
इतना लचर और नक्कारा है हमारा कानून, इतनी सुस्त है न्यायपालिका और कितने दोगले हैं देश के नेता। हजारों मौतों के बाद बिगड़े लाखों घरों के लिए क्या किया बीते 30 सालों में ? कोई हिसाब है... मुआवजे की रकम की लूटखोरी उसके नाम पर हुए घपलों से फाइलें पट सकती हैं, अगर ईमानदारी से जांच हो जाए तो।
हर साल गैस त्रासदी की बरसी पर दिसंबर आते ही गैस पीड़ितों का विरोध तेज हो जाता है, फोटो खिचते हैं और पेपरबाजी के साथ वो मनहूस दिन विदा हो जाता है। भोपाल में गैस पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए न जाने कितने संगठन और एनजीओ जिंदा हैं, ये आप नहीं जानते। जाइये उधर जाकर जरा जांच-पड़ताल करिए पानी और दूध सब साफ हो जाएगा। वो विरोध करने वाले गैस पीड़ित कितने असली हैं और कितने नकली ये भी देखिए, लेकिन जिन्होंने वाकई खोया है... वो चेहरे अपने बुझे दिल से नौकरशाही और अफसरानों के आगे विरोध दर्ज कराते झुर्रियों में बदल गए हैं, मगर घटिया राजनीति और नक्कारे राजनेताओं की बिकी हुई इच्छाशक्ति के आगे न्यायपालिका भी शायद दम तोड़ देती है। यही वजह है कि एंडरसन मर गया, मगर देश वापस नहीं लाया गया।
कितने विरोध प्रदर्शन हुए, गैस पीड़ितों के विरोध को दबाने के लिए कितनी लाठियां भांजी गर्इं, न जाने कितने सर फूटे और फटे....नतीजा सिफर ही रहा। भोपाल को हमेशा करीब से महसूस करता रहा हूं, लेकिन चार साल पहले जब उस उजाड़ संयंत्र को घूमकर लौटा था...एक दूसरे भोपाल से रूबरू हुआ। आप किसी का दर्द बांट नहीं सकते, लेकिन उस भीषण गैस त्रासदी की गवाह वो उजाड़ औद्योगिक इमारत जो किसी श्मशान से कम नहीं है। वहां से गुजरकर आप महसूस कर सकते हैं, वो दर्द जो अब भी उधर पसरा है। भले ही अब उस संयंत्र के इर्द-गिर्द बस्ती आबाद हो चली हो, लेकिन वहां से गुजरती हर बूढी आंख उस खंडहर को देखकर दर्द से भर जाती है। जिन्होंने अपने खोए हैं, वो शायद इन तीस सालों में हर रात सोचते रहे होंगे कि हत्यारे को सजा क्यों नहीं?
खंडहर हो चले उस संयंत्र की टूटी हुई बाउंड्री वाल से अंदर जाना डरावना था, लेकिन जब आपके साथ जिंदगी हो तो डर कहां लगता है। कोई इतना अजीज उस वक्त साथ था कि उसके दम भी निकल जाता कसम खुदा कि कोई गम न होता। जब अंदर जाकर देखा तो दीवार की शुरुआती हद में कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे, उन्हें देखकर जरा राहत सी महसूस हुई। शाम के कोई पांच बज रहे थे, मेरी फटफटिया बाहर खड़ी थी। हम जैसे ही अंदर जाने को हुए बच्चों ने हमें रोककर कहा कि आप अंदर मत जाइये। अब शाम हो चली है और इस वक्त यहां कोई अंदर नहीं जाता, चौकीदार भी घर जा चुके होंगे।
अबे कौन सुनेगा बच्चों की चलो अंदर... यही सोचकर हम दोनों ने आगे कदम बढ़ाए ही थे कि कुछ दूर पर लगे कटीले तारों के बाड़े ने रास्ता रोक दिया। बाड़े के अंदर से ही दूर से एक आवाज आई कि ‘कहां चले आ रिये हो तुम लोग जहां आने की मनाई हे, परमीशन लेके आते हेंगे इधर लोग।’ हमने चिल्लाकर कहा कि पत्रकार हैं...बस यूं ही घूमने आए हैं खां, तो वो तपाक से बोला 5 बजे के बाद परमीशन भी खत्म हो जाता हेंगा, आप कल आओ खां।
शाम और उनका साथ होना याद आते ही मुझे लगा कि यहां से निकलना ही भला है। खैर बात आई-गई हो गई। काफी वक्त बाद मैं उस त्रासदी के गवाह उस खंडहरों पर भी गया और जो महसूस किया वो कुछ अजीब ही था। सारी रात का सोना हराम, बस भारी विचारों में कौंधता मन और गहरे तक धंसी वो खामोशी और दर्द, जो उसके पहले मैंने डोमनिक लेपियर की भोपाल गैस त्रासदी पर लिखी किताब से महसूसा था।
एंडरसन के मरने की खबर ने वो वाकया ताजा कर दिया, लेकिन त्रासदी को महसूर करने के लिए डेढ़ दिन ही काफी थे। एक पूरा दिन दोस्तों के साथ और उस आधी-अधूरी शाम में एक जोड़ा आंखों के साथ। कभी-कभी अजीब लगता है कि हमारे अंदर न जाने कितने इंसान हैं और कितने चेहरे कि हम रोते-हंसते सब हैं, मगर जब किसी भाव को जीने की बारी आती है तो उसके करीब से होकर दूर निकल आते हैं।
सरकारों और अफसरशाही ने गैस पीड़ितों के दर्द में चाहे जितने आंसू बहाए हों, उनके दर्द को जीने की कोशिश शायद किसी ने नहीं की। अगर की होती तो त्रासदी से पीड़ित लोगों को रुपयों के अलावा एक जेहनी सुकून भी दिया गया होता....उस हत्यारे को सजा सुनाकर। सजा तो दूर की कौड़ी ठहरी, उसको भारत लाने की गुहार दो दिन पहले आई एंडरसन की मौत की खबर के साथ हमेशा के लिए दब गई। देश की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी का जिम्मेदार अपनी पूरी जिंदगी आराम से जीकर दुनिया से उठ गया, लेकिन पकड़ा नहीं गया साहब, वो पकड़ा नहीं गया। क्योंकि एंडरसन कभी पकड़ाया नहीं करते... वो भूत हैं...रह-रहकर सताया करते हैं।
न जाने ऐसे कितने एंडरसन हैं जो कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति लचर कानूनों के चलते खुलेआम घूम रहे हैं। दरअसल वो भूत ही हैं, जो आराम से हर जगह बेरोक-टोक आया-जाया करते हैं। न जाने उस वक्त की सरकारों पर ऐसा क्या और कितना दबाव था जो रातों-रात उस हत्यारे को चार्टेड प्लेन से देश के बाहर भेज दिया गया, हां उसके जाने के बाद गैस पीड़ितों को पैसा बहुत बांटा गया, जो जरूरतमंदों तक पहुंचा भी और शायद नहीं भी।
0 Comments