मेरी आवारगी

कबूतर के सहारे बतकही


दाना चुगने में व्यस्त कबूतर
ये रोज आते हैं यहाँ
हरकत हुई तो फुर्र होने लगे
वो रोज आते हैं इस छत पर, बस इसी उम्मीद से दाना-पानी की कुछ व्यवस्था हो जाएगी। औरंगाबाद में किराए की इस छत पर कबूतरों को देखते-देखते बस एक दिन यही सोच रहा था कि उम्मीद कितना कुछ कराती है हमसे। ये हमारी नेक दिल मकान मालकिन का शगल है, जिसे अब हम भी आजमाने लगे हैं। वो रोजाना सुबह कबूतरों के लिए दाना डाल कर चली जाती थीं, जब से इस नए कमरे में आया हूं ये देख रहा हूं। हालांकि उनके पीने के पानी के लिए रखे बर्तनों में पानी का इंतजाम करना अपना जिम्मा है, जो दिया नहीं गया बस हमने ले लिया और जब भी छत पर दाने नहीं होते अपन कुछ न कुछ छीट ही देते हैं।

न जाने बीते सात सालों में ऐसे कितने किराए के घर बदल दिए, मगर ये पहला घर है जहां गौरैया से लेकर तोता, गिलहरी सहित कबूतर और तरह-तरह के पंछी शायद मैं जिनके नाम भी नहीं जानता सुबह-शाम-दोपहर अपनी भूख-प्यास को मिटाने खिचे चले आते हैं। शुरुआत में तो बड़ा अजीब लगता था, क्योंकि उन दिनों बारिश का मौसम था। मकान मालकिन के फैलाए मूंगफली, मक्का, गेहूं और तमाम अनाज के दानों से छत के पाइप चोक हो जाते थे और बारिश में कई बार कमरे के अंदर पानी भर जाता था। रात में दफ्तर से लौट कर आते और  बारिश में पाइपों से मूंगफली और मक्का के दाने साफ करते। फिर अगले दिन से पूरा बिस्तर और नीचे रखा सामान सुखाने की मशक्कत।

बारिश बीती और एक दिन सहसा सुबह जागा धीरे से खिड़की का नजारा देखा तो पंछियों का कारवां अपनी भूख का शिकार कर रहा था। वो जितनी रातें उनके दानों के चक्कर में गीले बिस्तर पर बीतीं या चंद परेशानियों में, सबका मामूली गुस्सा काफूर हो गया। उन्हें देखकर ऐसा लगा मानो जिंदगी तो यही है। न कोई अपना दयार है न भूख की फिकर और न आशियाना बनाने की। जी आए जहां उड़ चलो सारा आकाश अपना और जमीन अपनी। कोई पराया नहीं और हम किसी के नहीं। उन कबूतरों और पंछियों को देखिए एक उम्मीद के सहारे न जाने कितना आकाश नापकर इस छत पर रोज दाना चुगने आते हैं, पानी पीते हैं और फुर्र हो जाते हैं। कभी शाम को कमरे में ठहरा तो ये नजारा देखना नहीं भूलता। उनकी खानाबदोश जिंदगी देखकर बस एक ही बात समझ सका हूं कि उम्मीद और बेफि क्री के साथ दिमाग और दिल में यकीन के रेशे जब तक जिंदा रहेंगे जिंदगी कितनी भी तकलीफ दे आप पार कर सकते हैं।
ऐसा कई बार हुआ जब मैं भी दाना नहीं डाल पाया और आंटी ने भी किसी-किसी दिन पंछियों को निराश कर दिया हो या फिर मैं और पाठक सर उस बर्तन में पानी भरना भूल गए। मगर वो आते हैं, रोज आते हैं हमारी छत के मुंडेर पर बैठकर शोर मचाते हैं। वो अपना हक समझते हैं शायद उस दाना-पानी पर। अगर उनकी आवाज अनसुनी हो जाती है तो खुली खिड़कियों से कमरों के अंदर आने से भी परहेज नहीं करते क्योंकि उनकी उम्मीद बेदम नहीं उनका यकीन बेबस नहीं और उनकी बेफिक्री में जिंदगी जीने का हुनर है। शायद वो निराश लौटते भी हों इस छत से मगर नाउम्मीद नहीं। मुझे उनके खाने-जीने की बेफिक्री का ये अंदाज निराला लगता है और उनकी खानाबदोशी तो शायद दिल में घर कर गई है। ऐसे में ये कहना ही पड़ जाता है कि इतनी बेफिक्री के साथ जीने का ये सलीका काश आ जाए.... काश पंछियों सा उड़ना आ जाए ....जरा सा सब्र खत्म हो जाए और मैं भी बेफिक्र हो जाऊं....काश....!!

Post a Comment

0 Comments