मेरी आवारगी

एक हफ्ते और हादसों के पुलिंदे

जिंदगी कभी भी आपको आपदा प्रबंधन का हुनर सिखा सकती है और बदलने का सूत्र भी देती है। जीवन की एक घटना आपकी दशा व दिशा दोनों बदल देती है। गोया कि आप उन्हें सकारात्मक रूप से बतौर चुनौती स्वीकार करते हैं या फिर उनका रोना रोते हैं। अपन तो जिंदगी को हादसों का शहर ही कहते हैं। छह जून 2014 को दिहाड़ी से कुछ रोज की छुट्टी लेकर ताई जी की तेरवीं के लिए औरंगाबाद से निकला था, क्या पता था ये एक हफ्ता मुझे रफ्ता-रफ्ता कष्टों का तोहफा देगा।
   आठ जून को वाया इंदौर-भोपाल होता हुआ सतना से गाँव पहुंचा। कहते हैं मौत के बाद भी जीवन है। अब ताई जी का इस लोक से जाना भले ही दूसरा जीवन हो, हमारे लिय तो वो स्मृतियों में ही शेष हैं। आठ जून को मृत्योपरांत के रिवाज अनुसार शुद्ध का दिन था, जिसमें शामिल होने के बाद 12 जून को होने वाली तेरवीं (मृत्यु भोज) में उपस्थित रहना था। उसी रोज रात में औरंगाबाद वापसी की यात्रा मुकर्रर थी।
  तय किया हुआ कुछ होता कहाँ है। घर पहुंचने के अगले दिन ही नौ जून को वोडाफोन वालों ने बिल के फर्जी लफड़े में महाराष्ट्र वाला फोन नंबर बंद कर दिया। हालांकि मध्यप्रदेश के दूरभाष क्रमांक से अपना काम जारी रहा, जिसमें नेट की असुविधा को हल करने के ठीक बाद ही अपना स्मार्ट फोन भी धोखा दे गया। सैमसंग वालों का दूसरा साधारण मोबाइल पास था, उसी से काम जारी रहा। ये तो फर्जी समस्याएं थीं आगे और बहुत कुछ भी होना था।
  घर से दूर रहना अम्मा-पापा के लिए कष्टकारी होता है। उनके कामों की एक फेहरिश्त आपके लिए ही होती है, जो आपके घर आने के इंतजार में लटके रहते हैं। क्योंकि वो घर में अकेले हैं और सब निबटाना उनके वश में नहीं होता। जाते ही चाची जी ने कहा बेटा मेरी आँखें फिर से ज्यादा दर्द दे रही हैं, डॉक्टर को दिखाना है। उस दिन पारा सतना में 47 डिग्री के पार था और उसके ठीक एक रोज पहले 60 साल का रिकॉर्ड तोड़कर 48 के कुछ पॉइंट ऊपर था। ऐसे में फटफटिया से जाना लाजमी तो नहीं था, मगर बस में चाची जी को उल्टी की समस्या हो जाती है। इसलिए शुद्ध के तीसरे रोज दस जून को उन्हें फटफटिया से सतना लेकर डॉक्टर के पास पहुंचे।
   डॉक्टर हिमांसु अग्रवाल के यहाँ उनका पांच साल पहले मोतियाबिंद का ऑपरेशन हुआ था, वहीं उन्हें दिखाया। डॉक्टर का कहना था चाची जी की आँखें ठीक हैं थोड़ा परहेज करें और दवाएं लें। वो जांच के बाद बोले चश्मे के नंबर बढ़ गए हैं, अब इन्हें दूर और पास के दो अलग ऐनक बनवा दीजिए। उस रोज सुबह 10 बजे सतना पहुंचे थे, डॉक्टर को दिखाने तक 12 बज गए। कुछ खा-पीकर चश्मे की दुकान पहुंचे जहाँ से ऐनक लेकर निकलने में दोपहर के 2 बज गए।
   ऐनक वाले की दुकान से फटफटिया चली ही थी कि चाची उससे लुढ़क गईं और सड़क पर सिर के बल गिरने से खून निकल पड़ा। बाइक दस कदम भी नहीं चल पाई होगी, कहाँ अच्छे-भले वापस गाँव जा रहे थे और चाची को लेकर अस्पताल पहुंच गए। उनके गिरते ही बाइक रोड पर खड़ी करके ऑटो-ऑटो चिल्लाता रहा अधिकतर ऑटो वाले खून से लथपथ देखकर अनसुना कर गए। आखिर में एक हमउम्र ऑटो चालक ने उन्हें नजदीकी अस्पताल पहुँचाने में मदद की।
