उन बगीचों में खड़ा एक दरख्त जो कभी हमारे 'इमली का डंडा' खेलने की जगह था |
हर आम का नाम उसकी खूबी के हिसाब से रखा जाता था जैसे अकेलबा मतलब जो बगीचे से दूर अकेले लगा है इसीलिए अकेलबा उसका नाम हो गया। लंबी वाली मतलब जिसके आम लंबे होते थे। चपटुआ मतलब जिसका आकार चपटा होता था। जो आम सुपाड़ी की तरह था वह सुपाड़ी कहलाता था। लदबदू मतलब जो फलों से लदा रहे। अब इनके अवशेष ही बचे हैंं। कितना समय बीता है इनकी छांव में इनके नीचे। आम के रस से लेकर रोटी, अचार और चटनी तक सब यहीं चट किया जाता था। अपने बचपन की पूरी गर्मियों की छुट्टियों की दोपहर यहीं गुजर गईं। अब तो नए छोकरों को टीवी और मोबाइल से फुर्सत ही नहीं इस जन्नत का मजा उठाने की। हालांकि अब वो दौर भी नहीं रहा न वैसे बगीचे बचे हैं।
धीरे-धीरे वो दरख्तों से भरे आम के बगीचे अब दो-चार पेढ़ों को लिए ही खड़े नजर आते हैं, बाकी सब धीरे-धीरे उनके साथ काल के गर्त में समा गए। लंबी वाली चली गई लोढ़ामा खत्म हो गया और न जाने गांव के दूसरे बगीचों के कौन-कौन से पेड़ खत्म हो गए। एक पेड़ का नाम है दीदी वाली, शायद ये अब भी अपनी जगह हो। उससे बहुत आम चुराए हैं। कितना शैतान होता है बचपन। कभी गर्मियों में भी वो नाले से बनी नदी जिसे धपसिया कहते हैं लबालब भरी रहती थी और बहती भी थी। बस पूरी दोपहर बगीचे में आम और घर से लाई रोटियों का मजा लेते थे। जब मर्जी आए एक डुबकी पानी पर मार ली।
बगीचे में एक आशियाना बनाया जाता था। उस झोपड़ी में जरूरत का सारा सामान उपलब्ध होता था। कुछ जरूरी तेजधार हथियार जो सांप-बिच्छू सहित बगीचे में उगे अनावश्यक झाड़ी-झंकाड़ की सफाई के लिए काम आते थे। ऐसे ही टार्च, बोरियां, बिस्तर और नमक-मसालों का भी इंतजाम जरूरी रहता था। आम पकने के समय रात का बसेरा भी किया जाता था।
बचपन में पेड़ों पर खेलने वाला एक प्रमुख खेल होता था ‘इमली का डंडा’। इसमें पेड़ के नीचे एक डंडा रखा जाता था और बारी-बारी सबको दाम देना होता था। पेड़ पर सारे खिलाड़ी छुपते थे, जो बच्चा फील्डर की तरह दाम देता था उसे सबको नीचे पड़े डंडे को चूमने से पहले पकड़ना होता था। अगर किसी एक को पकड़ लिया तो वो दाम देगा बाकी सब गिनती शुरू होते ही पेड़ पर टंग जाएंगे। अमूमन एक ही छोकरा पूरी दोपहर दाम देता-देता थक जाता था, क्योंकि गिनती शुरू होते ही सब पेड़ पर टंग जाते थे और उससे बच-बचाकर इमली का डंडा चूम लेते थे। वो कब ऊपर से कूदकर नीचे आ जाते थे नीचे वाले बच्चे को पता ही नहीं चलता था, क्योंकि वो पेड़ पर कभी इस बच्चे के पीछे उसे पकड़ने को भाग रहा है तो कभी किसी और को। काफी कसरत भरा मगर रोचक खेल होता था। इसमें कई बार कुछेक छोकरों के हाथ-पैर भी टूटे। कुछ भागने के चक्कर में ऊपर से ऐसे फिसले कि सीधा अस्पताल में प्लास्टर चढ़ाने की नौबत आ गई। ये सब उस याद का हिस्सा हैं, जिनके जबां पर आते ही न जाने उस गोष्ठी के कितने बालसखा और सखियां याद आ जाती हैं, जिनका अब कोई रता-पता ही नहीं। हजारों ऐसी यादें और धीरे-धीरे गांव का अपना पुराना स्वरूप खोते जाना मन को भारी दुख देता है।
ये चित्र जो इस चिट्ठे के साथ साझा कर रहा हूं ये उस दरख्त का है, जिसका आम खाकर मैं बड़ा हुआ हूं। ये गांव के ही बुजुर्ग दादू बब्बा के बगीचा का है। गांव के राम मंदिर के किनारे बने खेल के मैदान के पास का दृश्य अब बदल गया है। बगीचे को ईंट बनाने वाले भट्ठा ठेकेदारों को दे दिया गया है, जिससे बगीचे के बीच-बीच में खाली पड़ी जमीन को खोदकर वहां की मिट्टी के ईंट बनाए जाते हैं और इस प्रक्रिया में पूरा बगीचा भारी गड्ढ़ों का गढ़ बन गया है, ऐसे में ये पेड़ शायद पर्याप्त पानी और मिट्टी उसके नीचे न बचे रहने से दिन-ब-दिन सूख गया है।
गांव के लगभग बाग-बगीचे अपने चरम पर पहुंचकर अब अपने अंत की ओर हैं। कुछ तो आधुनिक विकास की भेठ चढ़ रहे हैं, तो कुछ अपनी उम्र पूरी कर सूख रहे हैं। इनमें से कुछ ऐसे भी हैं जो केवल और केवल लापरवाही की वजह से सूख रहे हैं। बहरहाल जो भी हो ये वो दरख्त और झाड़ी-झंकाड़ वाले बाग-बगीचे हैं जिनमें मेरे जैसे गांव के कितने शैतान लौंडों का बचपन कैद है अब लगता है कि साला अपना बुढ़ापा आने तक गांव में हमारी यादों के अवशेष भी न बचेंगें। बहुत कुछ आधुनिकता लील रही तो बहुत कुछ लोगों का बढ़ता लापरवाह रवैया। जल्द लौटूंगा इन जंजालों से मुक्त होकर शायद गांव में कुछ बचाने में कामयाबी हासिल हो सके।
© दीपक गौतम
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