मेरी आवारगी

कभी-कभी किसान जाग जाता है

धान का खेत और अरमानों की फसल 
गांव में खड़ा धान का ये खेत केवल फसल से भरा खेत नहीं है। ये उम्मीद है एक खेतिहर की, उसके गाढ़े पसीने का फल, उसकी कठोर मेहनत का सुखद परिणाम जिसे कई रूपों में देखा जा सकता है। बीती बार जब गांव गया था तब मोबाइल से ये लहलहाती फसल का फोटो लपक लिया था। दिल में जिंदा किसान कभी-कभी जागता है और कहता है कि चल चलें गाँव की धरती पर कुछ  जाए। कहीं धरती के सीने पे बीज बोने का सुख महसूस करने का मन भी हो जाता है। लगभग एक दशक गुजरने को है मेरी धरती को लांघे हुए। पुश्तैनी किसानी वाले घराने से होने से चाहकर भी न तो पूरी तरह नौकरीपेशा हो पाया हूँ और न ही किसान बचा हूँ।
खेतों  पर काम करने की न वो थकान भरी रातें भूली हैं और न ही फसल आने के बाद अनाज की बोरियों में लबालब भरे अरमानों वाले दिन। जब आठवीं जमात में था तब से पानी सीचने से लेकर फसल काटने और गाहने तक लगभग काम करता रहा। रात-रात भर कपकपा देने वाली जाड़े की रातों में भी ट्यूबवेल से निकला गर्म पानी फसल के साथ-साथ अपनी प्यास भी बुझा देता था। क्या ठंड और क्या गर्मी। एक बार सतना-रीवा जिले में रिकॉर्ड तोड़ ठंड पड़ी थी। करीब दस साल पुरानी बात होगी। पारा इतना नीचे चला गया कि पाइपों के अन्दर का पानी भी जम गया। 


कुंहासे में पड़ी ओस की नाम बूंदें भी खेत पर बनी झोपड़ी के ऊपर बर्फ के छोटे टुकड़ों की  शक्ल में आ गई थीं। उस रात करीब 3 बजे तक लाइट के तीनों फेस रहे और मैं खेत पर डटा रहा। गेहूं की फसल पर दूसरी बार सिचाई का मौका था। ये अपनी बारी थी। पिता जी अमावस पर चित्रकूट गए थे और कमान अपने हाथों में थी। पानी सीचने वाला मजदूर भी केवल दिन में ही काम करता था इसीलिए रात को घर के किसी सदस्य को ही वहाँ रुककर फसलों पर पानी देना होता था। खेत की चौड़ी मेड़ पर बनी कांस की झोंपड़ी के बाहर 3 बजते ही मैं अलाव जलाकर बैठ गया। 

अब मोटर चलाने के लिए जरूरी तीनों फेस वाली लाइट की अगली शिफ्ट का इंतजार था, जो सुबह 6 बजे से शुरू होनी थी। अलाव से भरपूर गर्मी मिलने के बाद मैं रजाई की आगोश में चला गया। सुबह होने से पहले झोपड़ी में रखी टेबल घड़ी का अलार्म टांय-टांय कर उठा। आंख खुली तो पूरे कपड़ों सहित रजाई के अंदर की गर्मी से बाहर निकलने का मन ही नहीं हुआ। खाट में पसरे-पसरे जब ट्यूब वेल के इंडीगेटरों पर नजर पड़ी तो लाल, पीली और हरी तीनो बत्तियां जल रही थीं, मतलब लाइट आ चुकी थी, मैने जैसे ही मोटर चालू किया लगभग 10 मिनट बाद मेड़ से खेत के अंदर तक बिछा एक किलोमीटर पाइपों का जाल खुल पड़ा। घने कोहरे में जब एक हाथ को दूसरा न सुझाई दे एक घ्ांटे की कसरत के बाद किसी तरह से मैने पाइपों को पटक -पटक उन्हें अंदर जमी बर्फ से मुक्त कराया, दूसरी ओर बोर वेल से निकलने वाले गर्म पानी ने इस काम में काफी मदद की।
मुझे समझते देर नहीं लगी कि रात काफी जाड़े भरी थी, लेकिन आश्चर्य भी हुआ कि रातभर  निक्कर, एक स्वेटर और बिना किसी कनटोप के सहारे पानी भरे खेत में घुटनों तक घुसा कैसे रह गया। अब तो ये सोचकर ही कपकपी छूट जाती है। बहरहाल सवेरे के 9 बजे जब कोहरा धीरे-धीरे छटना शुरू हुआ और लाइट जाने को 3 घंटे बचे, मैं मोटर चालू छोड़कर घर निकलने को हुआ। तब तक झोपड़ी के मुंडेर पर बची रह गई बर्फ और पाइपों से समेटी बर्फ को एक बोरी में लेकर गांव में दिखाने के लिए साइकिल पर सवार होकर निकल पड़ा। ठीक आधे घंटे बाद चौराहे पर पहले से जमा कुछ लोगों को जब मैने वो बोरी खोलकर दिखाई तो लोगों को इतनी ठंड पड़ने पर भरोसा ही नहीं हुआ। 


