मेरी आवारगी

सूफीवाद का गढ़ खुल्दाबाद

सदियों पुरानी सूफीधारा का गढ़ कहलाने वाला खुल्दाबाद जो अब खुलताबाद हो गया है। इसके नाम में ही जन्नत के दरवाजे का जिक्र है। इस देश में हुए लगभग सूफियों पर पार्शियन भाषा में लिखी किताब 'तस्करेतुल औलिया' व दक्षिण में हुए सभी सूफी सन्तों और स्थानीय बुजुर्गों पर लिखी किताब 'तारीखे दख्खन' में यहाँ सूफीवाद का गढ़ होने का जिक्र है। साथ ही इसके जन्नत का द्वार होने की भी पुष्टि है। दरअसल 700 साल पहले जब यहाँ सूफी आए थे तो उन्होंने इसे जन्नत का दरवाजा यानी 'खुल्द' वाला बाद 'खुल्दाबाद' कहा था। औरंगाबाद से सटा आज का खुलताबाद वास्तव में 'खुल्दाबाद' ही है। इसका नाम 'खुल्द' माने (जन्नत का दरवाजा ) से खुल्दाबाद पड़ा था जो धीरे-धीरे अपभ्रंश होता हुआ खुलताबाद हो गया। यहाँ सदियों पहले जब सूफी सन्त आये थे तो उन्हें यहाँ की हरी भरी फिजा, पहाड़ और धरती के इतर ये आबोहवा इतनी रूहानी लगी कि उन्होंने इसे 'खुल्द' (जन्नत का दरवाजा) कहा और इसका नाम खुल्दाबाद रख दिया। आज भी यहाँ सदियों पुरानी सूफी दरवेशों की मजारें और उनके रहमोकरम के मंजर पसरे पड़े हैं। ऐसे ही एक सूफी सन्त जर जरी बख्श के सालाना उर्स पर एक विशेष पेज लोकमत समाचार पर।

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