ये खून जब तक आँखों से नहीं टपकता और रगों में उबाल नहीं मारता लगता नहीं कि बढ़ते बलात्कार की रोक के लिए कुछ होगा। सरकारें आया और जाया करती हैं। इनके वश में 'मामले की घोर निंदा करना', 'एक सीबीआई जाँच बिठाना और सालों चलने वाली न्याय प्रक्रिया और दंड संहिता ही शेष है, जो बेहद सुस्त, लगभग सड़ चुकी और थकी हुई है। इसे अंग्रेजों के जमाने से ही हम ढोते चले आ रहे हैं, जिन्होंने इसे बनाया था उन गोरों के देश में हजार बार सजा के प्रावधान और न्याय प्रक्रिया की सहूलियतें नई सिफारिशों के आधार पर बदली जा चुकी हैं। मगर अपने यहाँ जमीनी आधार पर बदलाव नहीं होंगे। ये सफेदपोश काले लोग लगे रहेंगे विधानसभा और लोकसभा में प्रश्नकाल के वक्त मौजूदा सरकार को घेरने और पर्दे के पीछे से चढ़ावा वसूलने में। डूब मरो बलात्कार तो तुम सब सफेद टोपी वाले लोग कर रहे हो जनता की भावनाओं और उम्मीदों का सदियों से। हर जगह राजनीति की रोटी-दाल घुसा कर बस लीपा-पोती और वही वोट-खसोट। अपराध एक प्रवृत्ति है, जो आदमी की मानसिक वृत्ति बदलने से ही गायब हो सकता है। डेढ़ अरब से ज्यादा आबादी वाले देश में सोच बदलने से अच्छा है क़ानून बदलो दंड विधान बदलो और ऐसे दरिंदों को खुलेआम चीरना शुरू करो। राजाशाही समय में सख्त सजा प्रावधानों से ही अपराधों पर नकेल होती थी। न्याय व्यवस्था के सजा प्रावधानों और प्रक्रिया में सिरे से बदलाव की जरूरत है। जनता को भीड़ की शक्ल में खुद ही ऐसे मुकदमों का निपटारा कर देना चाहिए या तो इससे सरकारें जागेंगी या फिर अपराधी सो जायेंगे।
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