मेरी आवारगी

ये उजड़ी बहारों वाला मौसम

मार्च-अप्रैल की तेज होती धूप और जवान होती गर्मियों में ताड़ से लेकर नीम तक के इधर-उधर बिखरे पत्ते उदासियों का मौसम लेकर आते हैं। अजनबी शहर के मैदानों से लेकर सड़क के किनारों तक बिखरे पत्ते और उड़ती धूल दूर ले जाती है। जैसे जिंदगी से भी टपक रहे हैं कितने पल...जरा से बोझिल तो कुछ उदासी और ऊब से भरे, कहीं ओस से भीगे जैसे बसन्ती सुबहों में पत्तों पर झलक रहे हों।
     कितना कुछ समेट कर चलती है कुदरत। इन दोपहर की रात के सूनेपन में जिंदगी का अंधेरा और कभी-कभी अपना बिखराव भी दिखा देते हैं। कहीं कोई दूर बैठा ये मौसम देखकर सोचता होगा शायद कि न जाने कितनी रातों से सितार सा बजता रहा हूँ। इक जिंदगी में उसका भी कोई उदास पहलू होगा। कोई स्याह सच शायद जिसे मानने को उसकी आत्मा गवाही न दे। दिमाग मना कर दे मगर जो सामने टपक रहा है वो कुछ और ही कहता है।
  कहीं तेरी उदास कनखियों से जब भी निहारता हूँ अपलक तो जेहन बहने लगता है। ये उदासियाँ भी मौसम के साथ आती हों शायद। चिलमिलाती धूप जहाँ घर में सिकुड़ कर बैठने को मजबूर कर देती हैं, वहीं बरसती बूंदें भीगने को कहती हैं। हरियाली में जी झूमने को होता है, तो बसन्ती पवन इश्क में बहने का राग कानों में घोल जाती है। सब लपेट रखा है हवा और इन फिजाओं ने।
    शहर की बेजान इमारतों में जहाँ छतें तप रही हैं, दूर कहीं गाँव में आम के पेड़ के नीचे नदी किनारे ठंडी हवा बह रही होगी। अपने आमों की रखवाली करता कोई बुजुर्ग अपने नाती-पोतों के साथ जिंदगी की बहारें लूट रहा होगा। यहाँ शहर सड़कों से लेकर इमारतों तक जेहन को तपा रहा है और बगीचे में आम से लदे पेड़ उम्मीदों को जगा रहे होंगे।
    पके हुए आम में सूखी रोटी का स्वाद जन्नत से कम नहीं होगा। बगीचे में बैठकर नून में भी रोटी खाओ तो पकवान सा स्वाद आता है। ये खाने का नहीं मौसम में मिली उस बहार का सोंधापन है, जो तपती दोपहर में भी मजा दे जता है। लड़कपन।के दिन याद आते हैं तो लगता है बगीचे में गुजरी दोपहर ने ही आम की मिठास से मिलाया था वरना बाजार से आम खरीदकर खाने को ही आमों का मौसम समझते रहते।
   कितना कुछ पीछे छूट गया है शहर में आकर मौसम बस आया और जाया करते हैं। बहारें यादों में आती हैं और गायब हो जाती हैं। जब भी इन्हें जिंदा करना चाहो ये अनमने से ख़्वाब सच्चे नहीं होते। बचपन से जवानी तक गर्मी की हर दोपहर ने जहाँ बगीचे में जिंदगी बिखेरी हो। अब वो शहर के वीराने में काटने को दौड़ती है।
    पेड़ पर चढ़कर करिया, बसैन्धआ, गुल्ला, कोयली, सुपाड़ी, नतनगरा और ठिर्री के आम तोड़ना भी गजब था। घर से बांधकर लाई मां के हाथ की रोटी वाली पुंगी और तुरत तोड़े आम का अंदर जाता रस। अहा कैसा स्वाद था रे खरीदकर लाये हापुस में भी नहीं आता। दशहरी से लेकर मालधा तक गाँव में जिसके भी बगीचे में थे सब रातभर में पार कर दिए जाते थे। शिकायतें भी होतीं तो श्याने कहते 'अमुआ न चुराइस है लै जा बिहाने हमरे बगैचा से सैकड़ा दो सैकड़ा'। कितनी गन्ध भरी है गाँव के मौसम की जब भी अजनबी शहर में होता हूँ उड़ने लगती है अंदर से।
खासकर ये तपती दोपहर और उदासियों को जगाने वाला अहसास जो गाँव में आम की छाँव और जामुन के रसीले स्वाद में बेइन्तहां मीठा हो जाता है। शहर में तो बस उदास ही करता है ये मौसम। कितना खूबसूरत होता कि गाँव जो अब शहर हो रहा है वो गाँव ही रहता या फिर हर शहर में कोई गाँव होता।

मोबाइल से घुमककदी के दौरान कैद महाराष्ट्र की कोई शाम  

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