   अस्पताल पहुंचने से पहले के बीस मिनट कुछ भारी रहे। उनके गिरते ही फटफटी हल्की होने का आभास होते ही मैंने मुड़कर पीछे देखा, गाड़ी की पिछली सीट खाली थी और दस कदम पीछे रोड पर चाची सर के बल गिरी पड़ीं थीं। उन्हें सड़क से उठाकर मैंने एक किनारे किसी तरह बिठाया, तब तक आस-पास भीड़ जमा हो गई थी। खून से मेरे कुर्ते का बाजू सनकर मुझे ये बता चुका था कि चोट गहरी है। देखा तो उनका बाल बाँधने वाला बक्कल टूटा हुआ था। उसे अलग कर मैंने उनका स्कार्फ सर पर बाँध दिया। बक्कल चुभकर एक बारीक गहरा घाव कर गया था, जिससे खून रिस रहा था। उनका सफेद स्कार्फ और मेरा कुर्ता तब तक खून में रंग चुका था। उन्हें घायल देखकर आंसू बरबस ही बह निकले थे। पानी के छीटे मारने पर भी जब उन्हें होश नहीं आया तो रोड के दूसरे छोर पर सौभाग्यवश मौजूद एक डॉक्टर की क्लीनिक में उन्हें शुरुआती उपचार के लिए लेकर गया, मगर डॉक्टर ने कहा आपको नजदीकी सर्जन के पास चन्द्रा नर्सिंग होम जाना चाहिए मैं इनका इलाज नहीं कर सकता, क्योंकि ये सिर की चोट है। मेरे दिमाग में डॉक्टर के लिए गुस्सा आने से पहले ही आँख में आंसू थे इसलिए उस वक्त कुछ बोल न सका।
    चाची को गोद से नीचे उतारकर उसी डॉक्टर की क्लीनिक के सोफे पर लिटाकर मैं ऑटो लाने के लिए दौड़ा। किसी फ़िल्मी सीन की तरह रोड पर गुजरने वाले हर ऑटो रिक्शा को रुकाता रहा, मगर सबने अनसुना कर दिया। हादसा बिरला रोड पर हुआ था, बस स्टैंड आधे किलोमीटर दूर था दौड़ते हुए उस ओर लपका। खून से सना मेरा कुर्ता देखकर सब किनारा कर ले रहे थे। आखिर एक हमउम्र रिक्शा चालक मेरी पसीजी आँखों को देखकर रुका और चन्द्रा नर्सिंग होम जाने को तैयार हुआ जो वहाँ से बमुश्किल एक किलोमीटर की दूरी पर था। मैं ऑटो लेकर उस डॉक्टर के क्लीनिक पहुंचा जहाँ इलाज के लिए तो मनाही हुई थी, मगर वहीं सोफे पर चाची अचेत लेटी थीं। अगली जगह दो नर्सों ने मामूली पूछताछ के बाद ही उन्हें भर्ती कर लिया।
  प्रमुख चिकित्सक ने ड्रेसिंग करने के बाद कहा कि टाँके लगाने की जरूरत नहीं है। इनके बक्कल का एक सिरा बारीक सा छेद करता हुआ टूटकर सिर के अंदर रह गया था, जिसे अभी निकाल दिया है। सर की चोट है इसलिए इन्हें 24 घंटे निरीक्षण में रखना होगा। बस फिर क्या था शुरू हो गया बाटल्स और सिरिंजों के साथ दवाओं का सिलसिला। करीब पांच घंटे बाद जब उन्हें होश आया तो न तो उन्हें गिरने का समय समझ आया और न ही गाड़ी पर से हाथ की पकड़ ढीली होने की वजह। डॉक्टर के मुताबिक़ अचानक चश्मे वाली एसी दुकान से निकलकर 48 डिग्री पारे में आने से उन्हें चक्कर आया होगा और वो फिसल गईं होंगीं। कारण जो भी रहा हो उस आधे घंटे की घड़ी ने हिला दिया था मुझे। अगले दिन शाम में अस्पताल से छुट्टी मिलने पर गाँव-घर का रुख किया। मुसीबत यहीं नहीं थमी तेरवीं को गाँव के नजदीकी पेट्रोल पंप के पास हुई दुर्घटना में एक करीबी रिश्तेदार की भी मृत्यु हो गई। अगले दिन 12 जून को शाम में घर से निकले औरंगाबाद आने के लिए और यहाँ पहुंचते ही पता चला कि पिता जी सीढ़ियों से फिसल गए। खासी मोच आ गई है डॉक्टर को दिखाना होगा। चाची को भी अब दिखाते रहना होगा। सिटीस्कैन के बाद उनकी ठीक हालत का पता चलेगा। ठीक पांच साल पहले ऐसे ही एक हादसे में अम्मा बहुत घायल हुई थीं और एक माह जबलपुर के डॉक्टर जौहरी ने इलाज किया था।अम्मा स्वस्थ भले हैं, मगर सिर की उस गम्भीर चोट के बाद उनका बहुत खयाल रखना होता है। दो साल पहले अम्मा की ठीक हो चुकी उसी सिर की चोट ने हालत फिर गंभीर कर दी थी। फिलहाल सब ठीक है, मगर ठीक जैसा ठीक नहीं है। अब दिल इजाजत नहीं देता चार पैसे के लिए घर से दूर रहने की। बहुत जल्द बोरिया बिस्तर समेटकर नौकरी को प्रणाम करके गाँव कूच करना है। दो पैसे के लिए लाखों-करोंड़ों की सम्पदा जाने का डर अब लगातार सताता रहता है। यही सोच रहा हूँ कि जीवन की एक घटना आपको और जीवन को झकझोर कर बदलने के लिए काफी होती है।
( जसो डायरी : 12 जून 2014 : भोर पांच बजे )

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