भोपाल बड़ी झील का एक दृश्य : फोटो साभार सुमित पांडे |
(भोपाल डायरी : 9/ 10/ 2013)
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भोपाल मेरी जान तुझसे बिछड़े डेढ़ साल होने को हैं, मगर मैं आज भी भटकता तेरी फिजाओं में ही हूँ। जितनी मोहब्बत तूने दी है उतने ही चैन से जेहन का सुकून भी छीना है। तुझसे इतना इश्क होगा पता नहीं था। जिंदगी का सबसे खूबसूरत साल था 2007 जिसने तुझसे मुलाक़ात कराई। पत्रकारिता पढ़ने के बहाने तेरी सरजमीं पे कदम रखा था। क्या पता था जिंदगी के पन्नों में तेरे इश्क की ही इबारत लिखूंगा। मेरे क़ज़ा के शहर न ही तेरी गोद में पैदा हुआ हूँ और न ही मेरा बचपन गुजरा है, मगर पांच साल के याराने में तुझसे जो मिला है वो शब्दों के सहारे कह पाना शायद मुमकिन नहीं। अब दिन-ब-दिन तुझसे रवां होती मोहब्बत अपने शबाब पर है, तुझे जिंदगी की किताब से फाड़ देने के बाद शायद कुछ नहीं बचेगा। अगर कुछ शेष रहेगा तो अधूरा मैं ...!! लगता है जैसे तुझमें ही बाकी की बची साँसें कैद हो चुकी हैं, जिन्हें उधार लेने तेरी चौखट पर माथा टेकने जाना मजबूरी हो गई है।
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भोपाल मेरी जान तुझसे बिछड़े डेढ़ साल होने को हैं, मगर मैं आज भी भटकता तेरी फिजाओं में ही हूँ। जितनी मोहब्बत तूने दी है उतने ही चैन से जेहन का सुकून भी छीना है। तुझसे इतना इश्क होगा पता नहीं था। जिंदगी का सबसे खूबसूरत साल था 2007 जिसने तुझसे मुलाक़ात कराई। पत्रकारिता पढ़ने के बहाने तेरी सरजमीं पे कदम रखा था। क्या पता था जिंदगी के पन्नों में तेरे इश्क की ही इबारत लिखूंगा। मेरे क़ज़ा के शहर न ही तेरी गोद में पैदा हुआ हूँ और न ही मेरा बचपन गुजरा है, मगर पांच साल के याराने में तुझसे जो मिला है वो शब्दों के सहारे कह पाना शायद मुमकिन नहीं। अब दिन-ब-दिन तुझसे रवां होती मोहब्बत अपने शबाब पर है, तुझे जिंदगी की किताब से फाड़ देने के बाद शायद कुछ नहीं बचेगा। अगर कुछ शेष रहेगा तो अधूरा मैं ...!! लगता है जैसे तुझमें ही बाकी की बची साँसें कैद हो चुकी हैं, जिन्हें उधार लेने तेरी चौखट पर माथा टेकने जाना मजबूरी हो गई है।
रुखसती के पहले के तेरे साथ जिए वो पाँच साल जीवन की यात्रा का अहम पड़ाव हैं, जिनके बिना खुद को ढूंढ़ पाना संभव नहीं हो सकता था। आज तुझसे बिछड़े डेढ़ साल होने को हैं, मगर मैं आज भी वहीं ठहरा हूँ। याद आता है रफ्ता-रफ्ता जवां होता तेरी गलियों में इश्क, झील के किनारे में टूटकर खुद को खोजना, तेरी खुली वादियों में यारों के साथ साँसें लेना, तेरी हरियाली की छाँव किन्हीं घनी जुल्फों के सहारे महसूसना, आँख के पोरों सें ढुलते आँसू और माशूक का दुपट्टा, पढ़ाई के बाद मिली पहली नौकरी, अखबार में छपी पहली खबर, तेरे बहाने मिले प्यारे दोस्त, आधा-अधूरा मिला प्यार, पत्रकारिता विवि में बीता हर लम्हा और बाबा।
