भोपाल तुम छूट गए मगर कभी जेहन से नहीं गए। तीन साल से तुमसे दूर हूँ। इस अजनबी शहर में कोई भी मौसम आता है सबसे पहले दिल पर तुम्हारा अक्स उभर जाता है। बारिश औरंगाबाद में होती है और मेरे अंदर तुम बरसते हो। शाम यहाँ ढलती है और मैं तुम्हारी झील पर खड़ा होता हूँ। ये तुम्हारे साथ जिए जिन्दगी के सबसे खूबसूरत और सुनहरे वक्त का साया है जो शायद कभी मेरा पीछा नहीं छोड़ेगा।
तुमसे जो ये बारीक सा नाता हुआ है उसमें माखनलाल राष्ट्रीय पत्रकारिता एवम संचार विश्वविद्यालय का पूरा योगदान है। वहीं पत्रकारिता सीखने-पढ़ने और समझने के लिए दाखिला लिया था। जुलाई 2007 में 2 साल के लिए तुम्हारी धरती पर कदम रखा था। पहली बार घर से बाहर लम्बे समय के लिए आया और विवि दूसरा घर हो गया। माखनलाल का पत्रकारिता विभाग और बाबा इन्होने इतना अपना कर लिया के कभी लगा ही नहीं घर से दूर हूँ।
यहाँ पढ़ाई की, नए दोस्त बनाए, जिंदगी जीना सीखा और भोपाल तेरी सड़को में धूल फांकते, खबरें सूंघते कब तुझसे इश्क हो गया पता ही नहीं चला। तुमसे मोहब्बत तो केवल पत्रकारिता के नाते से हुई प्यारे। वो चार पन्ने के लैब जर्नल 'विकल्प' के लिए लैब में रातों का जागना, प्रतिभा के लिए दिनभर रिहर्सल, असाइन्मेंट के लिए देर तक लाइब्रेरी, रिपोर्टिंग के बहाने भारत भवन की नाटक संध्या और रविन्द्र भवन की संस्कृतिक संध्या का लुत्फ़ अब तक नहीं भूला है। विवि में रहते हुए जितनी छूट और आजादी का माहौल पढ़ने-सीखने को मिला उसने आज तक इस पेशे में कहीं शर्मिंदगी नहीं उठाने दी।
साप्ताहिक लैब जर्नल विकल्प के लिए हर सप्ताह बनने वाली 5 लोगों की सम्पादकीय टीम सप्ताह भर की खबरों की कैसे काट-छांट करती थी। सम्पादकीय लिखा जाता था। क्वार्क पर पन्ने बनते थे और हमारा ले आउट मास्टर अमेटा घंटों जूझा रहता था। देर रात तक लैब में रुकने वालों को खाना खाने का जब होश न रहता तो जागरण के दफ्तर के सामने से हमारे सीनियर्स गुप्ता के पोहे पैक करा लाते थे। वही अपना रात का भोजन रहता था। डिपार्टमेंट के नीले सोफे पर बारी-बारी कुछ भाई लोग कमर भी सीधी कर लेते थे। लैब की खिड़की से जब सूरज की रौशनी अंदर आती थी तब सवेरा होने का अहसास होता था। फिर भागमभाग शुरू होती जल्दी से कमरे जाकर तैयार होकर 7 बजे चौरे सर की क्लास के लिए वापस आने की।
कभी-कभी विकल्प के नाम पर रात भर जागने के बहाने बंक मार भी लेते तो खुद को सही न लगता। चौरे सर पढ़ाते ही ऐसा थे के अगर कुछ छूट जाता तो मजा नहीं आता था। उनके पास न जाने कहाँ-कहाँ के किस्से होते और 60 साल की उम्र में भी पढ़ाने का वो जज्बा। क्लास में कभी 4 लोग भी रहे तो वो पढ़ाते जरूर थे।
और हाँ शनिवार की संगोष्ठी का तो कहना ही क्या। किसी एक समसामयिक विषय पर बोलना होता था, एक सप्ताह पहले विषय नोटिस बोर्ड पर चस्पा हो जाता था। सब तैयारी के साथ आते थे, लेकिन सारे वक्ता जब बोलकर थक जाते तो शुरू होता चौरे सर का आकलन। ऐसा बारीक विशलेषण करते कि बोलने वाले की तैयारी में हजार कमियाँ साफ़ झलकने लगतीं।
सीनियर विकल्प की रिपोर्टिंग करवाते तो तेल निकाल लेते थे, लेकिन जब फ्रेशर्स पार्टी होती तो उतनी ही मौज-मस्ती भी होती थी। मजाल के कभी कोई बीमार पड़े और कमरे पर रह जाए। सारे सीनियर न जाने कहाँ से आते और अस्पताल-डॉक्टर सब हो जाता। चार दिन का बीमार 2 घंटे में ठीक हो जाता था वो अपनापन देखकर। घर की याद आई तो कभी भी बाबा से चिपटकर रो लेते और बतियाकर मन हल्का कर लेते। होली-दिवाली हो या ईद या जन्म दिन सब विवि में मनाया जाता।
ये सारा किस्सा इसलिए लिख रहा हूँ कि उन दो सालों में विवि में जिया हर पल अंदर सिमटा है। अब जिसे ये सब जीने को नहीं मिला उसे क्या ख़ाक समझ आयेगा के विवि दूसरा घर कैसे बन जाता था और हर किसी को भोपाल में यहाँ पढ़ने के बाद उसकी गलियों-चौराहों और झील से मोहब्बत क्यों हो जाती थी। जिंदगी के बहुत छोटे से हिस्से के ये रूहानी किस्से हैं जो शायद अब नहीं होंगे।
