मेरी आवारगी

साहिर लुधियानवी, जावेद अख़्तर और सौ का नोट


ये साहिर लुधियानवी की मैयत उठने से पहले की बात है |

साहिर और जावेद अख़्तर का एक क़िस्म का याराना था ( ख़ुद साहिर ऐसा कहते थे ) | जावेद अख़्तर की अपने पिता जाँ-निसार अख़्तर से कभी बनी नहीं; और इस क़दर नहीं बनती कि माँ के गुज़र जाने के बाद पिता से जावेद बात-बात पर झगड़ते और बेमियादी तौर पर घर छोड़ देते | मगर पहुँचते आखिरकार साहिर के पास ही | बाप-बेटे दोनों | बारी-बारी |

जावेद अख़्तर ने मिजाज़ पाया था अपने मामू मजाज़ का ; शोले सा सुर्ख़ और राख़ सा वक्ती | साहिर ने जावेद अख़्तर को बाप सी परवरिश और दोस्त सी सहूलियतें दीं | पिता से झगड़ने के बाद आख़िरी ठिकाना था साहिर का मकान | मगर साहिर के मकान की तबियतन सुखन-फ़रोश ईंटें भी जावेद की खुद्दारी और आवारगी नहीं समेट सके |

एक दिन जावेद ने साहिर को भी सुना दिया “आप ही ने ज़ियादा सिर चढ़ा रखा है मेरे बाप को” और फिर बिना कुछ कहे-सुने किसी ख़ुशबू से हवा में घुल गए | हफ्तों तक किसी ने नहीं देखा | ख़ुदा जाने क्या खाते थे और कहाँ सोते थे |

बाद में पता चला कि कमाल अमरोही के मैनेजर से दोस्ती थी सो उनके स्टूडिओ में टिके रहे | मीना कुमारी के दो फ़िल्म-फेयर अवॉर्ड की ट्राफियों से खेलते थे | पहले ख़ुद के नाम अवॉर्ड करते फिर बा-अदा उन्हें रिसीव करते और फिर ख़ुद ही ताली बजाते और लोगों का शुक्रिया झुक कर अदा करते |
लेकिन ज़िन्दगी ज़ियादा देर तमाशाई बन के रह नहीं पाती | नतीजतन जावेद फिर उसी जाने से दरवाजे पर रुके | साहिर से कहा- “बस नहाने के लिए आपका गुसलखाना और तौलिया इस्तेमाल करना है, अगर आपको बुरा न लगे” | साहिर ने मुसकुराते हुए इजाज़त दी | जावेद नहा कर जब तक निकलते साहिर ने आहिस्ता से एक सौ का नोट वहीं नाश्ते की तश्तरी से लगा कर रख छोड़ा | दिखाने को आईने में मुसलसल कंघी किए जा रहे थे मगर दिल में वो बहाना तलाश रहे थे जिससे जावेद की खुद्दारी को बिना चोट किए रुपया उसे दे सकें | सोच लिया तो कहा- “जादू,(जावेद का घर का नाम) ये सौ रुपये अभी रखो, बाद में लूँगा” | जावेद उस दिन एहसान करने के मूड में थे | सौ का नोट रख लिया | उस ज़माने में सौ का नोट बड़ी रकम थी, उसे तुड़ाने लोग बैंक जाते थे |

बाद में जावेद नामी राईटर हुए और जितना कमाया उतना लुटाया | ख़ुद भी पी और बा-रोज़ महफ़िल को भी पिलाई | मगर न साहिर ने कभी वो सौ रुपया माँगा और न कभी जावेद अख़्तर ने लौटाया | रिश्ते के बड़े आसमान में हिसाब का बीमार सा टिमटिमाता तारा कौन देखता |

साहिर के पास हर शाम जब आती तो ठहर कर, औरों से इजाज़त लेकर आती थी | दोस्त भी आते और शराब भी आती | एक रोज़ साहिर के दोस्त डॉक्टर कपूर जो दिल के मरीज़ थे उनकी तबीयत ख़राब हुई | साहिर ने सामने बैठी शाम को साथ लिया और गाड़ी में अपने साथ ही बिठाकर कपूर साहब के बँगले पर पहुँचे | उस दिन वहाँ रामानन्द सागर भी थे | सब अपने-अपने कमज़ोर दिलों को बहलाने के लिए ताश खेलने लगे |

पत्ते साहिर बाँट रहे थे | मगर चाल मौत ने चल दी | पल भर में अभी-अभी ठहाके लगा रहे साहिर बिस्तर पर गिरे और जिस्म से ज़िन्दगी का हर निशान मिट गया | साहिर जा चुके थे |
डॉक्टर कपूर की हालत न बिगड़े इसलिए रामानन्द सागर उन्हें अपने घर लिवा गए | अब किसे ख़बर की जाये | यश चोपड़ा साहिर के करीबी थे, उन्हें ख़बर की गई मगर वो श्रीनगर गए हुए थे |

फिर जावेद को ख़बर की गई | ड्राईवर था नहीं तो तुरन्त टैक्सी ली और बदहवास से भागे-भागे आए | रात के एक बजे थे | और घण्टों जावेद चुपचाप लाश के पास बैठे रहे | जैसे-जैसे ख़बर फैली लोग आने लगे | जावेद सिर्फ़ रो रहे थे | आख़िरी बार साहिर के गले लग कर रो रहे थे, बे-इंतिहा |

जब सुबह मैयत के इंतज़ाम के लिए नीचे आए तो देखा कि रात का टैक्सी वाला अभी तक खड़ा था | जावेद ने माफ़ी माँगी | ड्राईवर भला मानुस था | पैसे बताने से साफ़ इन्कार कर दिया |
जावेद ने बटवा निकाला | ड्राईवर  कहता रह गया-“नहीं साब... अरे रहने दीजिये साब” ; लेकिन जावेद ने ड्राईवर को डाँटते हुए चिल्लाकर कहा-“ये रखो सौ रुपये ... मर कर भी निकलवा लिए रुपये अपने” |
और फूट-फूट कर रो पड़े |

"ये साहिर लुधियानवी का जनाज़ा उठने से पहले की बात है | (गवाही गुलज़ार की है)"

साभार "सुमित सिंह दीक्षित"

Post a Comment

0 Comments