जानेमन कुछ उलझा है तुझमें। तेरा एक छोर केरवा डैम तो एक वीआईपी रोड़ से होता हुआ मनुआभान की टेकरी तक जाता है। बड़ी झील, उसका किनारा और मानव संग्रहालय तो समेट लेता है हर बार अपनी बाहों में। तेरी गलियों में सबसे खूबसूरत वीआईपी रोड़ और रिंग रोड, सात नंबर का जायका, चार इमली, चौहत्तर बंगला, रविन्द्र भवन, भारत भवन, सात नम्बर, शाहपुरा झील, रचना नगर, मिनाल रेसीडेंसी, प्रेस कॉम्प्लेक्स, हॉकर्स कॉर्नर, भीम बैठका, प्रेस कॉम्प्लेक्स में चाचा की चाय, गुप्ता जी के पोहे, ठाकुर के समोसे, सराफा चौक का बाजार, वो बड़ी मस्जिद की सीढ़ियाँ, पुराने शहर का इतवारा-बुधवारा, लखेरापुरा, राजभवन, न्यू मार्केट और एमपी नगर और झीलों के साथ तेरे उतार-चढ़ाव वाले रास्तों की फिजा में घुला अदद सुकून अपने अंतस तक धंस गया है। अब इससे छुटकारा पाना अपने वश में नहीं है। और सच पूछो तो गुरु हमें चाहिए भी नहीं छुटकारा।
11/9/2012 को तुझसे रुखसत हुए थे, तब से अब तक कई चक्कर लगा आए हैं। तुमसे दूर रहकर ही जाना है कि इश्क अगर है, तो तुम्हीं से है। यूँ तो तेरे दयार में यारों का जमघट कभी कम नहीं होता है, ये और कि प्यार खो गया तेरी वादियों में जवान होकर। तूने जीना सिखाया है, तेरी गलियों में भटकते हुए खबरें ही नहीं बटोरीं अपने पेशे में काम करने का हर वो हुनर तराशा है, जिस पर आज इतराते हैं। आवारगी को हवा तूने दी और खुद को बनाने-बिगाड़ने के लिए ठुकराया भी तुमने। आज सोचता हूँ जरा सा काम जो कर पाया हूँ मेरे लिए, अगर तूने दामन नहीं छुड़ाया होता तो कतई संभव न हो पाता।
तेरी हवा में साँस लेना हमेशा अतीत के उन स्याह काले और सुनहरे पन्नों में झांकना है, जहाँ अपनी रूह का सुकून ठहर गया है। जिंदगी की किताब का सबसे खूबसूरत चिट्ठा तेरी ही स्याही से लिखा गया है। बेइन्तिहाँ दर्द में जीभर के रोने का करम भी तेरे हरम में ही नसीब हुआ है। धीरे-धीरे हाथ से फिसलती वक्त की रेत में अप्रैल को तुझसे अलग हुए लगभग डेढ़ साल हो जाएंगे। पंख लगाकर उड़ता समय का पंछी न जाने कहाँ ले जाए। एक ठोकर में ठिकाना ऐसा बदला कि तू तो छुटा ही अपना कहा जाने वाला राज्य भी छूट गया। खैर तुमसे पाई मोहब्बत लुटाते हुए अजनबियों को अपना बनाने और अनजान शहर को अपनाने में बहुत दिक्कत तो नहीं हुई, मगर तेरी कमी हमेशा खलती है।
एक जरा सा काम होता है तो तेरी याद हो आती है कि कैसे वहाँ चट से पलक झपकते सब हो जाया करता था। आदत सी लग गई है उस आरामतलबी और तेरे प्यार की कुछ भाता भी नहीं। कभी-कभी सोचता हूँ कि न तेरी जमीं में पैदा हुआ न बचपन ही गुजरा है मेरा, फिर तुझसे इतना याराना क्यों। बस एक ही जवाब मिलता है कि तेरी मोहब्बत ने ये बगावत बुलंद कर दी है। तुमसे दूर होकर मजा नहीं आता मेरी