मेरी आवारगी

शहर की सड़क का पिघलता डामर और गाँव


फोटो गूगल बाबा की कृपा से।  

देह को भेदती गर्मी और शहर की सड़कों का पिघलता डामर गाड़ी के पहियों से जब चिपकता है, तो उसके साथ इक ऊब भी चिपक जाती है। गाड़ी का पहिया धीमा हो जाता है और पहिये से चिपकते डामर से  गाँव की याद चिपक जाती है। सड़क से होता हुआ दिल अक्सर गाँव की कच्ची गली में उतर जाता है, जो गर्मी में आम के बगीचे तक ले जाती है। बगीचे में झूमता मिलता है वो बचपन।

आम की डाली का झूला, नदी का बहता पानी, कुएं में बना कबूतर का घोसला, पेड़ के नीचे बनी झोपड़ी और पके आम के साथ घर की रोटी का स्वाद अंदर तक घुल जाता है। जब अलसाई सुबहों से घुलती तपन शाम के साथ ढलती है, तो दूर शहर की सबसे ऊँची इमारत के नीचे सूरज छिपता है।

गाँव में खेत से लगा मैदान अपने दूसरे छोर पर ही निगल लेता है ढलता सूरज।  कितनी अलग सुबह-शाम महसूस होती है। गांव कभी-कभी अंदर धँस जाता है। इस ऊब भरे मौसम में जब शहर की गर्मी देह को भेदती है तो गांव के बाग की लू भी चेहरे को चूम जाती है। किसी नुक्कड़ पर कुछ ताश के पत्ते उछल रहे हैं तो अगले नुक्कड़ पे चौसर सजा दिखता है। घर के किसी कोने में चंदा-गोटी कौड़ियों के साथ बिछा है और दोपहर खिसक रही है।

शाम होते ही ढोर खेत से लौटते हैं जिन्हें गर्मियों में फसल कटते ही ऐरा (आवारा ) कर दिया गया है। यूँ तो वो अक्सर लौट आते हैं, मगर जेठ भर उन्हें मनमर्जी से चरने की छूट है। अनायास हाथ एक्सीलेटर बढ़ा देता और गाड़ी का पहिया तेज हो जाता है...शहर की सड़क का डामर चिपकना छोड़ता है और गाँव की याद दूर छिटक जाती है....गाड़ी आगे निकल जाती है.....।।

"ख्वाबों पे जब नींद का पहरा हो जाए, यादों का आसमान गहरा हो जाए...वहीं ठिठके मिलेंगे बारिशों में भीगते....आवारा ढूंढ लेना इससे पहले के सावन में कोहरा हो जाए"

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