मेरी आवारगी

मैं अब भी गेली ढूंढ रहा हूँ : निरंजन

चित्र साभार गूगल से 

सतना के वरिष्ठ पत्रकार निरंजन शर्मा जी ने हैंडकंपोजिंग दौर की पत्रकारिता का रोचक संस्मरण पोस्ट किया है। भदेस शब्दों को इग्नोर करें लेकिन उनका भावार्थ लें लें।...भाषा के भदेसपन को यहाँ वैसा ही रखा गया है इसलिए इसे अन्यथा न लें।


                                                                   
     
पुराने समय की छपाई के ब्लॉक जिनमें अक्षर फिट होते थे 
 











"ज्यादातर लोग संतोष तोतला को भूल गए होंगे मगर मैं नहीं 
भूला हूँ ! सन 77-78 की बात है ! विधानसभा के चुनाव चल रहे थे ! झंडा लगी जीपें यहाँ-वहां दौड़ रहीं थी और लाउडस्पीकर चिंघाड़ रहे थे ! मैं गाँव का आदमी सतना में रहकर बी.काम. की पढ़ाई करता था और चुनाव के शोरगुल का मजा ले रहा था ! एक दिन यहीं रहने वाले भांजे के साथ घूम रहा था तो देखा एक आदमी एम्बेस्डर कार के ऊपर बैठा, बोनट पर पैर रखे हाँथ जोड़े सबसे अपने लिए वोट मांग रहा था ! कार धीरे-धीरे सरक रही थी ! ऐसा लग रहा था कि “अनाज उडाता हुआ किसान” चिन्ह वाले इस तोतले उम्मीदवार की सबसे पहचान है !  सड़क चलते एक मतदाता से ऊंची आवाज में वह बोला- “ए भोत्ली वाले, अनाद उलाते कितान पे थप्पा मालना !” राहगीर बोला– “तुम तुत्तल, पहले अपनी घरवाली से तो ठप्पा लगवा लो !” तब तक तोतला आगे किसी  के साथ ठहाका मारते नजर आये ! भांजे ने बताया- यह संतोष तोतला है ! इसका गांधी चौक में प्रिंटिंग प्रेस है ! यह हर चुनाव लड़ता और हारता है ! मैंने कहा- पागल है क्या ? भांजा बोला- पागल नहीं केवल तुतलाता है !
बात आई-गयी हो गयी ! सन 82 में जब एलएलबी की पढाई कर मैं सतना लौटा तो वहां दैनिक जागरण में काम कर पत्रकार बन चुका था ! सन 86 में दैनिक देशबंधु में काम करते हुए मैंने साप्ताहिक अखबार नेज़ा का टाइटल लिया और अखबार को छपवाने संबंधी बात करने के लिए गांधी चौक स्थित प्रेम प्रिंटर्स पहुंचा ! वहां मालिक की गद्दी पर वही “अनाद उलाने” वाले तोतला जी बैठे हुए थे जिनसे सतना आने के बाद पर्याप्त परिचय हो चुका था ! अखबार की बातचीत शुरू हुई तो “कितने पेज का है, हफ्ते में किस दिन निकलेगा” आदि जानकारी लेने के बाद उन्होंने प्रेस के एक कोने में मेरे लिए प्रथक कम्पोजीटर और उसके बैठने की व्यवस्था कर दी ! आजकल के लोग शायद उस समय के प्रेस के बारे में ना समझ पायें, जिसमें धातु से बने एक-एक अक्षर को उठा कर एक “गेली” में रखना होता था ! एक-एक अक्षर जोड़ कर मैटर बनता था, जिसको रख कर पेज लगाया जाता था !
अखबार छपना शुरू हुआ ! उसका विमोचन मैंने तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री अर्जुन सिंह जी से कराया हालांकि मुझ पर समाजवादी भूत चढ़ा हुआ था, जो रीवा से ही चढ़कर आया था ! पिता के दिए हुए नैतिक मूल्य ही मेरी पूंजी थे ! अखबार जल्दी लोकप्रिय हो गया ! संतोष कुमार जैन उर्फ़ संतोष तोतला निर्लिप्त भाव से अखबार नियमित निकलवाने में सहयोग करते ! कहते- पैसे की कोई दिक्कत नहीं है, जैसे–जैसे तुम्हारे पास बिक्री और विज्ञापन का पैसा आता जाए, थोड़ा-थोड़ा देते जाया करो ! बोले- “अखबाल में दमकल खिलाप थापो, तबी थतना ते हलामियों थे पैता निताल पाओदे!” 
एक दिन 11 बजे जब प्रेस पहुंचा तो तोतला जी दो-तीन आदमियों से घिरे बैठे थे ! एक 15-16 साल की लड़की भी उनके साथ थी, जिसका एक हाँथ कोहनी से गायब था ! वे सब मेरा ही इंतज़ार कर रहे थे ! लडकी एक दाल मिल में मजदूर थी और मिल में काम करते वक़्त उसका हाँथ कट गया था ! मिल मालिक ने कुछ दिन अस्पताल में भरती करा कर उसकी दवाई तो कराई मगर बाद में हर्जाना देने से मुकर गया ! पुलिस में, लेबर विभाग में सब जगह गए कोई नहीं सुन रहा था ! तोतला बोले- इसकी खबर फ्रंट पेज में छापना है ! मैंने कहा – ठीक है ! लडकी की फोटो खिंचाई गयी जिसका ब्लाक बनवाया गया ! फोटो सहित समाचार निकला- “इस लडकी का हाँथ ले लिया एक पैसे वाले ने !”
अगले अंक का काम शुरू हो गया ! तोतला जी रोज पूंछते कि क्या अग्रवाल (मिल मालिक) तुमसे मिला ! मैंने कहा- न मिला और न उसकी हिम्मत है मुझसे मिलने की ! तोतला बोले- वह तो नाक रगड़ते आएगा लेकिन कब, जब तुम फिर से उसके खिलाफ खबर छापो ! मंगलवार को अखबार निकलता था ! सोमवार आख़री दिन था ! मैं 11 बजे प्रेस पहुंचा और अपने कम्पोजीटर का रात का काम देखने लगा ! मैटर पूरा हो चुका था केवल आख़री पेज लगना था ! तोतला जी तख़्त में मसनद से टिके बैठे थे ! प्रेस मैटर की एक गेली नहीं मिल रही थी ! तोतला जी से पूछा तो बोले- तुम ये बताओ उस लड़की का मामला फिर से छाप रहे हो कि नहीं ! मैंने कहा “नहीं ! अपन ब्लैकमेलिंग नहीं करते ना किसी के पीछे पड़ते !”
तोतला शांत बैठे रहे ! मैं गेली ढूढ़ रहा था ! कुछ देर की शांति के बाद तोतला बोले – “निलंदन, आज तुम मेली एत बात नोत कर लो, दिन्दगी  में तुमाले ताम आयेदी !” मैंने कहा- क्या ? बोले- “दित्की माँ तोदोगे उती के बाप कहलाओगे, नहीं तो दिन्दगी भल गेली ढून्लते लहोगे !”
आज कई बार अपनी सफलताओं-असफलताओं के बारे में सोचता हूँ तो मुझे तोतला जी की बात याद आती है ! आज तोतला नहीं हैं, वक़्त काफी बीत गया है पर लगता है मैं आज भी गेली ढूंढ रहा हूँ !"

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