मेरी आवारगी

गाँव और वो अल्लहड़ शामें

मेरे धान के खेत एक पुराना फोटो

यारों की महफिल और गाँव का दाना-पानी बस याद ही आता है। इन सात सालों में गाँव और उसकी शामें काफी बदल गई हैं न अब वो बचपन के यार वहां रहे न ही वो मंजर। जब भी याद करता हूँ गाँव की वो पानी की बड़ी  टंकी याद आती है, जो कभी पानी तो सप्लाई नहीं कर पाई गांव में, मगर आवारागर्दी करने के लिए आज भी मुफीद है. उसमें बैठकर न जाने कितनी यादें संजोई गई हैं। यारों के प्रेस-प्रसंग से लेकर गांव की राजनीति के चर्चे और यारों के भविष्य के बड़े-बड़े फैसले और योजनाएं सिगरेट के धुएं के साथ वहीं साकार हुए हैं। उनमें से कितने जिस्म में सेना की वर्दी चढ़ाकर अब रौब डालते फिरते हैं। और कुछ तो आईटी में इंजीनियर हुए या कंम्प्यूटर पढ़कर देश ही छोड़ गए।
ये वही टंकी है जिसकी छत  पर हम कक्का के साथ बीती छुट्टी में गए थे
भांग के घोटे अब बंद हो गए हैं लोग दारु पीने लगे हैं
गाँव से दूर खेत में बनी बावड़ी 
वो शाम के दो-चार घंटे तफरी करने के लिए जब 10-12 छोकरों की टोली गांग के हरे मैदान पर रोजाना होने वाले फुटबाल अभ्यास खत्म हो जाने के बाद जब निकलती थी, तो बड़े-शयाने फब्तियां कसते बगल से निकल जाते थे। ‘देखा मिसिर के लड़िका एमबीए पूर कर लिहिस है औ पांड़े के लौंडा तो नौकरियो करें लगा है। एक पंडितजी के होनहार है ससुर  हिएन बना रहत है गांवे मां अबे लौ ओखर ओर-छोर न समझे पाए हैं बाप-महतारी। फिर चली है टोली कौनो के चना-मसरी के खेतबा-बारी उजड़ी आज’। तपाक से शंभू महाराज बोलत रहें सही कहे हो बड़कावन दुई साल बारवीं करिस ही ससुरा पढ़ें मा तो पहले नांव बनाए रहा गांव केर ससुर सरकारी स्कूल मां आवें के बाद प्रतिभा बुझाय गे लागत ही, दसवीं-बारहवीं तो जाने पढ़ें के जगह ढोते रहा जौन’। अब ये फब्तियां बदल सी गई हैं हम भी बाहर नौकरिया के चक्कर में फिरते हैं तो मिसिर के लड़िका की श्रेणी में शामिल हो गए हैं। उस वकत जब शयाने बगलें झांकते छीटाकसी करते थे, तो हम सब ठहाकों से जवाब देते थे। अब गांव में न साथ के वो गप्पबाज यार बचे हैं, न जिंदगी में ऐसे पल। सब इतने मशरूफ हुए हैं कि उन्हें गप की फुर्सत ही नहीं रही है।
बावड़ी का ऊपरी हिस्सा
सबके अपने-अपने द्वंद शुरू हो गए हैं, यार आते भी हैं तो घरों में ही घुसे रहते हैं मां-बाप और बीवियों के पास। निकलना हुआ भी तो कुछ गिने-चुना सा समय होता है। बस वही याद करते हैं कि जब शाम जवान होती थी गाँव के किसी खेत में यारों की गलबहियों के साथ खुले आसमान पर धुएं के कुछ छल्ले और इधर-उधर की बातें। अहा क्या दिन थे। बारिश तो जैसे बहार लाती थी गाँव का वो नाला जो कभी नदी हुआ करता था, अब नाला भी नहीं रह गया है। उसमें पानी जब ऊपर से बहता था। दो किलोमीटर दूर तक उसके उस छोर पर ट्यूब लेकर जाना और उससे तैरकर पुलिया तक वापस आना। दिनभर चलने वाला ये खेल बहुत मजा देता था। बरसात का पानी कितना भी गंदा हो हमारी उमंग उससे धुंधली नहीं कर पाती थीं।  आज याद करता हूं तो लगता है कि जीवन बस रफ्तार के पंख लगाकर उड़ता रहता है और पीछे छोड़ जाता है बस यादें यादें और यादें। ऐसा कभी नहीं हुआ कि गांव  में रहना हो और शाम की महफिल न हो।
