मेरी आवारगी

ये प्यार कहीं और नहीं मिला

 फरवरी 2014  का एक सबसे उम्दा पल 
भोपाल की सड़कों  रात 12  के बाद एम पी नगर चौराहा
7  फरवरी 2014  की रात का सबसे खूबसूरत पल

बाबा के बारे में लिखना चाह रहा हूूं तो लग रहा रहा कहां से इसकी शुरुआत करूं। जीवन के 22 बसंत बिताकर जब 2007 में माखन लाल चर्तुवेदी राष्ट्रीय  पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल में दाखिला लिया तो पहली बार उसी रोज एक घंटे का भाषण बाबा से सुनने को मिला। प्रेस कॉम्पलेक्स की इस नई इमारत में तब पहली बार कक्षाएं लगने जा रही थीं। खचाखच भरे एक हाल में पत्रकारिता करने का सपना लेकर आए हजारों छोरों के बीच मैं भी बैठा था। एक घंटे के बेहद गरिष्ट ज्ञान के बाद जब अंतिम साक्षात्कार के लिए जाने को हुआ तो पत्रकारिता विभाग में पुष्पेंद्र पाल सिंह (बाबा) को दूसरी बार देखने को मौका मिला। शुरुआत में उनके भारी-भरकम व्यक्तित्व को देखकर लगा कि काफी सख्त मानव जान पड़ते हैं और उनकी हालिया अमरीका यात्रा का भी भौकाल दिमाग में ऐसा छाया था कि मैं तो डर ही गया।
पढ़ाई के वक्त की एक याद  
फिलहाल अपना नंबर आया और साक्षात्कार प्रारंभ हुआ। राखी मैम,  चौरे सर, द वीक वाले दीपक तिवारी जी और बाबा इतने लोग उस पैनल में थे। अंदर दाखिल हुआ तो सवाल पर सवाल हुए मैं बार-बार बाबा को चुपके से देख लेता था। चौरे सर को तो देखते ही लगा कि इनसे अपनी शायद कभी न पटेगी अगर यहां दाखिला मिल गया तो। सतना में जातिवाद की जड़ों से लेकर देश की राजनीति तक जो बन सका जवाब देता गया। अब था आखिरी सवाल पत्रकारिता क्यों करना चाहते हो जो बाबा ने बम की तरह धड़ाम से दे मारा था। मैं भी इसका जवाब सोचकर ही आया था मैने कहा जी मुझे लगता है इसके अलावा कुछ और कर ही नहीं सकता, बचपन से लिखने की आदत रही है बस इसीलिए करना चाहता हूं। उन्होंने तपाक से कहा ऐसा क्या लिखा है तुमने जरा हम लोगों को भी सुनाओ अगर कुछ याद हो तो.... मैने कहा दूसरे लोगों की तरह कोई आर्टिकल तो नहीं छपे कि दिखा सकूं। न ही किसी तरह की कोई कतरनें ही पास हैं बस कविताएं लिखता रहता हूं वो सुना सकता हूं क्या? तब पैनल के सारे लोग एक साथ बोले हां सुनाओ। फिर क्या था गुरु अपने तो मन का हो गया। हम शुरू हो गए पंचम स्वर में आंखें बंद करके ‘आतंक का ये जलजला, कब तक चलेगा यूं भला ’ वाली अपनी कविता का पाठ करने को। उस दस मिनट अपने को कुछ पता नहीं किसके चेहरे के क्या भाव रहे, मगर कविता खत्म होते ही जब आंख खुली तो सबने खड़े होकर कविता को सम्मान दिया और कहा ''शाबाश, एक बार फिर अपना नाम बताओ,,,,अब तुम बाहर जा सकते हो''। बाबा से ये तीसरी मुलाकात थी।
उसके बाद जब साक्षात्कार वाले कमरे से मैं बाहर आया तो पापा को सब हाल बताया तो वो बोले चल अंतिम 30 में तेरा चयन अब हो गया लगता है।  इसके बाद अपना चयन हुआ और माखनलाल विश्वविद्यालय के साथ पत्रकारिता विभाग से धीरे-धीरे रूबरू हुए। विश्वविद्यालय क्या वो तो घर था घर। अपना दूसरा घर जहां सीनियर बड़े भाई थे और बाबा अपने मां-बाप दोनों। मैं हतप्रभ था बस एक ऐसे शिक्षक को देखकर जो सुबह के 9 बजे से रात के 11 बजे तक अपने छात्रों के बीच रहता था। इतना ज्यादा वक्त और प्यार देते हुए न तो अब तक मैंने किसी और शिक्षक को देखा था न ही जिंदगी में बाबा के अलावा किसी और को अब तक देख पाया हूं। हमारे खाने-सोने, उठने-बैठने, पढ़ने-लिखने की दिनचर्या से लेकर हर तरह की समस्याओं तक  वह न केवल साथ होते थे, बल्कि भरपूर मदद भी करते थे।
बाबा के साथ कई दिनों बाद धूम धाम से मना अपना जन्म दिन 
