(भोपाल की ताजुल मस्जिद का चित्र / ये जगह और यहाँ की सीढियाँ मुझे सबसे ज्यादा पसंद हैं / चित्र गूगल बाबा का और कौन / |
किस्सा कहने बैठे हैं उन पचपन घंटों का जो अक्टूबर में एक घुमक्कड़ी के दौरान हुआ। और तुम भी पुरानी बातें याद दिलाते हो। वैसे तो हर बार तुम्हारी हवा में घुलना-मिलना बहुत रास आता है, मगर इस बार का मजा ही कुछ और था। बाबा ( पीपी सर ) के जन्म दिन के बहाने यारों के साथ पढ़ाई के दौर की यादें ताजा करना, बड़ी झील को इतने दिनों बाद निहारना और तेरी गलियों में भटकना सब बेहद सुकूनदेय था। बस चंद रोज पहले बने प्लान को अम्ल में लाने के लिए सुमित, प्रवीण, प्राशांत और पंकज भैया ने सबसे ज्यादा कोशिश की।
अपना क्या आवारा हैं...घुमक्कड़ी का एक बैग हमेशा तैनात रहता है। कुछ और जरूरी चीजें ठूसकर बस भागना होता है। सो अपन भी चल दिए थे बाबा के जन्म दिन में शरीक होने के बहाने कुछ ताजा हवा के झोंके और गोरखपुरिया के शब्दों में ऑक्सीजन लेने जीने के लिए।
सात अक्टूबर की देर शाम तकरीबन सात बजे भोपाल के हबीबगंज स्टेशन पर उतरना हुआ, ये वही जगह है जहाँ आवारगी के ठौर में कितनी रातें खाने के जुगाड़ में फूड प्लाजा घूमते गुजरी हैं। स्टेशन पर उतरते ही पैयाँ-पैयाँ एमपी नगर तरफ हो लिए..फोन घुमाया तो सामने से आई परचित आवाज में गुस्से और प्यार की मिलावट के साथ एक स्वर फूटा..एमपी का नंबर ! भोपाल में हो ? मैंने कहा हाँ...और तेरे रहते पैदल चल रहे हैं अबे जहाँ हो प्रगति पेट्रोल पम्प पर जल्दी आओ। अगले आधे घंटे के झेलाऊ इंतजार के बाद एक स्कूटी सवार सामने था। दोस्त ऐसे ही होते हैं, मगर कितने भी कमीने हों अपने होते हैं।
हमने सारथी को रथ बढ़ाने का आदेश दिया...अगले दस मिनट में अपन एक ठिकाने पर थे। जहाँ बाकी के आगुंतकों सुमित, प्रशांत और पंकज भैया का इंतजार था। प्रवीण पांडे हमेशा की तरह लेटलतीफ थे और आठ तारीख को सुबह तक पहुंचने वाले थे। खैर कुछ देर बाद होटेल का कमरा गुलजार हुआ। आदरणीय नेता जी उर्फ़ धीरज राय की कर्ण प्रिय आवाज कानों में मिसरी घोल रही थी और अपना गोरखपुरिया ठहाके लगा रहा था।
पंकज भैया जो बरेली से बस दिल बहलाने के बहाने पहली बार भोपाल आए थे, थके हुए दिख रहे थे। उनसे औपचारिक परिचय के बाद सब-कुछ इतनी जल्दी सामान्य हो गया कि जैसे दो पुराने दोस्त बड़े दिन बाद मिले हों। उनसे पहली बार मिलकर भी नहीं लगा कि अजनबी हैं। जल्द ही सारा प्लान बनाया गया और रात में बाबा के घर धमाचौकड़ी करने का पुख्ता इंतजाम हुआ। तब तक किस्से, कहानी और धीरज-प्रशांत के बीच टॉम एंड जैरी वाला मेरा पसंदीदा एपिसोड जारी रहा।
हम चार यार ढलती शाम में निकले और कुछ अखबारी मित्रों से मुलाक़ात के बाद रात 12 बजे के पहले भोपाल में मौजूद दूसरे सीनियर्स प्रसून दा, ऋचिक और गगन भैया के साथ बाबा के घर उनका जन्म दिन मनाने निकल पड़े। रात में भोपाल की खुली सड़कों पर बाइक का जमकर कान मुरेरा गया। त्रिलंगा पहुंचकर वहाँ पहले से मौजूद भाई लोग केक का इंतजार कर रहे थे। कुछ देर के इंतजार के बाद केक कटा और सबमें बटा। गप्प-सड़ाके रात तीन तक चले फिर सब रुखसत हुए, क्योंकि सुबह सर के जन्म दिन की ऑफ़ीसियल पार्टी थी।
अब नींद किस कमबख्त को थी रात में ही हम चारों (धीरज, प्रशांत, सुमित और मैं) ने शहर की कुछ सड़कें इस अंदाज में नापीं कि बीते दिन ताजा हो गए। गोरखपुरिया और पुअर बृजमनगंज फैलो साथ में हों चिल्लाया न जाए, ऐसा कभी हो सकता है क्या ? जय भोपाल और 'नेता जी नाली में चार-चवन्नी थाली में' टाइप के बोल गूंजे तो सुकून मिला। पुराने दिन याद करते हुए सबने एकाद घंटे की नींद मारी।
अखबारी लोगों की सुबह होते ही पंकज भैया के साथ बड़ी झील और भारत भवन सहित आस-पास का इलाका घूमा गया। फिर आँखों के सामने वो सारी फिल्म चल पड़ी, जो गुजरे वक्त में घड़ी की सुइयों ने फिल्माई थी। असहज होते हुए सहज होने का ढोंग हो नहीं पाता, मगर किया गया। हमें दिमाग में ऐसा कोई रसायन नहीं समझ जो केवल अच्छा याद करने में मदद करे। खैर यादों की पोटली से सारे महकते गुलाब निकाले हमने और जिया गया जीभर। झील के पानी में नाँव पर मौज काटना और बाहर बतखों के साथ फोटो ग्राफी सब जमकर की गई। ढेर सारी गप्पबाजी में कब वक्त निकल गया पता ही नहीं चला। शाम ढलते ही भारत-भवन दीर्घा में चाय-साय की चुस्कियाँ के साथ एक चर्चा का दौर चला।
