लो बसंत ने ली अंगडाई आशाओं की
नई कोपलें मन मन्दिर में खिल आईं
पत्तों का झाड़ना भी देखो देता है संदेश ,
हर पतझड़ का अंजाम बसंत ही होता है।
हर झरने की छल-छल में कोई गीत बह रहा होता है।
हर झरने की छल-छल में कोई गीत बह रहा होता है।
मातृत्व प्रकृति का निश्छल देखा
इसका प्रेम है बड़ा अनोखा
इसने माँ बनकर सर्वस्व उड़ेला है हम पर।
इसकी ममता के आँचल में हम सोये गहरीनींद।
क्यों कभी नहीं देखा हमने है इसको भी उम्मीद।
जिसकी आँचल की छैंयाँ में हमने 'सोना' पाया है।
क्यों फिर उसकी ममता को मीठा ज़हर पिलाया है?
उसके ज्वर का कम्पन जब एक सुनामी लाता है।
न जाने कितने प्यारों को मौत की नीद सुलाता है।
सारे ऋण देते आए एक प्रकृति ऋण ही भूलकर
क्यों बेमोल प्रकृति को पाया है ,
फिर कौन सा ऋण बकाया है ?
फिर कौन सा ऋण बकाया है ?
इस बसंत में मैंने एक संकल्प उठाया है ...
'' सिसकती ऋतु को महकता गुलाब कर दूंगा,
उधार बहुत हो गया अबकी बाहर में सबका हिसाब कर दूंगा,
मेरे पास मत आना मैं बहुत खराब हूँ तुम्हें खराब कर दूंगा,
मुझे गिलास में उम्र भर कैद रख साकी वर्ना सारे शहर का पानी शराब कर दूंगा ''
-आवारा खयाल सालों पहले एक रोज
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