पहले सेमेस्टर के दूसरे इंटरनल पेपर शुरू होने वाले थे और शाम में घर से फोन आया कि मां का एक्सीडेंट हो गया है, उन्हें सतना से जबलपुर लाया जा रहा है इलाज के लिए तुम आ जाओ। रात को 11 बज रहे थे रोते-रोते मगर बेहिचक मैंने बाबा को फोन किया और उनको बताया कि मां को सिर पर काफी चोट आई है, शायद उनका आॅपरेशन करना पड़े।  उधर से बाबा ने बिना सांस लिए बोलना शुरू किया ''बोले परेशान मत हो कुछ और जरूरत हो तो बताना और तुम्हारे इंटरनल फिर हो जाएंगे ऐसा क्या है। अभी रात के 12 बज रहा है फलां-फलां ट्रेन होगी मेन स्टेशन से, जहां तुम रहते हो वहां से फलां चौराहे तक बाहर आओ आॅटो मिल जाएगा, उसी से चले जाना। कुछ न मिले तो वापस फोन करो''। मैने कहा सर स्टेशन पर पहले ही पहुंच गया हूं। तब बोले पहुंचकर फोन करना जैसा भी हो। पूरे एक माह मां अस्पताल में रहीं उनके आॅपरेशन के बाद हालात सुधरते ही मैं भोपाल लौट आया, लेकिन जब तक वहां था एक भी दिन ऐसा नहीं रहा जब बाबा का फोन नहीं आया हो। मेरे लगभग सीनियर्स का फोन आता रहा। अपनी तहजीब से उन्होंने छात्रों को एक परिवार की तरह रहने की विशेष प्रणाली में ढाला है, जिसका प्रेम न कभी खत्म होता है और न ही होगा। ऐसे कई मौके उस दो साल के दौरान आए मगर उनसे मिलकर सब सही हो जाता था।
   वो हमेशा उम्मीद जगाते हैं, अब तक याद है पहली बार घर के बाहर दशहरा, दिवाली, होली और ईद सहित जन्म दिन सब मैने विश्वविद्यालय में ही मनाया। और ऐसा मनाया कि आंसू तो जमकर छलके मगर घर की याद में नहीं मुझे दूसरा घर मिल जाने की खुशी में। दिवाली को बाबा के साथ पटाखे फोड़े तो होली में पूरे भोपाल को रंगा और दशहरे में हर झांकी को निहारते हुए सारा भोपाल ताड़ा। मुझे तो अपना ठीक -ठीक जन्म दिन भी पता नहीं था, क्योंकि वास्तविक तारीख और अंकसूची की तारीख में भेद है। सीनियर्स के कहने पर मैने काफी मशक्कत से पता लगाया कि 7 फरवरी को अपन आए थे। बस फिर क्या था 6 फरवरी को रात 12 बजने तक मुझे विभाग में 'विकल्प' ( हमारा साप्ताहिक लैब जनरल ) के किसी न किसी काम से रोका गया और 12 बजते ही टोपी पहनाकर क्लास रूम में ले गए, जहां 7 फरवरी 2007 को पहली बार मैने अपने जन्म दिन का केक काटा था। वो दिन मेरे लिए अब तक के सबसे यादगार दिनों में से एक है।
   हमारे यहां जन्म दिन मनाने का रिवाज न होने से कभी सबके बीच उसे मनाने की खुशी मैं महसूस ही नहीं कर सका था, शायद इसीलिए आंसू छलक गए। आपको जानकर हैरानी हो शायद, मगर एक दिन पहले रात में जन्म दिन पर ये प्यार सीनियर्स की ओर से मिलता था और सुबह उस दिन बाबा भी केक कटवाते थे या जिनका जन्म दिन किसी कारण से रात को नहीं मन पाता वो सुबह मनाया जाता। कई लोगों के तो जन्म दिन हम लोगों ने अपने स्टडी टूर्स के दौरान यात्रा करते वक्त रास्ते में ही मनाए। ये विश्वविद्यालय, विभाग और बाबा ऐसा परिवार था जो मुझे इससे पहले कभी नहीं मिला था।
   पढ़ाई के दौरान कई स्टडी टूर हुए पचमढ़ी, चित्रकूट, बांधवगढ़, चेन्नई, भोजपुर और भोपाल का चप्पा-चप्पा मगर कभी लगा ही नहीं कि पढ़ाई-लिखाई के लिए घूम रहे हैं। बाबा को पता होता है कैसे बच्चों को घुमा-घुमाकर सिखाना है और कब कितना कैसे बताना है। जब वो नाराज होते तो 4 से 8 घंटे तक क्लास चल जाती थी, वो लगातार बोलते रहते और हम सब आंखें नीचे किए शांत सुनते रहते। मैं तो यही आश्चर्य करना था कि उनके पास न जाने इतनी ऊर्जा आती कहां से है, क्योंकि उनके खाने की भी चार रोटियों में से अक्सर तीन तो बच्चों में ही बट जाती थीं। फिर शाम को जब वो भूख महसूस करते तो कहते चलो सब नीचे चलकर पोहा खाएंगे। अहा क्या दिन थे। मुझे उस अजनबी शहर में भले ही तीन सप्ताह लग गए सही तरीके से घुलने में, मगर विश्वविद्यालय और पत्रकारिता विभाग तो तीन ही दिन में घर हो गया था।
यहां कुछ फोटो साझा कर रहा हूं पढ़ाई के दौरान हिंंदी दिवस पर लिया गया एक दुर्लभ चित्र और दूसरे दुर्लभ चित्रों में बाबा के साथ मेरे बीते जन्म दिन पर बुलट की सवारी, जो बाबा ने एक दशक से भी ज्यादा समय बाद की थी, क्योंकि वो कार चलाते हैं।

 सर अमूमन आपके जन्म दिन पर भोपाल पहुंचने का प्रयास रहता है, मगर इस बार अपरिहार्य कारणों के चलते आना संभव नहीं हो पा रहा है। सर आपको प्रणाम और दुआएं कि आपकी मुस्कान सलामत रहे। भोपाल की अमिट यादों में आप और भोपाली इश्क जो कभी खत्म ही नहीं होता, जिससे सांसें मिलती हैं और जहां रूह दफन है अपनी। आई लव यू भोपाल। 







Post a Comment

0 Comments