मुझे दुःख के साथ कहना पड़ेगा के अब यहाँ बस दीवारें रंगी हैं, पढ़ाई के तेवर और कलेवर को संघ का चश्मा लगा दिया गया। अनाप-सनाप कोर्सों से लेकर फर्जी नियुक्तियों तक सब इन्ही आदरणीय के कार्यकाल में हुआ है, जिनका कार्यकाल बढ़ा दिया गया है।
कभी माखनलाल से निकलने वाले बच्चे खबर लिखने से लेकर पेज बनाने तक सारा प्रायोगिक ज्ञान विद्यालय में ही ले लेते थे आज ये हाल हैं के बच्चों को प्रायोगिक ज्ञान की बजाय बंद कमरों में फर्जी कक्षाओं से पत्रकारिता सिखाई जा रही। पत्रकारिता सिखाने के नाम पर बस क्लास बिना किसी प्रयोग के आधार पर दिए ज्ञान के।
मेरे काफी साथी इस बात से इत्तेफाक रखते होंगे के हमारे समय में विकल्प, पहल और फिल्म विभाग का एक और लैब जनरल निकलता था। इन साप्ताहिक और मासिक लैब जनरलों के सहारे हमने खबर सूंघने से लेकर लिखने तक सब सीखा। एक प्रेस हुआ करती थी माखनलाल विश्व विद्यालय की जिसमें ये सारे प्रायोगिक अखबार छपते थे। अच्युतानंद सर के समय में सेमिनार होते थे। देश भर के पत्रकार और चिंतक आते थे। न जाने कितनी कार्यशालाएं होती थीं। बच्चों को पत्रकारिता के नए-पुराने पुरोधाओं से मिलने को मिलता था। एक साझा मंच में चर्चा और ज्ञान का आदान-प्रदान होता था। अब सब महज खाना पूर्ति हो गई है।
पढ़ाई के बाद से अब तक कई बार भोपाल गया लेकिन रंगी दीवारों के अलावा यहाँ कुछ नहीं दिखा। वो लैब जनरल जो हमारी रीढ़ थे अब बंद हैं। ढ़ेरों फर्जी कोर्स शुरू हैं। विज्ञान पत्रकारिता का अपनी तरह का अनूठा कोर्स था जो इस क्षेत्र के पत्रकारिता करने वालों की अच्छी पौध तैयार करता था, वो भी निपटा दिया गया।
कहने को बहुत है साहब मगर विनती इतनी ही है कि फर्जी कोर्सों और कमरे में बैठाकर पत्रकारिता सिखाने की जगह प्रयोगों पर जोर दीजिये। कभी माखनलाल से निकलने वाला छात्र एक पूरा पका हुआ पैकेज होता था आज वो क्या बनकर निकलता है ये किसी से छुपा नहीं है। एक कड़े इंट्रेंस एक्जाम की जगह नंबर देखकर भी बीच में सीटें भरी गईं। अब न प्रयोग हैं, न संगोष्ठी, न वो प्रायोगिक अखबार, न वर्कशॉप और न ही बाहर से आने वाले लेक्चरर। बस दीवारें रंगी हैं और घोटालों का काला रंग, क्योंकि अच्छे पत्रकार बनाने की पढ़ाई का तौर-तरीका तो बेरंग हो गया है। दुखद है कि पिछले कुछ सालों में यहाँ दीवारें रंगने और नए फर्जी कोर्सों के साथ संघी विचारधारा को लाभ दिलाने वाले फर्जी प्रयोगों को ज्यादा तवज्जो दी गई है, वनस्पत इसके कि पत्रकारिता को सही तौर-तरीकों से सिखाया जाए। आपको जानकार आश्चर्य होगा कि बच्चों के वो वरिष्ठ साथी या पूर्व छात्र परिसर में कदम नहीं रख सकते हैं, क्योंकि उन्हें बाहरी ज्ञान लेना वर्जित किया गया है। पत्रकारिता घूमफिरकर सीखने और सिखाने वाली विधा है, मगर अब बंद कमरे मव घुटन भरे माहौल में पत्रकार गढ़े जा रहे हैं। आपको मेरी ओर से भी बधाई साहब हमारे विद्यालय को नए रंग में रंगने के लिए।
आपके विद्यालय का एक पूर्व छात्र
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