मेरी आवारगी

किसी स्याह सच का काला हो जाना

किसी रोज धूप में खुद की परछाईं 
बड़ा बेतुका है किसी स्याह सच का काला हो जाना
ये रोग है लोकतन्त्र का यूँ हर बात पर मैला हो जाना
सियासतें तो हर रोज नए जहर पैदा कर ही देतीं हैं,
बड़ा बेरंग है गंगा-जमुनी तहजीब का ढेर हो जाना

दंगे-फसादों से ही ओछी राजनीति परवान चढ़ती है 
ये फरेब ही तो है मौतों पर बादशाही खेल हो जाना
उन उजड़े आशियानों में और टूटी घर दुकानों में,
तकलीफ देता है गीली आँखों से मुठभेड़ हो जाना

बड़ा आसान हो गया है घर जलाकर खेल कर जाना
किसी भी नाम पर मजहबों का यूँ अब बेमेल हो जाना
रोटी से लेकर मांस तक हमारा यूँ आपस में बंट जाना 
बेकार ही गया समझो फिर इंसान का इंसान कहलाना

दिन-ब-दिन देश की राजनीति का चरित्रहीन हो जाना
जनता का नेताओं की नजर में महज वोट रह जाना
बयानवीरों का आग में तीखे शब्दों से हवन लगाना 
निर्रथक है अब हमारा भाषणों से यूँ पिघल जाना

बहुत हद तक जिम्मेदार है हमारा यूँ कमजोर हो जाना
हुक्मरानों के काले साये में इस हद तक लाचार हो जाना
जलती चिताओं पर राजनीति का चरित्र भी जल जाना
दम तोड़ती इंसानियत में जिंदगियों का बेमौत मर जाना

#आवारा बोल

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