करीब एक घंटे बाद जब आसमान पर पूरी तरह से सूरज खिला और खेतों में रात बसर करने वाले किसान गांव आए तो जगह-जगह रात भर गिरी सर्द और उसके प्रभावों के चर्चे होते रहे। ऐसे कई किस्से अब जब कभी याद आते हैं लगता है वो दिन फिर कब बहुरेंगे। बीते दो सालों से महाराष्ट्र के समृद्ध किसानों को देख रहा हूं, उनके बदले हुए खेती के तौर-तरीके और तकनीक का प्रयोग उन्हें दिनो-दिन आगे ला रहा है। तकनीक और आधुनिक कृषि के सहारे किसान अब न केवल अपने दिन बदल रहा है, बल्कि पूरे गांव को भी समृद्ध कर रहा है। महाराष्टÑ, पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों के कई युवाओं की कहानियां पढ़ चुका हूं, जिन्होंने लाखों की नौकरियों को विदा कर अपनी मिट्टी को गले लगाया है। वो न केवल तरक्की की नई इबारत गढ़ रहे हैं, बल्कि पूरे गांव के किसानों की जिंदगी बदल रहे हैं। 


अपनी मिट्टी से दूर कौन रहना चाहता है भला, अब विशुद्ध नौकरी हो चले इस बौद्धिक जुगाली वाले पेशे से भी कभी जी बेहद उकताता है। दिल कहता है कि चल चलें बोरिया-बिस्तर बांध लेते हैं, फिर उसी खेत की मेड़ पर एक शाम ताजी हवा को फेफड़ों में भरते हुए नहर से बहते पानी की कलकल के बीच बेफिक्री को जिएंगे। दादी जब से गई है घर-गांव बहुत याद आता है। बूढ़े हो चले मां-बाप के साथ जिंदगी के वो अनमोल पल जीने का जी हो चला है, जो बीते एक दशक से घर से दूर रहकर लगातार खो रहा हूं। दादी के जाने के बाद पहली बार अहसास हुआ कि इन 7 सालों में मैं 7 हफ्ते भी उनके साथ नहीं जी पाया, लेकिन घर वालों को कौन समझाए जो बेटों को बाहर रखकर ही खुश होते हैं। 


अब वो गांव बुलाता है मुझे रोज...हर रोज... कभी ख्वाबों में हरी घास के मैदान पर जीभर ओस पीता हूं, तो कभी फसल से बिछा खेत खीचता है मुझे ठीक वैसा ही जैसे ये शब्द खीचते हैं अपनी ओर। वो किसान ताउम्र जिंदा है और रहेगा, मगर अब वो बाहर आना चाहता है। वो पीपल का पेढ़ जो घर की मुंडेर से दिखता है, जिसकी सबसे ऊपरी पत्तियों की ओट से सूरज से निकलता है....वो याद आता है....बहुत याद आता है। जमीन को चीरने के बाद उससे फूटते अंकुर को देखने का सुख वैसा ही है, जैसा एक बाप को अपना बच्चा देखकर होता है। लौटूंगा मेरी धरती बहुत जल्द....मिलेंगे उसी बरगद के पेढ़  के नीचे जहां आखिरी बार अपना चैन बेचा था।


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