जान, मगर वक्त ने गजब ढाया है। तेरे लिए तुझसे अलग हुआ हूँ अबकी आऊंगा तो तेरी वादियों में नई इबारत लिखूंगा। दुआ करना मेरी जान हमारे इश्क को नजर न लगे और तेरे हरम में वो ठौर नसीब हो सके जो ताउम्र की ठोकरें सहकर भी हिल न सके। भोपाल मेरी जान फिर मिलेंगे कुछ और उधार सी साँसें लेने के लिए फिलवक्त किस्से को विराम दे रहा हूँ। तेरे सहारे खुद से की बतकही कभी डायरी के पन्नों से निकालकर फिर उकेरुंगा यहाँ।
11/9/2012 को तुझसे रुखसत हुए थे, तब से अब तक कई चक्कर लगा आए हैं। तुमसे दूर रहकर ही जाना है कि इश्क अगर है, तो तुम्हीं से है। यूँ तो तेरे दयार में यारों का जमघट कभी कम नहीं होता है, ये और कि प्यार खो गया तेरी वादियों में जवान होकर। तूने जीना सिखाया है, तेरी गलियों में भटकते हुए खबरें ही नहीं बटोरीं अपने पेशे में काम करने का हर वो हुनर तराशा है, जिस पर आज इतराते हैं। आवारगी को हवा तूने दी और खुद को बनाने-बिगाड़ने के लिए ठुकराया भी तुमने। आज सोचता हूँ जरा सा काम जो कर पाया हूँ मेरे लिए, अगर तूने दामन नहीं छुड़ाया होता तो कतई संभव न हो पाता।
तेरी हवा में साँस लेना हमेशा अतीत के उन स्याह काले और सुनहरे पन्नों में झांकना है, जहाँ अपनी रूह का सुकून ठहर गया है। जिंदगी की किताब का सबसे खूबसूरत चिट्ठा तेरी ही स्याही से लिखा गया है। बेइन्तिहाँ दर्द में जीभर के रोने का करम भी तेरे हरम में ही नसीब हुआ है। धीरे-धीरे हाथ से फिसलती वक्त की रेत में अप्रैल को तुझसे अलग हुए लगभग डेढ़ साल हो जाएंगे। पंख लगाकर उड़ता समय का पंछी न जाने कहाँ ले जाए। एक ठोकर में ठिकाना ऐसा बदला कि तू तो छुटा ही अपना कहा जाने वाला राज्य भी छूट गया। खैर तुमसे पाई मोहब्बत लुटाते हुए अजनबियों को अपना बनाने और अनजान शहर को अपनाने में बहुत दिक्कत तो नहीं हुई, मगर तेरी कमी हमेशा खलती है।
एक जरा सा काम होता है तो तेरी याद हो आती है कि कैसे वहाँ चट से पलक झपकते सब हो जाया करता था। आदत सी लग गई है उस आरामतलबी और तेरे प्यार की कुछ भाता भी नहीं। कभी-कभी सोचता हूँ कि न तेरी जमीं में पैदा हुआ न बचपन ही गुजरा है मेरा, फिर तुझसे इतना याराना क्यों। बस एक ही जवाब मिलता है कि तेरी मोहब्बत ने ये बगावत बुलंद कर दी है। तुमसे दूर होकर मजा नहीं आता मेरी जान, मगर वक्त ने गजब ढाया है। तेरे लिए तुझसे अलग हुआ हूँ अबकी आऊंगा तो तेरी वादियों में नई इबारत लिखूंगा। दुआ करना मेरी जान हमारे इश्क को नजर न लगे और तेरे हरम में वो ठौर नसीब हो सके जो ताउम्र की ठोकरें सहकर भी हिल न सके। भोपाल मेरी जान फिर मिलेंगे कुछ और उधार सी साँसें लेने के लिए फिलवक्त किस्से को विराम दे रहा हूँ। तेरे सहारे खुद से की बतकही कभी डायरी के पन्नों से निकालकर फिर उकेरुंगा यहाँ।
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