मेरी आवारगी

अजनबी शहर तुझसे रफ्ता-रफ्ता इश्क

महेशमाल की वादी को शकील खान ने कुछ यूँ कैद किया
महेशमाल की वादी और मैं।  छाया ; शकील खान
न जाने क्या सोचकर तुझे छोड़ा था मेरे कजा के शहर, मगर भोपाल मेरी जान तुझसे दूर जाना भी तुझे याद करना और तुझमें बसना जैसा ही है. अपना पांच सालों का याराना और अनगिनत यादें जो रगों में बहती हैं. यकीनन तेरे जैसा भी मेरे लिए कोई शहर नहीं हो सकता और तुम तो बस तुम हो जानेमन. तुम्हारी हवा में जो घुला है वो भला कहीं और क्या मिलेगा.  तुझसे दूर हुए डेढ़ साल से ज्यादा वक्त हो चला है, लगभग एक साल आठ माह होने को हैं और इस बीच जब भ वक्त मिला तुझसे कुछ सांसें उधार लेने मैं पहुंच ही गया. दुनिया इसे मेरा पागलपन कहती होगी और आवारा के लिए ये आवारगी की ठौर है. अपना तो मक्का-मदीना और तीरथ बस तुम ही हो जमीने-जेहन बस तुम, खुदा करे कि जहां अमन-चैन लुटा और बार-बार जीने का सलीका मिला, वहीं तेरी गर्द में सब खाक हो अपना.  इधर तुमसे अलग होकर नए ठिकाने में रूह का सुकून खोजना भी खुदी को खोजने की अनंत यात्रा है. इतनी विविधताओं वाले इस देश में एक राज्य से दूसरे राज्य में आकर बसना पूरे परिवेश का बदल जाना है. न यहां सर्दियां वैसी हैं, न गर्मी, न बरसात और न ही दिन-रात. फिर भी जो यहां है उससे दिल बहलाना काफी है. आवारगी में ठिकाने तो लगातार बदलते रहे हैं मगर दिल को ठौर कहीं न मिला. यहां भी कुछ यही आलम जारी है. जीवन सतत झरने और बहने का नाम है. ये न रुकने की इजाजत देता है, न ही भूत-भविष्य के लिए प्रलाप की, ये तो बस चलता रहता है. मैं भी बहता हुआ आया था भोपाल तुझे छोड़कर. औरंगाबाद जीवन के पड़ाव में आया वो अजनबी शहर था, जहां दो चेहरों के इतर कोई मुझे पहचानता नहीं था.  शायद रूह में बसी आवारगी को आवाज देने के लिए मुनासिब था ये अकेलापन.
 औरंगाबाद तुम्हारे पहाड़ो, गुफाओं और झरनों से होता हुआ अपनापन कब दिल में घर कर गया पता ही नहीं चला. अब सोचता हूं तो लगता है सारा शहर अपना है और मराठी भी बघेली ही है. बात-बात पर भाऊ कहना आदत हो गई है. उत्साह में होता हूं तो बरबस ही निकल जाता है ‘मी महाराष्ट्राचा महाराष्ट्र  माझा’, ये और कि मैंने राज्य पर गर्व करने वाले इस सूत्र वाक्य को बदलकर ‘मी राष्ट्राचा राष्ट्र  माझा’ कर लिया है.
    औरंगाबाद महाराष्ट्र की पर्यटन राजधानी है. पहाड़ों, अजंता-एलोरा की गुफाओं, बीवी के मकबरे, औरंगजेब की कब्र, पनचक्की, औरंगाबाद की गुफाओं और इक्का-दुक्का झीलों के साथ अपनी विरासत को सहेजता ये शहर किसी सुई की नोक पर थमा सा लगता है. यूं तो इसके औद्योगिक विकास का परचम 1980 के दशक में देश ही नहीं एशिया में भी लहराया, जो अब किन्हीं कारणों से जरा धूमिल हुआ है, मगर पहचान बनाए रखने और सपनों में रंग भरने वाले यहां के परिश्रमी और जीवट लोग सतत इसकी खोई औद्योगिक क्रांति वाली पहचान के लिए जुटे हैं. अपनी पहाड़ी और पत्थरों की नायाब सुंदरता के सौन्दर्य में समाया ये शहर ऐतिहासिक घटनाओं और औरंगजेब की बरबरता के निशान भी खुद में समेटे रखता है. गाहे-बगाहे जब भी कोई इतिहास के पन्ने उलटता है तो खिलजी की क्रूरता से लेकर औरंगजेब और निजाम के दौर तक का हर घाव हरा हो जाता है. मुगल शासक के नाम से पहचाना जाने वाला ये शहर मुगल काल में बनी नहरे अंबरी और 52 गेटों के अद्भुत