मेरी आवारगी

बस लिखने की भूख ने फलक पे बिठा दिया


एलिस मुनरो पर Geet Chaturvedi       का लेख 16/ 12/ 2013 को  नवभारत टाइम्‍स में छपा जिसे उनके फेसबुक अकाउंट से साभार साझा किया जा रहा है. 

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एलिस मुनरो बीस साल की उम्र से कहानियां लिख रही थीं, लेकिन जब उनकी कहानियों की पहली किताब छपी, तब तक उनकी उम्र सैंतीस साल हो चुकी थी। 'डांस ऑफ द हैप्पी शेड्स' शीर्षक की इस किताब को कनाडा का सबसे बड़ा साहित्यिक पुरस्कार मिला। जब वह पुरस्कार लेने गईं, तो अखबारों में साथी लेखकों ने ताना कसा, 'उनका व्यवहार किसी शर्मीली गृहिणी की तरह था।'

एलिस मुनरो को इस साल का नोबेल पुरस्कार मिलना न केवल एक बड़ी साहित्यिक प्रतिभा को उसका ड्यू मिलना है, बल्कि यह उस गृहिणी, जिसके लिए तमाम आर्थिक तंगियों के बावजूद बच्चों की परवरिश, पति की ज़रूरतों और घर के तमाम कामों से बड़ी कोई प्राथमिकता नहीं होती, के घरेलू संघर्ष के बीच अपनी रचनात्मकता से कोई समझौता न करने की जि़द का भी सम्मान है। इस समय 82 साल की मुनरो ने अपना ज़्यादातर लेखन डायनिंग रूम में किया, जहां रसोई और अन्य कामों से समय चुरा वह दो-दो, चार-चार पंक्तियां लिख लेती थीं। उन्होंने दो महीने के बच्चे को पालने में झुलाते हुए कहानियां लिखीं। टाइप करते समय जब दो साल की बच्ची नींद न आने की शिकायत करते हुए उनकी गोद में आकर लेट जाती थी, तब वह दाहिने हाथ से उसे थपकी देतीं और बाएं हाथ से टाइप करती रहतीं। (कहानी थी 'थैंक्स फॉर द राइड'।) ज़्यादा समय नहीं मिलता था, इसलिए वह छोटी कहानियां ही लिखती रहीं, कभी लंबी कहानी या उपन्यास नहीं लिख पाईं। यह कसक उनके भीतर आज भी है।

और एक दिन वह इतनी बड़ी लेखक बन गईं कि अपने लिखे हुए से अपना घर चला सकें, तो तमाम बड़े लेखकों के क़दमों पर चलते हुए उन्होंने अपने लिए एक बड़ा-सा दफ्तर किराए पर ले लिया, जिसमें उन्होंने तमाम किताबें सजाईं और लिखने के लिए बैठ गईं, पर वह वहां कुछ नहीं लिख पाईं। बड़ी मशक़्क़त के बाद उन्होंने एक कहानी लिखी, जो इसी थीम पर थी कि एक लेखिका अपने लिए दफ्तर बनवाती है, पर उसमें वह कुछ नहीं लिख पाती। (कहानी थी 'द ऑफिस'।)

उन्हें ऐसे जीवन की आदत ही नहीं थी, सो वह वापस अपने क़स्बे में लौट आईं। गांव-देहात की अपनी दुनिया में। जिस समय अंग्रेज़ी का पूरा साहित्य महानगरों के आसपास केंद्रित है, मुनरो उन गिने-चुने लेखकों में से हैं, जिनकी कहानियों की किरदार क़स्बाई लड़कियां होती हैं, जो अपनी छोटी-छोटी दुनिया में अपने स्त्री होने को कभी अभिशाप की तरह झेलती हैं, तो कभी अपनी मर्जी से अपनी पसंद का परचम बुलंद करती हैं। उनकी कहानियां घर, परिवार, स्त्रीत्व, मातृत्व के उन गलियारों में रहती हैं, जिन्हें बदलते दौर में पुराना विषय मान लिया गया है, लेकिन यही उनके लेखक का जीनियस है कि वह इनका ऐसा आधुनिक विश्लेषण करती हैं कि पाठक के रूप में हम चौंक जाते हैं। यह एक स्त्री की दुनिया के उन तिलिस्मी दरवाज़ों को खोल देती हैं, जिन्हें हम दरवाज़ा नहीं, बल्कि दीवार मानने की भूल कर रहे होते हैं। वह आख्यान रचने के ऐसे तरीक़े खोज लाती हैं, जो दिखने में बेहद सादे और सरल होते हैं, लेकिन उनके ज़रिए वह अपने पाठक की नसों में घुलती जाती हैं। बहिर्मुखी समाज में एक स्त्री के अंतर्लोक का चित्रण करने वाली मुनरो ऐसी लेखिका हैं, जिसे हर पुरुष को पढऩा चाहिए।

