मेरी आवारगी

कुछ रिश्ते ऐसे भी होने चाहिए

भाग-दौड़ भरी जिंदगी और आए  दिन खत्म होती आत्मीयता के बीच कुछ रिश्ते ऐसे भी होने चाहिए, जो फकत मोहब्बत के सहारे बिना किसी खाद-बीज ( रोज-रोज फोन, मैसेज, चैट, बात ) के सदा हरे बने रहें। बस कभी-कभी कभार मुलाकातों का एक छोटा लम्हा इन्हें जवान करता रहे। मुझे लगता है कि कंचों के साथ जवान हुई बचपन की यारी और दिली जुड़ाव वाले प्राणियों से ही ऐसे रिश्ते हो सकते हैं। कौनो झंझट नहीं रहता है रिश्ते बनाए रखने या बचाए रखने का। बाकी नाते अगर फोन नहीं, मैसेज नहीं या समय-समय पर बात नहीं, तो हिसाब के पक्के लोग उधार सी मोहब्बत देते हैं। हमेशा रिश्तों के खत्म होने के डर से उन्हें जिंदा रखने की कसरत अपन को पसंद नहीं है, जिसे रहना है रहिए, नहीं तो प्रेम से अलविदा। अगर कोई सम्बंध चलाने के लिए उसका  हमेशा प्रबंधन करना पड़े, तो मेरी नजर में वो समझौता है। दुनिया का पता नहीं....अपने पास हैं कुछ जिगरी टाइप के यारों की टोली। जनवरी 2014 में इस टोली के तीन बंदरों से दिल्ली में मुलाकात हुई। अपन फिलहाल औरंगाबाद (महाराष्ट्र) में मौज काट रहे हैं, भाई लोग दिल्ली में दिल लुटा रहे हैं।
इन अजीजों के प्यार भरे रिश्ते की ताजगी अपने साथ बचपन से ही रही है। गाँव के चंद साथी जो जिगर हैं अपना...हम आज भी साथ हैं। संचार क्रांति के इस युग में भी बिना रोज-रोज कोई तार हिलाए, अगर है तो बस दिल की डोर जो हम चारों को बाँध रखती है। हर एक से आपस में बात होती है, मगर सालभर में गिनी-चुनी मर्तबा।
हम चार यार आज भी मौज में रहते हैं। अपनी-अपनी जिंदगी में मशगूल भले हैं, वक्त को बेवक्त करते रहते हैं यूं ही मिलकर कभी-कभी ताजा हो लेते हैं। हमारे बीच हैं बचपन की प्यारी गुदगुदाती यादें, गाँव की मिट्टी की सोंधी खुशबू, वो यारियाँ जिससे दुनिया को ताक पर रखा हमने, एक-दूसरे को जीने की उम्दा समझ और आँख से बहते आँसुओं सहित चेहरे पर फूटने वाली हर मुस्कान को पढ़ने का हुनर। इतनी ही कैमेस्ट्री है जो पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से हमें गूथे रखने में मदद करती है।
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सिद्धू - सिद्धार्थ प्रताप सिंह बघेल उर्फ़ सिद्धू भाई मौजूदा समय में दिल्ली पुस्तक मेले में यथार्थ प्रकाशन की किताबें पाठको के बीच पहुंचा रहे हैं, इनका खुद का प्रकाशन इन्होने दिल्ली में सात साल खून-पसीना बहाकर खड़ा किया है। गाँव से जिद लेकर आया था लड़का कि अपने पिता जी का लिखा छपवाना है, लेकिन हिंदी के नए लेखकों को मिलने वाली अजनीबियत से सब वाकिफ हैं। मेहनत रंग लाई सिद्धू ने खुद के प्रकाशन से पिता जी का लिखा छापकर जेहन का सुकून हासिल किया है। ये वही है जो मुझे कैमिस्ट्री और फिजिक्स के बोरिंग और उलझाऊ सवालों से लड़ना सिखाता था। किताबों से चिपकना ही इसे पसंद रहा हमेशा, जो अब तक जारी है। भाई तू बुलंदियां छुएगा एक रोज यकीन है मुझे।
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मिंटू-राय बहादुर सिंह परिहार उर्फ़ मिंटू भाई अभी दिल्ली में पैनासॉनिक वालों को झेला रहे हैं। ये भी सिद्धू के साथ गाँव से कुछ सपने लेकर दिल्ली निकले थे और अब तक डटे हुए हैं। कभी हम और मिंटू इतने बागी हुए थे जिंदगी में कि बोरिया-बिस्तर उठाकर बिना बताये घर से भागकर मुंबई चले गए थे। किस्मत वहाँ भी दगा दे गई साली ठीक वैसे ही जैसे भारतीय थल सेना की भर्तियों में दे जाती थी। हम दोनों ने पूरा मध्य प्रदेश और देशभर के न जाने कितने मैदानों के चक्कर साथ लगाये हैं। एक ही चस्का था थल सेना की वर्दी पहनना, जो पूरा नहीं हो पाया। वक्त के साथ बहते हुए मिंटू गाँव के कम्प्यूटर ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट खोलने से लेकर आज कम्प्यूटर इंजीनियर तक का सफर तय कर चुके हैं। ग्रामीण प्रतिभा है रंग ला रही है।
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प्रकाश-प्रकाश भूषण पाण्डे अभी भारतीय थल सेना को दिल्ली रहकर आपनी सेवाएँ दे रहे हैं। भूषण के साथ खेल के मैदान में लगाए गए चक्कर बहुत काम आए। जबलपुर के बीआरो मैदान से लेकर सेना की नौकरी के लिए जमकर ख़ाक छानी हमने। ये और कि भाई अपना वर्दी पहनने में कामयाब हुआ, जिसमें हम अपना रोना और असफलता भूल गए। आजिज कर तीन साल तक उछल-कूद करने के बाद हमने पत्रकारिता के लिए गाँव छोड़ा। भूषण भाई ने उसी समय अपने संघर्ष का मीठा फल खाया।
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चार यार। मेरे बाजू मिंटू फिर सिद्धू और भूषण। दिल्ली में हुई हालिया मुलाक़ात का फोटू।

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