हारे सिवाय किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकती। मुझे तुम्हारे साथ नई शुरुआत करनी है। हम जल्द से जल्द शादी करेंगे। बस तुम अपने करियर को लेकर थोड़ा सीरियस हो जाओ। अखबार बदलो या शहर बदलो ! कुछ ऐसा करो कि अच्छी सैलरी पर पहुंचो, ताकि सालभर के अंदर हम शादी की प्लानिंग को आगे ले जा सकें। मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूं कि अब से मोहित के साथ मेरा कोई ताल्लुक नहीं रहेगा। मैं तुम्हें उसके साथ कहीं भी दिखाई नहीं दूंगी।

अनन्या कि बातें सुनते ही अनन्य का दिल जोरों से धड़क रहा था। अब दोपहर के 12 बज रहे थे। धूप तेज हो चली थी। यह देखते हुए अनन्या ने किसी फिल्मी हीरोइन की तरह अपनी जुल्फों के चिलमन से अनन्य के चेहरे पर पड़ रही धूप को रोक रखा था। अनन्य बातें करते हुए कभी उसके गाल पर अपनी उंगलियां फिरा रहा था, तो कभी उसकी जुल्फों से खेल रहा था। 14 जून 2010 की ये सुबह अनन्य के लिए एक नया सवेरा था। वो अनन्या के जवाब से संतुष्ट तो नहीं था, लेकिन अपने इस रिश्ते के बहीखाते का पिछला दो सालों का हिसाब ' कंट्रोल ऑल्ट शिफ्ट' दबाकर कंप्यूटर पर लिखे टेक्स्ट की तरह 'डिलीट' मारना चाहता था। उसने अनन्या की आंखों में देखते हुए अपने बाहों का हार उसके गले में डाल दिया था। अब वो जो कहने जा रहा था, वो बस उसकी आत्मा की आवाज थी। उसने अनन्या के चेहरे को अपने करीब लाते हुए उसके माथे को चूमकर कहा, मैं नहीं जानता कि तुम्हारे मन में इस वक्त क्या चल रहा है? तुम्हारा उस मोहित के साथ क्या रिश्ता है ? तुमने बीते 2 साल मुझसे मुंह क्यों मोड़ रखा था ? मैं बस मकरंद सर के कहने पर हमारे रिश्ते को एक आखिरी मौका देना चाहता हूं, ताकि मेरे अंदर कोई कसक न रहे कि मैंने इसे बचाने की कोई कोशिश नहीं की। तुम बस मेरी एक बात याद रखना मेरी जान कि अब मेरे दिल की गलियों में तुम्हारा ये तीसरी और आखिरी बार आगमन है। बीते चार सालों में तुमने दो बार मुझे अलग होने पर मजबूर किया है। मेरा आत्मसम्मान और स्वाभिमान इश्क के आगे हमेशा फीका पड़ गया है। ना जाने क्या है कि तुम्हारे साथ मुझे जो महसूस होता है, तुमसे अलग होकर जिस कदर मैं बेचैन हो जाता हूं, तुम्हारे बिना मेरी जो हालत होती है। ये सब मुझे कभी भी संजना से दूर रहकर भी महसूस नहीं हुआ। शायद इसीलिए मैंने उसे छोड़ते हुए जरा सी झिझक भी महसूस नहीं की। उसके आंसु मुझे फरेबी लग रहे थे, लेकिन संजना मुझसे अलग होकर भी अलग नहीं हो सकी है। मेरी हजार खामियों के बाद भी जिस तरह वो मेरे लिए बावरी है, ठीक वैसा ही मैं तुम्हारे लिए बावरा हो रखा हूं। ना जाने क्यों तुम जो कह रही हो उस पर मुझे यकीन तो नहीं हो रहा है, लेकिन तुम्हारी हजार गलतियां भी अभी इस वक्त माफ करने का दिल हो रहा है।

यह कहते हुए अनन्य ने अपनी बाहों के हार से अनन्या का चेहरा अपने इतने करीब कर लिया कि उन दोनों की सांसें एक-दूसरे को हवा दे रही थीं। अब दो जोड़ा आँखें एक-दूसरे को अपलक निहार रही थीं और उनकी कोरों से प्रेम का गंगाजल बरस रहा था। अब दो जोड़ा अधरों ने आलिंगन पा लिया था। वो प्रेम की चाशनी से शहद को निचोड़ रहे थे। मानो इस माधुर्य में बीते सालों की सारी कड़वाहट कहीं गहरे दफन हो गई हो। अब शब्दों से नहीं अधरों के आलिंगन से माफियां कुबूल हो रही थीं। प्रेम अपनी चुप्पियों को तोड़कर मुखर हो रहा था, वो चुंबन से होकर इस एकांत में फिर मौन तक पहुंच रहा था।

"लव बर्ड्स" खुद को साझा करने में इतना मशगूल हो गए थे कि घड़ी की सुईयों पर उनकी नज़र तक नहीं पड़ी थी। अब तक मनुआभान की टेकरी में मध्यम रफ्तार से लुढ़कता हुआ दिन दोपहर के ठीक एक बजा रहा था। अचानक भोपाल के मौसम ने करवट बदल ली थी। जून की तपने वाली दोपहर से धूप गायब हो गई थी। बादल गहरा गए थे। मानो वो भी अब ' लव बर्ड्स ' के इस मिलन पर झूमकर बरसने को आमादा हों और अपनी खुशी का इज़हार कर रहे हों। आसमान से धीरे-धीरे बूंदें टपकने लगी थीं।

" लव बर्ड्स " बारिश की बूंदें पड़ते ही आलिंगन से मुक्त हो गए थे। उन्हें अहसास हुआ कि बारिश तेज हो सकती है। अनन्या ने आसमान की तरफ ताकते हुए कहा, मानसून आ गया है। खबरों में भी था कि 14 से 16 जून के बीच दस्तक देगा। हमें यहां से निकलना चाहिए। दोनों उठकर खड़े हो गए थे। साथ - साथ कदम बढ़ाते हुए वो अब आसमान से बरस रही इश्किया बूंदों में भीग रहे थे। अनन्या की आंखों से लुढ़क रहे संताप और खुशी के आँसू बारिश में धुल गए थे। वो दोनों अपने रिश्ते का मैलापन इसी बारिश में धुलकर शाश्वत प्रेम की श्वेत चादर ओढ़कर मनुआभान की टेकरी से निकल रहे थे...।

© दीपक गौतम
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- क्रमशः जारी। आगे पढ़िए "आवारा की डायरी" - 4 कड़ी में।
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नोट : यह 'आवारा की डायरी' नामक अप्रकाशित उस पुस्तक के स्मृति शेष अंश हैं, जिसकी पांडुलिपि तकनीकी खामियों से सालों पहले लैपटॉप से उड़ गई। अब स्मृतियों के जखीरे से यादों को कुरेद- कुरेदकर कड़ी दर कड़ी उसे फिर से जीवित करने का यह प्रयास मात्र है। इसे किसी साहित्यिक कृति का दर्जा नहीं दिया जा सकता ok i है। क्योंकि 'आवारा की डायरी' अब स्मृति कथा ही शेष रह गई है। उसका मूल स्वरूप कहीं खो गया है।
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