गाँव में छत से ली गई उगते सूरज की तस्वीर
गाँव में घर से ली गई चौराहे की तस्वीर
वो गांव के दूसरे छोर पर हर मौसम में लहलहाने वाले खेत और घास से पटी पड़ीं उनकी सख्त मेड़ें जिन पर लोटना प्रेमिका की गोद जैसा आनंद देता था। जवानी के शुरुआती दौर में जो हमकदम शहर अपनी पढ़ाई करने चले गए वो जब भी गांव आते आसमान के नीचे धुएं को गलक करने का मौका बस वहीं मिलता था. फिर शुरू होती कुछ किस्से-कहानियों की महफिल बचपन की यादें और जवानी की नई इबारतों से मढे पन्ने। सब चटकारे लेकर सुनाते और न जाने कब शाम रात में बदल जाती। किसी को घड़ी की परवाह न होती थी। तब बैरी मोबाइल नहीं था और न ही कोई झंझट। अब तो एक घंटा नहीं गुजरता हर किसी का मोबाइल टूं-टूं करने लगता है। बेटा कहां हो खाना नहीं खाना है क्या। ‘फिर रहे होगे अपने आवारा दोस्तों के साथ फलां-फलां भी तो आया है अबकी होली की छुट्टियों पर तुम लोगों की तो बातें ही खत्म नहीं होतीं। देखो भांग पीकर मत आना और वो तुम्हसो दोस्त तो बाहर चले गए अपने काम-काज से लगे हैं। एक तुम हो बारवीं जमात भी दो बार में निकाली और अब बीए के इम्तिहान सर पर हैं तो आवारागर्दी करते फिर रहे हो। बाज आ जाओ बेटा गांव की टंकी और फील्ड पर बैठना छोड़ दो किताबों को भी अपनी शक्ल दिखाओ। पापा नाराज होते हैं तुम कुछ करना भी चाहते हो या नहीं ’।
अब तो गांव की शक्ल भी बदलती जा रही है, वो जो होली-दिवाली और दशहरा में सालों बाद कभी गाहे-बगाहे गांव में मिल भी जाते हैं, उन्हें इतनी फुर्सत ही नहीं होती कि बैठकर घड़ी दो घड़ी बात कर लें। याद करता हूं तो साफ झलकती है वो अल्हड़ शाम जिसमें डूबते सूरज को देखना सुखद होता था गांव की उस पानी की टंकी से। जहां यारो ंकी गोद में सर होता था और सुनीता, गीता, विमला, गमला जैसी साथ में पढ़ने वाली सभी छोकरियों के लगाव और अलगाव के किस्से, जहां होली वाली रात के लिए बनती थी चौबे के खेत से चना चुराकर भुनने की योजना, होली में हमसे खुन्नस खाने वाले बड़े-बूढों को पे्रम से लपेटने की बहसें, गांव के दूसरे छोर पर पकती बेरी के बेर और आम के बगीचों से रातोंरात आम सफाया करने के जरूरी मुद्दे। कभी-कभी गांव की छिछोरी राजनीति और पड़ोसियों की कानाफूसी से लेकर देश की वर्तमान राजनीति पर कुछ सटीक टिप्पणियां भी हो जाती थीं। जिनमें मंडली के ज्यादा किताबें चाटने वाले भाई लोग सबको घंटों चाटा करते थे। बस यूं ही गुजरती थी हर शाम कि जब घड़ी रात के 12 बजाती थी, तो सबको याद आता था चलो अब घर को आंखें ऊं घ रहीं हैं, सुबह 6 बजे इसी मैदान पर फुटबाल भी तो खेलनी है। अब वो शाम नहीं है तो बस दो जून की रोटी का सच और संघर्ष की काली-बोझिल रेखाएं जो अक्सर छुट्टियों में आए हर दोस्त के चेहरे पर छुपाने की लाख कोशिशों के बावजूद साफ झलकती हैं। वो शाम कहीं खो गई है।






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