मेरी आवारगी

*जनता मारी जाए बेचारी*

बंसल की बज गई है बंसी,
अश्विनी की भी बजेगी पुंगी।
निपटने की इस बेला में,
कईयों की अभी खुलेगी लुंगी।
ये लिस्ट न जाने कितनी लंबी,
मन्नू का तो कोई और मदारी।
नाच-नचा के थक जाएंगे,
तब आएगी इनकी बारी।
राजनीति के सर्कस में,
जनता मारी जाए बेचारी।
वोट भी हमसे-नोट भी हमसे,
फिर भी हमें हर चीज के लाले।
चाय हमारी ट्रेन की छीनी, 
खाना हमारा सड़कों पर
फिर भी इनके पेट हैं खाली।
पतली दाल में सूखी रोटी,
ऐसे ही मिल रही है थाली।
अपनी तो बस यही दिवाली, 
इनके पेट अभी भी खाली।
जनता मारी जाए बेचारी....
इनके निवालों में जल गई साली ,
भूंख हमारी-भूंख हमारी।
जेब भी काटी, चैन भी छीना
नेता जी ने न मारी डकारी।
लोकतंत्र के तंतर में,
जनता के सब उलझे मंतर
भाड़ में जाए संसंद तुम्हारी,
अरबों के खर्चे में बहस नहीं
और मुद्दों की भारी कंगाली।
एक तरफ से बोल ये उभरे
भ्रष्ट रही सरकार तुम्हारी।
दूजे ने हवा में एक कटिंग लहरा दी,
बोले फिर क्यों जीती कर्नाटक में सरकार हमारी ?
जनता मारी जाए बेचारी...
सबके काले चोंगे हैं अब,
कहीं नहीं है साफ-सफारी।
खद्दर, कुर्ते और टोपी के अंदर कुछ बंदर
बाकी सब हैं मंजे मदारी,
सबकी अपनी-अपनी बारी।
जनता मारी फिरे बेचारी....
एक सुशासन कहने को
और जनता के सब बने पुजारी।
भ्रष्ट यही हैं, शिष्ट यही हैं
और देश है इनकी ठेकेदारी।
सिंहासन की जब बेला होगी,
फिर घपलों का गाल बजाएंगे।
एक कुर्सी से उतरेगा,
दूजे की होगी सिपेसलारी।
जनता फिरेगी मारी-मारी
कहीं जीतती, कहीं है हारी
क्योंकि सारा ढर्रा सरकारी।
ये भी अब कैसी लाचारी,
नई किताबों के पन्नों में
दीमक जैसी क्यों लगी बीमारी ?
जनता मारी जाए बेचारी....
जनता मारी जाए बेचारी
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देश के उस समय के हालत पर प्रतिक्रिया
स्वरूप लिखी गई एक कविता
साभार नेट जन सैलाब का चित्र

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