स्थापत्य का भी गवाह है, जिसके कुछ  निशान पनचक्की और अभी मौजूद इतवारा, बुधवारा, जफर गेट, दिल्ली गेट, भड़कल गेट जैसे निर्माण में दिखते हैं. दौलताबाद (औरंगाबाद के पास स्थित कस्बा, जिसे जीभर लूटने के बाद अपार दौलत से मालामाल होकर खिलजी ने दौलताबाद नाम दिया. पहले इसे देवगिरी कहा जाता था) को मुगल काल में देश की राजधानी बनाया गया. देशभर में मौजूद प्राचीन अभेद किलों का नाम जब भी लिया जाता है, तो यहां बने मराठाओं के देवगिरी किले को विशेष रुतबा मिलता है. दौलताबाद या देवगिरी किले के नाम से मशहूर ये किला देश में मौजूद गिने-चुने भारत माता मंदिरों के लिए भी विख्यात है. मुगलों के कब्जे से अपनी नानी माता के इस किले को आजाद कराने के बाद वीर मराठा छत्रपति शिवाजी जी महाराज ने जीत स्वरूप भारत माता मंदिर का उपहार दिया था. स्वराज के उत्साह में महाराज ने बनवाया था. इतिहास के ताने-बाने से निकलकर देखोगे तो यहां अब जो है वो पत्थरों का ऐसा अनूठा सौंदर्य है, जिसमें पत्थर बोलते हैं. एक कवि की कल्पना और इतिहास के जिज्ञासुओं को ही नहीं हर आदमी को यहां पत्थरों का जिंदा होना महसूस होता है. अजंता-एलोरा का सौंदर्य देखकर यकीन करना मुश्किल है कि पत्थर बेजान होते हैं. दस-दस पीढ़ियां खर्च होने के बाद निर्मित होने वाली ये कलाकृतिायां मानवीय इंजीनियरिंग का सबसे कुशल उदाहरण हैं.
भोपाल तेरी बाहों में आकर जैसा सुकून झील का मचलता पानी देता है, वैसा ही आनंद इन गुुफाओं और पहाड़ों से मिलने के बाद मिलता है. रूह में पसरती ये अजनीबियत इस डेढ़ साल में धीरे-धीरे कम हुई है. जब मजारों में मयस्सर होने का दिल करे तो शहर के फकीराना गर्द में चला जाता हूं, जब पत्थरों में खुदा को तलाशने की तड़प हो तो एलोरा के निकट शिव के बारहवें ज्योतिर्लिंग का रुख कर लेता हूं. कभी मुर्दों की बस्ती में जाने का दिल करे तो यहां कब्रिस्तानों की कमी नहीं है, यहां मौजूद जामा मस्जिद की सीढ़ियां भी भोपाल की ताजुल मसाजिद की याद ताजा कर देती हैं. पहाड़ में बैठकर भोपाल की मनुआभान टेकरी को याद करना हो तो महेशमाल चला जाता हूं. महेश्माल औरंगाबाद से 50 किलोमीटर दूर एक पर्वत है, जिसके बारे में किवदंती है कि पार्वती से रूठकर स्वयं शिव ने इधर का रुख किया था और बाद में पार्वती के मान-मनुहार के बाद उन्होंने कैलाश का रुख किया. कहते हैं कि देशभर में स्थापित 52 देवी शक्तिपीठों में से एक इस पर्वत पर है, महेश और पार्वती की कलाओं का गवाह यह पर्वत आज भी महेशमाल के नाम से जाना जाता है. हालांकि अपभ्रंश होते-होते अब यह म्हेशमाळ हो गया है. अगर कभी बड़ी झील याद आ जाए तो औरंगाबाद की लेक व्यू का रुख करना भी भाता है. भोपाल तुझसे जुड़ी हर याद ताजा करने के बहाने मैंने भले ढूंढ लिए हों, मगर तुम तो बस तुम हो मेरी जान. सांस्कृतिक और भौगोलिक विविधताओं के बावजूद यहां सिफर से शुरू किया सफर अब तक आवरगी में सुकूनदेय ही रहा है. अपन भी जिद्दी ठहरे गुरु. एक जिरह में हैं कि जिस कदर इस अजनबी शहर ने अजनीबियत को इश्क में तब्दील किया है, बाखुदा इसका इश्क जब तक परवान नहीं चढ़ता इसकी गर्द का मजा लेता रहूंगा. एक साल आठ माह तुम्हारे साथ रहने के बाद यकीनन तुम अजनबी नहीं रहे...तुझसे (औरंगाबाद) रफ्ता-रफ्ता मोहब्बत हो चली है.

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