मेरी आवारगी

अब फिर क्यों ये फागुन आया है ?

!! मौला इस इश्क-फितूरी में,
तेरे करमों की बेनूरी में
पैगाम जिया का गूंगा है !!
सावन-भादों सब गुजर गए
अब फिर ये फागुन आया है,
बेचैनी बढ़ती जाती है..
तूने कौन सा जोग लगाया है !!
मन भीगा है...तन जलता है,
गहरे तक ताप सताया है !!
जाने कब तू आएगा,
हर तरफ ये शोर सुनाया है !!
तेरे संग गुजरी होली में
ये कैसा रंग लगाया था,
धो-धोकर थककर हारा हूँ !!
बस तू ही तू समाया है...
सदियों जैसे हों बीत गईं,
रातें गहरी और काली हैं !!
मन के सूने आँगन में
पायल की झनझन होती है...
तब लगता है कोई आया है,
फिर सब गायब हो जाता है !!
वो कहते हैं 'आवारा' तू
बेबस सी बहती आँखों का
क्यों नूर गटक न पाया है ?
अब चला-चली की बेला में
क्यों इतना जेहन जलाया है ?
जब अपनी स्याह मुंडेरों से
वो छलिया बिना पंख उड़ जाता है,
तो देखो फिर क्यों कोयल ने
ये मधुर तान चहकाया है !!
अबकी जो फागुन आया है..
बिरहन का दिल भर आया है....
सखी रे ये कैसी आग लगाया है
अब फिर क्यों ये फागुन आया है ?
क्यों जी में आग लगाया है ?
री बैरन सा...क्यों ये फागुन आया है...!!
-आवारा

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