यह तथ्य है कि दुनिया में कहानियों या जिन्हें अंग्रेज़ी में शॉर्ट स्टोरी कहा जाता है, को ज़्यादा वज़न नहीं मिलता। हर कहानीकार से उपन्यासकार हो जाने की उम्मीद की जाती है। चेखोव के बाद कहानी-कला का लगभग अवसान मान लिया गया। उसके बाद भी कहानी में काफी काम होता रहा। मुनरो नोबेल के इतिहास की पहली लेखक हैं, जिन्हें शुद्ध तौर पर कहानी या शॉर्ट स्टोरी के लिए यह पुरस्कार दिया गया है। इससे पहले इवान बूनिन को 1933 में मिला था, पर बूनिन ने कई उपन्यास भी लिखे थे। मारकेस को पुरस्कार देते समय उनकी कहानियों को भी रेखांकित किया गया था, लेकिन हम सभी जानते हैं कि मारकेस की बसाहट उनके उपन्यासों में ही है।

यह मुनरो की कहानियों की शक्ति ही है कि उपन्यासों के इस दीर्घ-कालीन युग में वह कहानी विधा में यह पुरस्कार पाती हैं। उन्हें पूरे सम्मान के साथ 'आज का चेखोव' कहा जाता है। इस उपाधि की वैधता की गवाही उनकी कहानियों से बेहतर और कोई चीज़ नहीं दे सकती। उन्हें मिला यह पुरस्कार विश्व-साहित्य के स्तर पर कहानी या शॉर्ट स्टोरी को नया जीवन देने की राह प्रशस्त कर सकता है।

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कुछ तथ्‍य -

- कॉलेज की पढ़ाई के लिए स्कॉलरशिप ली, बाक़ी ख़र्च चलाने के लिए वेटर की नौकरी की, कई बार अपना ख़ून बेचा, तंबाकू कारखानों में काम किया या लाइब्रेरियों में पार्ट-टाइम नौकरी की, लेकिन लिखने को लेकर जुनून कभी कम नहीं हुआ।

- शुरुआती दौर में जब उनकी किताबें छपीं, तो साथी लेखक उन्हें पसंद नहीं करते थे। वह बेहद सुंदर थीं और उतनी ही प्रतिभावान-स्वाभिमानी, शायद इसीलिए उनके प्रति एक ईर्ष्‍या का भाव रहा। मुनरो को इस नापसंदगी के बारे में चालीस साल बाद पता चला।

- एक बार एक महिला ने चार सौ डॉलर का भुगतान किया ताकि मुनरो अपनी कहानी के एक चरित्र का नाम उसके नाम पर रख दें। 'फ्रेंड ऑफ माय यूथ' में नर्स के चर्चित किरदार को मुनरो ने उस महिला का नाम दिया- ऑड्रे एटकिन्सन।

- मुनरो ने अपने पहले पति जिम मुनरो के साथ कनाडा के विक्टोरिया में किताबों की एक दुकान खोली थी- मुनरोज़ बुक्स। आरंभिक वर्षों में उसमें इतना घाटा हुआ कि दिवालिया होने की नौबत आई। आज पचास साल बाद वह एक बड़ा गौरवशाली प्रतिष्ठान बन गया है।

- 22 साल के विवाहित जीवन के बाद मुनरो ने अपने पति को तलाक़ दे दिया। उन्होंने दूसरी शादी उस पुरुष से की, जिसे वह बरसों पहले कॉलेज में मन ही मन प्रेम करती थीं। उस पुरुष को उस प्रेम के बारे में पचीस साल बाद पता चला और उसके चार घंटे के भीतर ही दोनों ने साथ रहने का फ़ैसला कर लिया।

- मुनरो की कहानियां सबसे ज़्यादा 'न्यू यॉर्कर' में छपी हैं, पर पहली बार वहां छपने के लिए उन्हें बीस साल लंबा रिजेक्शन झेलना पड़ा। उनकी किताबें छपकर चर्चित हो चुकी थीं, फिर भी 'न्यू यॉर्कर' से उनकी कहानियां वापस आ जातीं, जिनमें जगह-जगह पेंसिल से टिप्पणियां और सुझाव लिखे होते।

- इस साल की शुरुआत में मुनरो ने लेखन से संन्यास ले लेने की घोषणा की थी, लेकिन नोबेल मिलने के बाद उन्होंने कहा कि इससे उन्हें फिर से लिखने की प्रेरणा मिल सकती है।

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