मेरी आवारगी

शायद फिर मन का कोई कोना सूना रह गया !!

सुशांत सिंह राजपूत / चित्र साभार : गूगल

जीवन की आपाधापी के बीच शायद फिर कोई मन का कोना सूना रह गया। कोई खिड़की भी खुली न रह गई कि प्रेम और स्नेह की बौछारें महसूस हो सकें। उन बंद किवंड़ियों के पीछे यकीनन बहुत शोर सुनाई देता हो, लेकिन अंदर का अकेलापन, उसादी, मायूसी, बेचैनी रूह को खाली कर गई। फिल्मी पर्दों पर लाखों किरदारों को जीने वाले लोग जब ऐसा कदम उठाते हैं, तो लगता है कि उनका असली किरदार पर्दों में जी गई जिंदगी में ही कहीं गुम हो गया है। जीवन में अवसाद का इतना खारापन आखिर कैसे इकट्ठा हो जाता है कि लाखों चाहने वालों की भीड़ के बीच कोई एक मीत न मिले। कोई एक मन का कोना न मिले, जहां अपनी उदासियां, खामोशियाँ, नाकामियां और बेचैनियां कुड़ेली जा सकें। क्या इतनी खोखली है फिल्मी पर्दों के पीछे की दुनिया कि प्रेम और स्नेह का जरा सा पराग नसीब न हो सके। इस रंगीनियत की दुनिया में शायद इतना भी शहद नहीं कि जीवन की मिठास कायम रह सके।

अपनी ही फ़िल्म में आत्महत्या के विरोध को लेकर खड़ा रहने वाला अभिनेता, महेंद्र सिंह धोनी जैसे असल नायक की जीवट जीवनी को पर्दे पर जीने वाला अभिनेता जब आत्महत्या करता है, तो मन की बेचैनी और बढ़ जाती है। लगता है कि कोई कलाकार जीवन को लेकर इतना अवसादग्रस्त कैसे हो गया ? आखिर क्यों अपनी जिंदगी को मौत के दरवाजे तक ले जाना पड़ा? उसके मन का आंगन क्या इतना सूना रह गया कि वह अवसादग्रस्त हो गया ? अपनी उलझनों को कहीं तो जज़्ब करने का ठिकाना उसने बना रखा होगा ? यदि नहीं तो शायद उसके अवसाद को सोख लेने वाला स्नेह ही उस तक नहीं पहुंच सका। फिर लगता है कि वो इतना भी अभागा तो नहीं था। यकीनन उसने अपने सूनेपन और एकांत के आंगन में किसी को जीवन के उत्सव की इजाजत ही नहीं दी होगी। शायद इसीलिए फिर वो मन का कोना सूना ही रह गया...!! सुशांत तुम्हें मृत्यु के इस आखिरी उत्सव से बचना चाहिए था दोस्त।

जिंदगी के इस सूनेपन से उबरने के लिए स्नेह की बौछारों की ओर भागते तो बेहतर था। खैर कभी-कभी जीवन के तमाम हिस्सों और अपनों के किस्सों के बीच ऐसा भी होता है कि अपनी बेचारगी पर रोने और हंसने वाला कोई मौजूद नहीं रहता। इसलिए खुद पर हंसना और रोना सीख लेना होता है। अवसाद से भरी मन की गठरी किस काम की, जो आपको इतने अकेलेपन से भर दे कि आप मृत्यु के आलिंगन को विवश हो जाएं। याद रखिये रिश्तों की भीड़ आपका मस्तिष्क नहीं पढ़ सकती है। इसलिए अपनी गठरी को खोलते रहिये। मन की गांठे सुलझाते रहिये। अपनेपन और भावनाओं के मरहम से असफलता, लाचारी, बेचारगी के दर्द का इलाज करते रहिए। लाख विफलताएं हों तो क्या जीवन में कुछ कंचे वाले दोस्त होंगे, कुछ स्कूल-कॉलेज के यारबाज अपना सारा खारापन बस वहीं कुड़ेल दीजिए। धीरे-धीरे इतना अवसाद इकट्ठा मत होने दीजिए कि मवाद की तरह आपके मस्तिष्क से बह निकले और बुद्धि हर ले।

मरना इतना भी आसान नहीं होता है। उसके लिए बहुत हिम्मत बटोरनी पड़ती है। खुद ही मुक्त होना पड़ता है जिंदगी के हर मोह से। यह बहुत कठिन है। मौत के सारे खयाल बस एक इसी खयाल से हवा हो जाते हैं कि मेरे जाने के बाद अपनों का क्या होगा ? जीवन में न जाने कितने लोग आते हैं, जुड़ते हैं, मिलते हैं, बिछड़ते हैं। जीवन बड़ा अप्रत्याशित है, भारी रहस्यों से भरा हुआ। कब किस पल क्या घट जाए कुछ पता नहीं। ऐसे में जो मन के अंदर घट रहा है, लगातार आपकी चेतना को मथ रहा है। उसका चिंतन बहुत जरूरी है। न जाने कितने मन होंगे, जो रोज आत्महत्या के विचारों को मारते होंगे। शायद उन्होंने अपने अकेलेपन से पार पाना सीख लिया है। इसलिए आसपास भीड़ इकट्ठा करने से बचिए और मुट्ठी भर ही सही कुछ कंधे, कुछ मन के कोने ऐसे रखिये, जहां खुलकर अपना अवसाद कुड़ेला जा सके। घुलते-मिलते रहिये। रंग भरते रहिये। जिंदगी को मुस्कराने दीजिए।


© दीपक गौतम

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