तस्वीर : शकील खान, छाया चित्रकार, लोकमत समाचार औरंगाबाद |
जीवन भर का संघर्ष और गाँव की मिट्टी का छूटना दोनों बड़े सवाल हैं। कुछ अपने घरौंदे में हो दाना-पानी तलाश लेते हैं और कुछेक को तलाश होती है सफलता की। शहर की चकाचौंध और आधुनिकता से ताल मिलाती वजूद और रसूख भरे पेशे की। सबके अपने सपने हैं लेकिन लगभग सपनों को पूरा करने की सड़क गाँव से निकलकर किसी महानगर या बड़े शहर तक जाती है, वो गाँव तक नहीं आती।
होता यही है कि अपनी मिट्टी में घुला बचपन, उन गलियों में, पेड़ की छाँव में, बगीचों में, चौपालों में, तालाबों में और खेतों में पली-बढ़ी जवानी गाँव में ही छूट जाती है। शुरू होती है सफलता की भूख और शहरों की भागदौड़। जीवन का संघर्ष और अपने बुजुर्गों का पीछे छूट जाना। शायद परिजनों को भी यही चाहिए कि बच्चे आगे बढ़ें अच्छी नौकरी करें। शहर में घर बनाएं और गाँव खाली करें। खेती छोड़ें और नए रोजगार अपनाएं। ये रास्ते सफलता के जिस मुकाम पर ले जाते हों गाँव से अलग कर देते हैं। गाँवों की बड़ी आबादी शहरों में सिमट रही है।
दिल्ली, मुम्बई जैसे शहरों में हर रोज हजारों युवा सपने लेकर जाते हैं और उन्हें साकार करने में लग जाते हैं। एक सपना ऐसा भी होना चाहिए जो गाँव सवारे, एक सड़क शहर से गाँव की ओर जाए और वहां नयाम मुकाम बनाए।
कुछ लोग हैं जो नए रास्ते बना रहे हैं शहर से गाँव की ओर जाने वाले। खेती, पशुपालन, शिक्षा सहित हर क्षेत्र में काम करने की कुछ नई राह तलाशने के। बीते कुछ सालों में ऐसी कई सफल कहानियाँ सामने आई हैं जो गाँवों में रची गई हैं। उम्मीद है ये युवा मेरे जैसे बंजारों को हौसला देंगे जिनके अंदर गहरे तक गाँव धंसा है और जो वाकई गाँव को जीना चाहते हैं।
कुछ लोग हैं जो नए रास्ते बना रहे हैं शहर से गाँव की ओर जाने वाले। खेती, पशुपालन, शिक्षा सहित हर क्षेत्र में काम करने की कुछ नई राह तलाशने के। बीते कुछ सालों में ऐसी कई सफल कहानियाँ सामने आई हैं जो गाँवों में रची गई हैं। उम्मीद है ये युवा मेरे जैसे बंजारों को हौसला देंगे जिनके अंदर गहरे तक गाँव धंसा है और जो वाकई गाँव को जीना चाहते हैं।
© दीपक गौतम
0 Comments