परिवार में बुजुर्गों का चले जाना जीवन का खाली हो जाना है। शायद आत्मा पर सूखा पड़ना इसी को कहते हों। एक-एक करके परिवार के सारे आधार स्तम्भ गिर गए। परिवार का एक और बूढ़ा बरगद ढह गया। हमारे बड़े बब्बा, जिन्हें हम सब नन्ना बब्बा के नाम से जानते थे। कल शाम 8.30 बजे उन्होंने 98 वर्ष की उम्र में आखिरी सांस ली। जैसे किसी बूढ़े बरगद की शीतल छाया में तपती देह को सबसे ज्यादा आराम महसूस होता है। ठीक वैसे ही बुजुर्गों के लाड़-प्रेम, स्नेह और आशीर्वाद की छाया में जीवन के हर थपेड़े को इंसान सह जाता है।
न जाने ऐसा क्यों है, लेकिन मैं लिखकर ही खाली हो पाता हूँ। अब जब शववाहन के साथ इलाहाबाद जाते हुए ये सब लिख रहा हूँ, तो एक अजीब सी रिक्तता का अहसास हो रहा है। धीरे-धीरे सारे बुजुर्गों का यूँ जीवन से चले जाना जीवन से असल रौनक का चले जाना है। बूढ़े बरगद की उस छाया का खो जाना है, जिसके नीचे बैठकर जीवन में शीतलता पाई है। अब वो छांव नदारद हो चली है। जीवन में शून्यता बढ़ चली है। फिर भी समय किसी के लिए नहीं रुकता है। जीवन चलता रहता है और चलता भी रहेगा। लेकिन जीवन के कुछ रिक्त स्थान कभी भरा नहीं करते हैं।
अब पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो लगता है कि नन्ना बब्बा के साथ खानदान की एक पूरी पीढ़ी का अंत हो गया है। अब दादा जी लोगों की पीढ़ी में दो बूढ़ी दादियों को छोड़कर कोई नहीं बचा। पता नहीं कब उनके मातृत्व की छाया भी हमसे छिन जाए। यूँ तो नन्ना बब्बा अपना पूरा जीवन जीकर गए, लेकिन पिछले 5 से 6 वर्षों से उनकी भी सारी दिनचर्या शयन शय्या पर ही आकर टिक गई थी।
किसी पुरानी फ़िल्म की रील की तरह उनके साथ बचपन से लेकर अब तक का गुजरा सारा समय घूम रहा है। वो बताते थे कि गुजरे जमाने में जब उन्हें अध्यापक की नौकरी मिली थी, तो 7 रुपये तनख्वाह हुआ करती थी। बब्बा और नन्ना बब्बा दोनों भाई सरकारी अध्यापक हुए। लेकिन नन्ना बब्बा को अध्यापक बने रहना ज्यादा रोज़ भाया नहीं। उन्होंने होम सिकनेस और अपने बड़े पिता जी की सेवा करने के लिए नौकरी को त्याग देना ही उचित समझा। जब तक हाथ पैर चलते रहे, गांव के सारे मठ-मंदिरों में दोनों टाइम हाजिरी लगाना उनकी दिनचर्या का अहम हिस्सा था। उनके जीवन का ज्यादातर समय भगवत भजन में ही व्यतीत हुआ। उन्हें भ्रमण करना बहुत पसंद था। इसीलिए साल के 12 में से उनके 6 माह या तो नाते-रिश्तेदारियों में भ्रमण पर या फिर धार्मिक यात्राओं में ही गुजरते थे। जीवन की सारी जिम्मेदारियों को निभाते हुए यूँ बेफिक्री भरा जीवन जी पाना आज के परिवेश में बड़ा कठिन है।
एक तरह से कहूं तो नन्ना बब्बा ने पूरा जीवन अपनी शर्तों पर ही जिया। उन्हें धार्मिक किताबें पढ़ना बहुत रुचिकर लगता था। मुझे याद है कि गीता प्रेस गोरखपुर से छपने वाली मासिक पत्रिका कल्याण की आजीवन सदस्यता उनके पास रही। वो पत्रिका डाक से अभी उनके बिस्तर पर ठिठक जाने से पहले तक हमेशा घर में आती रही है। उसे पढ़ना उन्हें बहुत भाता था। जब मैं आठवीं जमात में था, तो नन्ना बब्बा कल्याण के विशेषांक देकर कहते कि इसे पढ़ो फिर हम सवाल करेंगे। धार्मिक प्रसंगों पर उनसे वाद-विवाद करके कम उम्र में बहुत कुछ जानने-समझने का अवसर मिला। वो हमेशा गीता के छोटे-छोटे उपदेशों को अर्थ सहित समझाते रहते थे। गुजरे जमाने के इंटर पास थे, उसके ठीक बाद अध्यापक हुए। उनका अंदाज कभी-कभी अंग्रेजीदा भी हो जाता था। लेकिन उन्हें अपना गंवई अंदाज ही भाता था। इसीलिए हर दो वाक्य बोलने के बाद वो अपना तकिया कलाम "क नाम से करके" इस्तेमाल करना नहीं भूलते थे।
आज जब नन्ना बब्बा की निर्जीव देह आंखों के सामने है, तो फिर मरघट का ज्ञान जाग रहा है। आत्मा तो देह के पिंजरे से न जाने कब की मुक्त हो चली है, जो बचा है वो भी इसी प्रकृति में मिलकर एकाकार हो जाएगा। सब यहीं से उपजे हैं, यहीं इसी में मिल जाना है। याद तो केवल वो व्यक्तित्व रह जाएगा, जिसकी मृत देह को देखकर आंखों से आंसू झर रहे हैं। आपको विदा है बब्बा। हम सबकी झरती आंखों से विदा है....रुंधे कंठ से विदा है...तन में बसे प्राण से विदा है...जीवन में उपजी रिक्तता से विदा है।
नन्ना बब्बा की ये मुस्कराती तस्वीरें हम सब नातियों के साथ बिताई 2018 की होली की हैं। अब ये मुस्कराहटें भी बीते वक्त की इबारतों में ही खिल पाएंगी। 💝
© दीपक गौतम
#आवाराकीडायरी #डेथनोट्स #शब्दाजंलि
1 Comments