बरेली से प्रवीण पांडे उर्फ़ भोलू शाम तक आने वाले थे और पंकज भैया रात नौ बजे विदा लेने वाले थे। समय का हिसाब जमाया गया। भैया को विदा करने के बाद तयशुदा कार्यक्रम अनुसार हम लोग कीर्ती जी के यहाँ जा धमके। उस दिन उनके बच्चे का भी जन्म दिन था। जमकर दावत उड़ाई गई और फिर रात दस बजे के बाद बाबा के घर का रुख किया गया। कीर्ती जी की टमटम में सवार होकर एमपी नगर जोन वन से त्रिलंगा कूच किया गया। रास्ते में भूल-भटक हो गई भाई साहब को पहुंचते-पहुंचते करीब 11बजे हम लोगों ने वहाँ दस्तक दी।
बाबा का जन्म दिन सैलीब्रेशन दिनभर चला था, पुराने-नए सभी छात्र आ-जा रहे थे। भोजन-भजन सबका प्रोग्राम था। हम लोगों ने भी पहली फुर्सत में पेट के चूहों को तसल्ली दी और फिर शुरू हुई अपने पूरे सुर में पटियाबाजी। बाबा की लाइव कमेंट्री और मौजूद ऑडियंस की फरमाइश पर सबकी प्रतिभा बाहर आई। प्राशांत 'पप्पे प्यार करके पछताया, नेता जी 'अब तो खाली कारगिल नहीं पूरा पाकिस्तान' चाहते रहे और बाकी के प्रतिभाशाली लोगों ने भी जमकर कौशल दिखाया।
बाबा तो बाबा हैं उन्होने किसी को नहीं छोड़ा, कितने दिनों बाद हम लोगों ने उनके साथ वो वक्त जिया था, जो पढ़ाई के दो सालों की याद दिलाता रहा। बाबा बच्चों में बच्चे, काम के समय मार्गदर्शक, शिक्षा के समय गुरु और दुःख के समय पिता की भूमिका में हमेशा मिले हैं। बच्चों को इतना समय देने वाला शिक्षक मैंने पहले अपने जीवन में नहीं देखा। लोग गैरों को सब दे देते हैं, मगर सबसे कीमती वक्त खर्चने के बाद अपना बनाना कोई बाबा से सीखे।
लगभग चार या पांच बजे भोर तक चला वो दौर सर के पसंदीदा गाने 'एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल' से समाप्त हुआ। अगले दिन सबका छितिर-बितिर होना शुरू हुआ, जो जहाँ जाने वाले थे नौ की शाम तक कूच कर गए। अपनी दोपहर पत्रकारिता विवि के जनसंचार विभाग, पत्रकारिता विभाग और लाईब्रेरी सहित बाकी हिस्सों में गुजरी। इस दौरान अपने रंजन सर, रामकृष्ण जी, आरती मैम, संजय सर और सबसे प्यारी राखी मैम से मिलने में सार्थक रही। हालांकि चौरे सर भी बहुत याद आए, मगर उनसे मिलना न हो सका।
विवि जाकर दुःख हुआ कि इमारत तो रंग गई है, मगर उसका नूर चला गया है। अब न वहाँ लैब जनरल निकलते हैं, न ही बहसें होती हैं। न देश के बड़े पत्रकार आते हैं और न ही पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र जी के समय जैसे प्रयास हो रहे हैं। उन्होंने दीवारे भले न रंगवाई हों, मगर विशेषज्ञों से मिलने, राष्ट्रीय स्तर की बहसों और प्रायोगिक ज्ञान हासिल करने की हमेशा छूट दी। कभी बस आए दिन अखबारों में संस्थान का नाम घोटालों के लिए छपता है। अभी तक वही हालात जारी हैं।
लगभग चार या पांच बजे भोर तक चला वो दौर सर के पसंदीदा गाने 'एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल' से समाप्त हुआ। अगले दिन सबका छितिर-बितिर होना शुरू हुआ, जो जहाँ जाने वाले थे नौ की शाम तक कूच कर गए। अपनी दोपहर पत्रकारिता विवि के जनसंचार विभाग, पत्रकारिता विभाग और लाईब्रेरी सहित बाकी हिस्सों में गुजरी। इस दौरान अपने रंजन सर, रामकृष्ण जी, आरती मैम, संजय सर और सबसे प्यारी राखी मैम से मिलने में सार्थक रही। हालांकि चौरे सर भी बहुत याद आए, मगर उनसे मिलना न हो सका।
विवि जाकर दुःख हुआ कि इमारत तो रंग गई है, मगर उसका नूर चला गया है। अब न वहाँ लैब जनरल निकलते हैं, न ही बहसें होती हैं। न देश के बड़े पत्रकार आते हैं और न ही पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र जी के समय जैसे प्रयास हो रहे हैं। उन्होंने दीवारे भले न रंगवाई हों, मगर विशेषज्ञों से मिलने, राष्ट्रीय स्तर की बहसों और प्रायोगिक ज्ञान हासिल करने की हमेशा छूट दी। कभी बस आए दिन अखबारों में संस्थान का नाम घोटालों के लिए छपता है। अभी तक वही हालात जारी हैं।
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