मेरी आवारगी

रातें मेरी अब तंग नहीं होतीं

तीन साल पहले लिखी गई एक कविता, जो कल डायरी के पन्नों से बाहर निकली।
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अब रातें मेरी तंग नहीं होतीं
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देखो तुम सो गए हो,
मेरा बात करने का मन है।
थक गए हैं अकेले चलते,
तेरे साथ चलने का मन है।
कहते नहीं अक्सर
कि तुम इंतजार हो
अधूरी उम्मीदों का।
असर हो खो गए ख्वाब का,
जो चला गया था पलकों से।
आब हो मेरे सूखे सपनों का,
जो हकीकत होना चाहते हैं।
वो दबे अंगारों में छुपी राख,
जो मुझे आग देगी धधकने को।
कसूर हो मेरा जो करना नहीं चाहता,
फिर बेईमान हुआ है दिल-आवारा।
चाहकर भी चलना नहीं चाहता, 
वहीं ठहरा है ठगा सा न जाने क्यों ?
मैं यहाँ एक पल भी रुकना नहीं चाहता।
मिलो न मिलो हरम में तेरे,
कुछ तो असर छोड़ जाऊँगा।
रहूँ न रहूँ अबकी उस आँख में,
जरा सा कहीं आवारगी का
जहर छोड़ जाऊँगा।
डरता हूँ कि ख़ुशी तासीर नहीं मेरी,
नूरे-जिन्दगी को कभी
रहमत हुजूर नहीं होती।
बरसती आँखों से कौन कहे, 
तुम क्यों नहीं पढ़ते
इन पुतलियों में लिखी इबारत। 
ये आँख का पानी और बरसात
भी तो इनमें कम नहीं होती।
कभी आओगे
तो सुकून से कहूँगा तुमसे
कि अब जिंदगी से
क्यों मुझे जलन नहीं होती।
'आवरा' ये जो भी है
इश्क में सना सा किरदार मेरा,
यकीनन अब रातें मेरी तंग नहीं होतीं।
.......हाँ रातें मेरी अब तंग नहीं होतीं

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