तुमसे जो ये बारीक सा नाता हुआ है उसमें माखनलाल राष्ट्रीय पत्रकारिता एवम संचार विश्वविद्यालय का पूरा योगदान है। वहीं पत्रकारिता सीखने-पढ़ने और समझने के लिए दाखिला लिया था। जुलाई 2007 में 2 साल के लिए तुम्हारी धरती पर कदम रखा था। पहली बार घर से बाहर लम्बे समय के लिए आया और विवि दूसरा घर हो गया। माखनलाल का पत्रकारिता विभाग और बाबा इन्होने इतना अपना कर लिया के कभी लगा ही नहीं घर से दूर हूँ।
यहाँ पढ़ाई की, नए दोस्त बनाए, जिंदगी जीना सीखा और भोपाल तेरी सड़को में धूल फांकते, खबरें सूंघते कब तुझसे इश्क हो गया पता ही नहीं चला। तुमसे मोहब्बत तो केवल पत्रकारिता के नाते से हुई प्यारे। वो चार पन्ने के लैब जर्नल 'विकल्प' के लिए लैब में रातों का जागना, प्रतिभा के लिए दिनभर रिहर्सल, असाइन्मेंट के लिए देर तक लाइब्रेरी, रिपोर्टिंग के बहाने भारत भवन की नाटक संध्या और रविन्द्र भवन की संस्कृतिक संध्या का लुत्फ़ अब तक नहीं भूला है। विवि में रहते हुए जितनी छूट और आजादी का माहौल पढ़ने-सीखने को मिला उसने आज तक इस पेशे में कहीं शर्मिंदगी नहीं उठाने दी।
साप्ताहिक लैब जर्नल विकल्प के लिए हर सप्ताह बनने वाली 5 लोगों की सम्पादकीय टीम सप्ताह भर की खबरों की कैसे काट-छांट करती थी। सम्पादकीय लिखा जाता था। क्वार्क पर पन्ने बनते थे और हमारा ले आउट मास्टर अमेटा घंटों जूझा रहता था। देर रात तक लैब में रुकने वालों को खाना खाने का जब होश न रहता तो जागरण के दफ्तर के सामने से हमारे सीनियर्स गुप्ता के पोहे पैक करा लाते थे। वही अपना रात का भोजन रहता था। डिपार्टमेंट के नीले सोफे पर बारी-बारी कुछ भाई लोग कमर भी सीधी कर लेते थे। लैब की खिड़की से जब सूरज की रौशनी अंदर आती थी तब सवेरा होने का अहसास होता था। फिर भागमभाग शुरू होती जल्दी से कमरे जाकर तैयार होकर 7 बजे चौरे सर की क्लास के लिए वापस आने की।
कभी-कभी विकल्प के नाम पर रात भर जागने के बहाने बंक मार भी लेते तो खुद को सही न लगता। चौरे सर पढ़ाते ही ऐसा थे के अगर कुछ छूट जाता तो मजा नहीं आता था। उनके पास न जाने कहाँ-कहाँ के किस्से होते और 60 साल की उम्र में भी पढ़ाने का वो जज्बा। क्लास में कभी 4 लोग भी रहे तो वो पढ़ाते जरूर थे।
और हाँ शनिवार की संगोष्ठी का तो कहना ही क्या। किसी एक समसामयिक विषय पर बोलना होता था, एक सप्ताह पहले विषय नोटिस बोर्ड पर चस्पा हो जाता था। सब तैयारी के साथ आते थे, लेकिन सारे वक्ता जब बोलकर थक जाते तो शुरू होता चौरे सर का आकलन। ऐसा बारीक विशलेषण करते कि बोलने वाले की तैयारी में हजार कमियाँ साफ़ झलकने लगतीं।
सीनियर विकल्प की रिपोर्टिंग करवाते तो तेल निकाल लेते थे, लेकिन जब फ्रेशर्स पार्टी होती तो उतनी ही मौज-मस्ती भी होती थी। मजाल के कभी कोई बीमार पड़े और कमरे पर रह जाए। सारे सीनियर न जाने कहाँ से आते और अस्पताल-डॉक्टर सब हो जाता। चार दिन का बीमार 2 घंटे में ठीक हो जाता था वो अपनापन देखकर। घर की याद आई तो कभी भी बाबा से चिपटकर रो लेते और बतियाकर मन हल्का कर लेते। होली-दिवाली हो या ईद या जन्म दिन सब विवि में मनाया जाता।
ये सारा किस्सा इसलिए लिख रहा हूँ कि उन दो सालों में विवि में जिया हर पल अंदर सिमटा है। अब जिसे ये सब जीने को नहीं मिला उसे क्या ख़ाक समझ आयेगा के विवि दूसरा घर कैसे बन जाता था और हर किसी को भोपाल में यहाँ पढ़ने के बाद उसकी गलियों-चौराहों और झील से मोहब्बत क्यों हो जाती थी। जिंदगी के बहुत छोटे से हिस्से के ये रूहानी किस्से हैं जो शायद अब नहीं होंगे।
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